तुम जीते क्यों नहीं यारा!
ऑफिस की आज की चाकरी पूरी हो गई, जिसकी बदौलत मेरा पूरा कुटुंब चलता है, उसका हक अदा करके खाली हो गया तो सोचा कि थोड़ा रुककर अब अपने मन की बात कह ली जाए। कल भगत सिंह की विरासत पर तिर्यक विचार पढ़े तो सोचा कि इसी बहाने हमारी रगों में बहते उस खून को याद कर लिया जाए, जिसकी तीन बूंदों का गला आज से ठीक 76 साल पहले घोंट दिया गया था।
अफसोस! भगत सिंह और उनके दो साथियों की शहादत वो मुकाम हासिल नहीं कर सकी, वो सपना पूरा नहीं कर सकी जिसका ख्वाब इन बंदों ने देखा था। इतिहास में यकीनन, ये हुआ होता तो क्या होता, की बातें नहीं चलतीं। लेकिन हमें सोचने से तो कोई नहीं रोक सकता कि अगर 23 मार्च 1931 की तारीख में हिंदुस्तानी जनमानस पर मोहनदास कर्मचंद गांधी जितना ही असर रखनेवाले भगत सिंह की अगुआई में देश ने आजादी हासिल की होती तो आज देश की हालत क्या होती? तब, शायद दलाली की राजनीति का जो दलदल आज गंध मार रहा है, वह नहीं होता। देश में सच्चा लोकतंत्र स्थापित हो चुका होता। हम दुनिया की अर्थव्यवस्था में चीन से पीछे नहीं, आगे होते।
अब तिर्यक विचार की बात। इस प्रेक्षण से कोई इनकार नहीं कर सकता कि आज के अच्छा-खासा खाते-कमाते मध्यवर्गीय युवा भी अजीब किस्म की पस्तहिम्मती से घिरे हुए हैं। दुनिया से पुरानी पीढ़ी की तुलना में ज्यादा जुड़े होने के बावजूद आत्मघाती अवसाद से शिकार हैं। राजनीति को हीनतर लोगों का काम मानते हैं। लेकिन इस हकीकत को भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि इन्हीं लोगों में वो लोग भी हैं जो आईआईटी और आईआईएम का शानदार करिअर छोड़कर शहरों की गरीब बस्तियों और गांवों की तंग गलियों का रुख कर रहे हैं। और कुछ नहीं तो सूचना के हक की अलख जगाकर तंत्र का गिरेबान पकड़ रहे हैं। ये लोग उन्हीं नौजवानों की बहती धारा की ताजा लहर हैं जो अपना करिअर और पढ़ाई छोड़कर नक्सल आंदोलन में गए थे, जे पी आंदोलन में गए थे या आजादी से पहले भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हुए थे।
भगत सिंह जब शहीद हुए थे, तब देश में उत्तर से लेकर दक्षिण तक शोक की लहर दौड़ गई थी, कई अखबारों में संपादकीय लिखे गए थे। आज भी हम उस 23 साल के नौजवान की शहादत को याद करते हैं। लेकिन तब भी और आज भी हममें से ज्यादातर लोग भगत सिंह को एक पूर्ण-विराम के रूप में देखते हैं, निरंतरता के रूप में नहीं। भगत सिंह के जमाने में भी क्रांतिकारी अल्पमत में थे और आज भी अल्पमत में हैं, इस पर टेंसुए बहाने की क्या जरूरत है? क्रांतिकारी तब समाज के बहुमत में आते हैं, जब उनका सच सारे समाज के गले उतर चुका होता या वे सत्ता में आ गए होते हैं।
हमें ये समझना होगा कि क्रांति कोई अचानक हुआ विस्फोट नहीं है। वह तो एक सतत प्रक्रिया है जो सदिच्छाओं और दुखी मन के उच्छ्वास से नहीं चलती। मगर, मुश्किल ये है कि हमारी आदत पड़ गई है कि जो नहीं रहता, उसके लिए हम विलाप करते हैं और जो जिंदा हैं उनकी तरफ न तो देख पाते हैं और देख भी पाते हैं तो उनकी कीमत नहीं समझते।
दरअसल, हमारा तथाकथित चैतन्य बुद्धिजीवी समाज एक थका हुआ अतीतजीवी समाज बन गया है। तिर्यक विचारों की बात करते हुए वो भी रैखिक चिंतन ही कर रहा है। अंश को समग्र समझने की गलती कर रहा है। सतह तो देख रहा है लेकिन सतह के भीतर बनती लहरों को नहीं देख पा रहा है। ये किसी मनोचिकित्सक का बताया आशावाद नही है। ये हकीकत है जिसे कबीर, बुद्ध और भगत सिंह की परंपरा के लोग साफ देख सकते हैं। अंत में ये वादा - हम लड़ेंगे साथी, जब तक लड़ने की जरूरत बाकी है।
