ऑफ का इंतजार
उफ! ये कैसी थकान है जो मिटाए नहीं मिटती। नींद छह घंटे के बाद पहली बार टूटती है, लेकिन दो घंटे और सोता रहता हूं ताकि आज पूरी तरह तरोताजा होकर उठूं। लेकिन उठने के एकाध घंटे बाद ही थकान भांग के नशे की तरह फिर से बढ़ने लगती है।
मानस आज फिर इसी उलझन में गुंथा हुआ था। गाड़ी लोकल स्टेशनों पर रुकती हुई भागती जा रही थी, लेकिन मानस इसी सोच पर अटका हुआ था। माथे पर परेशानी की लटें थीं, आंखों में गहराती थकान का उनींदापन। वह इस बात से खीझ रहा था कि उसके साथ ये सिलसिला अभी से नहीं, पिछले बीस सालों से अनवरत चल रहा है जब उसकी उम्र पच्चीस साल की थी। अब तो वह इससे इतना आजिज आ गया है कि मन ही मन सोचता है कि अब पूरा ऑफ ही ले लिया जाए। जिस तरह हफ्ते में छह दिन के काम के बाद बड़ी शिद्दत से ऑफ के दिन का इंतजार रहता है, उसी तरह उसे अब अपनी जिंदगी के ऑफ का इंतजार है। मौत शायद उसके लिए ऐसी तसल्ली और सुकून ले आए, जिसमें डूबकर वह चैन की नींद सो जाएगा और उठेगा तो ओस से नहाए फूल की तरह एकदम ताजा होकर।
वैसे, सालोंसाल से थकान की हालत में जीते-जीते अब उसकी स्मृति का लोप भी होने लगा है। फिर भी दिमाग के किसी गहरे कोने से गीता के श्लोक की ये लाइनें उसकी स्मृति पर उभर आतीं कि, स्मृति भ्रंशात बुद्धिनाशो, बुद्धिनाशात् प्रणश्यति। बुद्धि का नाश होता जा रहा है, लेकिन प्राण हैं कि छूटने का नाम नहीं ले रहे। मानस को ये सोचते हुए अपनी आजी की याद आती जो पैंसठ साल की उम्र से ही प्राण के न छूटने का रोना रोती रहतीं, लेकिन जिंदा रहीं नवासी साल तक, वो भी अट्ठारह दिन कोमा में रहने के बाद ही उनके प्राण निकले।
खैर, मानस अभी भारत की 65 साल की औसत जीवनवय से बीस साल पीछे था। उसके मरने के आसार दूर-दूर तक नहीं थे। इधर मानस अपने एक दोस्त के इलाज के लिए मनोचिकित्सक के पास गया तो डॉक्टर दोस्त के बजाय उससे मुखातिब होकर बोला - U are looking very tired & bored from life, कुछ दिन की छुट्टी लेकर आराम क्यों नहीं कर लेते। मानस उस वक्त एक महीने से ऑफिस नहीं जा रहा था। दूसरी बार वह साइनस की बीमारी के लिए पत्नी के साथ डॉक्टर के पास गया तो डॉक्टर ने उसके पीछे पत्नी से पूछा कि इनके चेहरे पर इतनी उदासी क्यों है, क्या ये किसी तरह के अवसाद के शिकार हैं?
मानस को समझ में नहीं आता कि वह किसी को क्या बताए, कैसे अपनी हालत बयां करे। घर और बाहर के रिश्तों में कैसे ताजगी लाए। कैसे सब से चहक कर मिले। उसे खुद नहीं पता कि जिंदगी कैसे धीरे-धीरे उसके लिए बोझ बनती जा रही है, जिसे वह बेमन से खेए जा रहा है। कभी-कभी सोचता है कि क्या इसका ताल्लुक पंद्रह साल पहले डायग्नोज हुई उसकी डायबिटीज से है? हो सकता है। वैसे, देश के हर सौ में से दो लोगों को डायबिटीज है तो क्या ये सभी थके हुए रहते हैं? हो सकता है। लेकिन मन की थकान का भी ताल्लुक क्या डायबिटीज से हो सकता है? हो सकता है, क्योंकि मन की दशा शरीर में बनने वाले रसायनों से बनती है। लेकिन मन की दशा भी तो शरीर को प्रभावित करती है। ...तो क्या मन और शरीर दोनों ही मिलकर उसके पीछे पड़े हुए हैं?
