Sunday 4 March, 2007

किशोर की डायरी का एक पन्ना

कुछ ब्लॉग मित्रों ने शिकायत की है कि मैं हिंदुस्तानी की डायरी से हटकर कुछ और लिखने लगा हूं। शिकायत जायज है। लेकिन इसमें मेरी एक मजबूरी भी है। किशोर की पैंतालीस सालों की जिंदगी पर लिखना उन पैंतालीस सालों को दोबारा जीने जैसा है। और इसमें nostalgia का कोई आनंद नहीं, बल्कि गहरी पीड़ा है। इसलिए मैं इसे धीरे-धीरे ही लिख पाऊंगा। आज पेश है किशोर की डायरी का एक पन्ना, जिससे उसकी मानसिक बुनावट के बारे में थोड़ा अंदाजा लग सकता है।
मुझे बड़ा दुख होता है कि जब लोगों की बाहर दुनिया दूसरी होती है और अंदर की दूसरी। बाहर से बड़ी-बड़ी बातें करनेवाले लोग अंदर से दूसरे क्यों होते हैं और वे ही कामयाब होते हैं, ये बात मेरी समझ में नहीं आती। मुझे तो लगता है कि ब्रह्ममाण्ड में अंदर और बाहर की गतियों में उसी तरह का मेल होना चाहिए जैसे सौरमंडल में चक्कर काटते ग्रहों में होता है। पृथ्वी सूरज के चारों ओर तभी चक्कर काटती रह सकती है, जब उसकी अपनी धुरी पर भी उसी के अनुरूप गति होती रहे। अगर अपनी धुरी पर गति गड़बड़ हुई तो सौरमंडल में पृथ्वी का वजूद ही मिट जाएगा। फिर, हमारे समाज में लोग कैसे स्वांग कर चलते ही नहीं रहते हैं, कामयाब भी होते हैं।
मुझे वैसे लोग कतई पसंद नहीं हैं, जो दोहरी जिंदगी जीते हैं। यहां तक कि मैं उन साहित्यकारों की रचनाएं पढ़ना बंद कर देता हूं जिनकी जिंदगी दागदार होती है, जिनके बारे में मुझे पता चलता है कि वे अपनी जिंदगी में ईमानदार नहीं रहे हैं। मसलन, मेरे एक भूतपूर्व मित्र हैं, जिनकी आवाज बड़ी शानदार है और वे इसका नकदीकरण भी अच्छी तरह कर रहे हैं। मौलिकता की कमी उनमें शुरू से ही रही है। जैसे, जव वे एक और मित्र से प्रभावित हुए, तो थोड़ी ही समय में वे उसकी अनुकृति बन गए। चेहरा अलग था, तो अलग ही रहना ही था। लेकिन चेहरे के अंदर का चेहरा उन्होंने वैसा ही बना डाला। वैसी ही मुस्कान, वैसा ही अंदाज। पोस्टर बनाने में उन्हीं की नकल, यहां तक कि लिखावट का कोण भी वही। चालढाल और कपड़े पहनने का अंदाज भी एकदम फोटोकॉपी। इससे शुरू में ही उनके बारे में मेरी धारणा कमजोर पड़ गई। लेकिन जब पता चला कि मित्रों की बीवियां अपने घर में उनकी उपस्थिति से भय खाती हैं, तो मुझे उनकी याद से ही वितृष्णा होने लगी। फिर मुझे ये भी पता चला कि उन्होंने शादीशुदा होने के बावजूद कुछ परिवारों में कई बार आपत्तिजनक हरकतें भी की हैं। लेकिन वही सज्जन जब महिला अधिकारों, अल्पसंख्यकों की पीड़ा और नई दुनिया की बात करते हैं, तो मुझे लगता है ऐसा कैसे संभव हो जाता है। कोई शख्स कैसे खुद से छल कर सकता है।
वैसे, मुझे इस बात का ज्ञान है कि बाहर की दुनिया को साधना एक क्राफ्ट है, जबकि अंदर की दुनिया को साधना एक साधना है। शायद यही वजह है कि ‘क्राफ्टी’ लोगों से मेरी दोस्ती नहीं हो पाती। उनकी कपट मेरी नफरत का सबब बन जाती है। मुझे भी कबीर की तरह लगने लगता है कि तेरा मेरा मनवा कैसे एक होई रे, मैं कहता आंखिन की देखी, तू कहता कागद की लेखी। तू कहता अरुझावन हारी, मैं कहता सुलझावन हारी। मुझे लगता है कि आत्मनिरीक्षण और आत्मशोधन की प्रक्रिया का निरतंर चलते रहना जरूरी है। नहीं तो एक दिन आप आत्मनिर्वासित हो जाते हैं। सच को देखने, महसूस करने की आपकी क्षमता खत्म हो जाती है। फिर आप वही देखते हैं, जो आपके लिए सुविधाजनक होता है, आपके हितों के माफिक पड़ता है। ऐसे में कई बार आप ब्रह्म-हत्या जैसा पाप कर डालते हैं और मुश्किल ये है कि आपको इसका जरा-सा भान भी नहीं होता। आप खुद से झूठ बोलने के आदी हो जाते हैं। झूठ जीते हैं, झूठ ही पहनने और बिछाने लग जाते हैं। मैं ऐसा कतई नहीं बनना चाहता।
अभी तक लोग मेरे बारे में यही कहते रहे हैं कि मैं एक emotional fool हूं। मैं खुद भी बहुत हद तक लोगों की इस राय से इत्तेफाक रखता हूं। मैंने अभी तक अपनी जिंदगी ऐसे ही जी है। भावनाएं और नैतिकता ही मेरे किसी कदम का फैसला करती हैं। मेरे लगभग सभी फैसले इसी से तय होते हैं कि इससे सामनेवाले को परेशानी होगी या नहीं, ये लोकसम्मत है या नहीं। मैं ये नहीं कह सकता कि मैंने किसी को तकलीफ नहीं दी है। लेकिन मैं ये दावे के साथ कह सकता हूं कि मेरी नीयत कभी भी किसी को सताने की नहीं रही है।
मेरा सुरक्षा कवच बहुत पहले से टूटा हुआ है। तभी से मैंने खुद को लहरों के हवाले छोड़ रखा है। लहरों के थपेड़ो ने जहां उठाकर फेंक दिया, वहीं तब तक पड़े रहे, जब तक दूसरे थपेड़े ने किसी और ठिकाने नहीं लगा दिया। इस दौरान जो मिल गए वे अपने हो गए और जो चले गए वे पराए हो गए, उनकी याद भी मिट गई। इसी तरह चलती रही है अभी तक की जिंदगी, लेकिन मैं अब लहरों के दम पर नहीं, अपने दम पर जिंदगी जीना चाहता हूं। तैरना सीखना चाहता हूं, दुनिया की वैतरणी पार करना चाहता हूं।

1 comment:

अनूप शुक्ल said...

बढि़या लगा पढ़ने में। वैसे लोग कहते हैं कि सूरज का अन्दर का तापमान एक लाख डिग्री है जबकि बाहर सतह का तापमान छह हजार डिग्री। यह दोहरापन है कि नियमित अंतराल पर परिवर्तन!