अफसोस! भगत सिंह और उनके दो साथियों की शहादत वो मुकाम हासिल नहीं कर सकी, वो सपना पूरा नहीं कर सकी जिसका ख्वाब इन बंदों ने देखा था। इतिहास में यकीनन, ये हुआ होता तो क्या होता, की बातें नहीं चलतीं। लेकिन हमें सोचने से तो कोई नहीं रोक सकता कि अगर 23 मार्च 1931 की तारीख में हिंदुस्तानी जनमानस पर मोहनदास कर्मचंद गांधी जितना ही असर रखनेवाले भगत सिंह की अगुआई में देश ने आजादी हासिल की होती तो आज देश की हालत क्या होती? तब, शायद दलाली की राजनीति का जो दलदल आज गंध मार रहा है, वह नहीं होता। देश में सच्चा लोकतंत्र स्थापित हो चुका होता। हम दुनिया की अर्थव्यवस्था में चीन से पीछे नहीं, आगे होते।
अब तिर्यक विचार की बात। इस प्रेक्षण से कोई इनकार नहीं कर सकता कि आज के अच्छा-खासा खाते-कमाते मध्यवर्गीय युवा भी अजीब किस्म की पस्तहिम्मती से घिरे हुए हैं। दुनिया से पुरानी पीढ़ी की तुलना में ज्यादा जुड़े होने के बावजूद आत्मघाती अवसाद से शिकार हैं। राजनीति को हीनतर लोगों का काम मानते हैं। लेकिन इस हकीकत को भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि इन्हीं लोगों में वो लोग भी हैं जो आईआईटी और आईआईएम का शानदार करिअर छोड़कर शहरों की गरीब बस्तियों और गांवों की तंग गलियों का रुख कर रहे हैं। और कुछ नहीं तो सूचना के हक की अलख जगाकर तंत्र का गिरेबान पकड़ रहे हैं। ये लोग उन्हीं नौजवानों की बहती धारा की ताजा लहर हैं जो अपना करिअर और पढ़ाई छोड़कर नक्सल आंदोलन में गए थे, जे पी आंदोलन में गए थे या आजादी से पहले भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हुए थे।
भगत सिंह जब शहीद हुए थे, तब देश में उत्तर से लेकर दक्षिण तक शोक की लहर दौड़ गई थी, कई अखबारों में संपादकीय लिखे गए थे। आज भी हम उस 23 साल के नौजवान की शहादत को याद करते हैं। लेकिन तब भी और आज भी हममें से ज्यादातर लोग भगत सिंह को एक पूर्ण-विराम के रूप में देखते हैं, निरंतरता के रूप में नहीं। भगत सिंह के जमाने में भी क्रांतिकारी अल्पमत में थे और आज भी अल्पमत में हैं, इस पर टेंसुए बहाने की क्या जरूरत है? क्रांतिकारी तब समाज के बहुमत में आते हैं, जब उनका सच सारे समाज के गले उतर चुका होता या वे सत्ता में आ गए होते हैं।
हमें ये समझना होगा कि क्रांति कोई अचानक हुआ विस्फोट नहीं है। वह तो एक सतत प्रक्रिया है जो सदिच्छाओं और दुखी मन के उच्छ्वास से नहीं चलती। मगर, मुश्किल ये है कि हमारी आदत पड़ गई है कि जो नहीं रहता, उसके लिए हम विलाप करते हैं और जो जिंदा हैं उनकी तरफ न तो देख पाते हैं और देख भी पाते हैं तो उनकी कीमत नहीं समझते।
दरअसल, हमारा तथाकथित चैतन्य बुद्धिजीवी समाज एक थका हुआ अतीतजीवी समाज बन गया है। तिर्यक विचारों की बात करते हुए वो भी रैखिक चिंतन ही कर रहा है। अंश को समग्र समझने की गलती कर रहा है। सतह तो देख रहा है लेकिन सतह के भीतर बनती लहरों को नहीं देख पा रहा है। ये किसी मनोचिकित्सक का बताया आशावाद नही है। ये हकीकत है जिसे कबीर, बुद्ध और भगत सिंह की परंपरा के लोग साफ देख सकते हैं। अंत में ये वादा - हम लड़ेंगे साथी, जब तक लड़ने की जरूरत बाकी है।
Comments