उसका मन ज्यादातर किसी चीज में नहीं लगता। कोई जिम्मेदारी उसमें उत्साह नहीं पैदा करती। हां, खुद को दार्शनिक रूप से संतुष्ट करने के लिए वह कभी-कभी सोचता कि यही तो वह तटस्थ भाव है, एक योगी का भाव है जिसे गीता में निष्काम कर्मवाद कहा गया है। बुद्ध ने भी इसी तरह अपने से बाहर निकल कर खुद को देखने की बात कही है। लेकिन ये सोच भी उसे बस कुल पलों के लिए ढांढस बंधा पाती। उसके बाद वह फिर नींद भरी थकान में गुम हो जाता। ऐसा नहीं कि उसके भीतर नए विचार, नई भावनाएं नहीं आती। लेकिन आने के थोड़ी ही देर बाद वे भी ऐसे गायब हो जाती हैं कि लाख तलाशने पर भी उनका कोई छोर नहीं मिलता। उसे लगता कि कोई अतल सुरंग जैसी भंवर उसे खींचती चली जा रही है, जिसमें हाथ-पैर मारने का कोई फायदा नहीं है। वह भीतर-भीतर धंसता चला जा रहा है। कभी लगता था कि पाताल तक पहुंचने पर सांस लेने की फुरसत मिल जाएगी। लेकिन ऐसे किसी पल की आहट भी उसे दूर-दूर तक नहीं सुनाई दे रही है।
यही सारा सोच-सोचकर मानस आज खुद को बेहद अकेला और कमजोर महसूस कर रहा है। वैसे, उसके साथ ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, हर दस-पंद्रह दिन पर अक्सर होता रहता है। लेकिन ये अहसास भी बराबर विस्मृति की खोह में गायब हो जाता है।
मानस आज फिर इसी उलझन में गुंथा हुआ था। गाड़ी लोकल स्टेशनों पर रुकती हुई भागती जा रही थी, लेकिन मानस इसी सोच पर अटका हुआ था। माथे पर परेशानी की लटें थीं, आंखों में गहराती थकान का उनींदापन। वह इस बात से खीझ रहा था कि उसके साथ ये सिलसिला अभी से नहीं, पिछले बीस सालों से अनवरत चल रहा है जब उसकी उम्र पच्चीस साल की थी। अब तो वह इससे इतना आजिज आ गया है कि मन ही मन सोचता है कि अब पूरा ऑफ ही ले लिया जाए। जिस तरह हफ्ते में छह दिन के काम के बाद बड़ी शिद्दत से ऑफ के दिन का इंतजार रहता है, उसी तरह उसे अब अपनी जिंदगी के ऑफ का इंतजार है। मौत शायद उसके लिए ऐसी तसल्ली और सुकून ले आए, जिसमें डूबकर वह चैन की नींद सो जाएगा और उठेगा तो ओस से नहाए फूल की तरह एकदम ताजा होकर।
वैसे, सालोंसाल से थकान की हालत में जीते-जीते अब उसकी स्मृति का लोप भी होने लगा है। फिर भी दिमाग के किसी गहरे कोने से गीता के श्लोक की ये लाइनें उसकी स्मृति पर उभर आतीं कि, स्मृति भ्रंशात बुद्धिनाशो, बुद्धिनाशात् प्रणश्यति। बुद्धि का नाश होता जा रहा है, लेकिन प्राण हैं कि छूटने का नाम नहीं ले रहे। मानस को ये सोचते हुए अपनी आजी की याद आती जो पैंसठ साल की उम्र से ही प्राण के न छूटने का रोना रोती रहतीं, लेकिन जिंदा रहीं नवासी साल तक, वो भी अट्ठारह दिन कोमा में रहने के बाद ही उनके प्राण निकले।
खैर, मानस अभी भारत की 65 साल की औसत जीवनवय से बीस साल पीछे था। उसके मरने के आसार दूर-दूर तक नहीं थे। इधर मानस अपने एक दोस्त के इलाज के लिए मनोचिकित्सक के पास गया तो डॉक्टर दोस्त के बजाय उससे मुखातिब होकर बोला - U are looking very tired & bored from life, कुछ दिन की छुट्टी लेकर आराम क्यों नहीं कर लेते। मानस उस वक्त एक महीने से ऑफिस नहीं जा रहा था। दूसरी बार वह साइनस की बीमारी के लिए पत्नी के साथ डॉक्टर के पास गया तो डॉक्टर ने उसके पीछे पत्नी से पूछा कि इनके चेहरे पर इतनी उदासी क्यों है, क्या ये किसी तरह के अवसाद के शिकार हैं?
मानस को समझ में नहीं आता कि वह किसी को क्या बताए, कैसे अपनी हालत बयां करे। घर और बाहर के रिश्तों में कैसे ताजगी लाए। कैसे सब से चहक कर मिले। उसे खुद नहीं पता कि जिंदगी कैसे धीरे-धीरे उसके लिए बोझ बनती जा रही है, जिसे वह बेमन से खेए जा रहा है। कभी-कभी सोचता है कि क्या इसका ताल्लुक पंद्रह साल पहले डायग्नोज हुई उसकी डायबिटीज से है? हो सकता है। वैसे, देश के हर सौ में से दो लोगों को डायबिटीज है तो क्या ये सभी थके हुए रहते हैं? हो सकता है। लेकिन मन की थकान का भी ताल्लुक क्या डायबिटीज से हो सकता है? हो सकता है, क्योंकि मन की दशा शरीर में बनने वाले रसायनों से बनती है। लेकिन मन की दशा भी तो शरीर को प्रभावित करती है। ...तो क्या मन और शरीर दोनों ही मिलकर उसके पीछे पड़े हुए हैं?
उसका मन ज्यादातर किसी चीज में नहीं लगता। कोई जिम्मेदारी उसमें उत्साह नहीं पैदा करती। हां, खुद को दार्शनिक रूप से संतुष्ट करने के लिए वह कभी-कभी सोचता कि यही तो वह तटस्थ भाव है, एक योगी का भाव है जिसे गीता में निष्काम कर्मवाद कहा गया है। बुद्ध ने भी इसी तरह अपने से बाहर निकल कर खुद को देखने की बात कही है। लेकिन ये सोच भी उसे बस कुल पलों के लिए ढांढस बंधा पाती। उसके बाद वह फिर नींद भरी थकान में गुम हो जाता। ऐसा नहीं कि उसके भीतर नए विचार, नई भावनाएं नहीं आती। लेकिन आने के थोड़ी ही देर बाद वे भी ऐसे गायब हो जाती हैं कि लाख तलाशने पर भी उनका कोई छोर नहीं मिलता। उसे लगता कि कोई अतल सुरंग जैसी भंवर उसे खींचती चली जा रही है, जिसमें हाथ-पैर मारने का कोई फायदा नहीं है। वह भीतर-भीतर धंसता चला जा रहा है। कभी लगता था कि पाताल तक पहुंचने पर सांस लेने की फुरसत मिल जाएगी। लेकिन ऐसे किसी पल की आहट भी उसे दूर-दूर तक नहीं सुनाई दे रही है।
यही सारा सोच-सोचकर मानस आज खुद को बेहद अकेला और कमजोर महसूस कर रहा है। वैसे, उसके साथ ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, हर दस-पंद्रह दिन पर अक्सर होता रहता है। लेकिन ये अहसास भी बराबर विस्मृति की खोह में गायब हो जाता है।
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और मुझसे मिलने चले आइये..