भारत खड़ा बाजार में
टीम इंडिया के वर्ल्ड कप टूर पर रवाना होने से पहले विज्ञापन की दुनिया के मोस्ट क्रिएटिव ऑल राउंडर प्रसून जोशी ने एक एक्सक्लूसिव कविता लिखी, जो कुछ इस तरह है....
जब तुम चलोगे, ये धरती चलेगी, फिज़ाएं चलेंगी
तूफान बनकर तुम्हारे वतन से हवाएं चलेंगी।
तुम्हें खेलना तो अकेले ही होगा, मगर याद रखना
पुकारोगे जब भी, करोड़ों दिलों की दुआएं चलेंगी।।
प्रसून जी पढ़े-लिखे इंडियन हैं। रंग दे बसंती के संवाद और गानों से उन्होंने साबित कर दिया है कि वे बदलते समाज की सकारात्मक ऊर्जा को पहचानते हैं। ठंडा मतलब कोकाकोला लिखकर उन्होंने बेहद सहज बातों को पकड़ने की समझ भी दिखाई है। लेकिन...एक नया कल चाहते हैं हम, इसलिए सच दिखाते हैं हम...लिखनेवाले प्रसून जोशी ने टीम इंडिया के टूर पर करोड़ों दिलों की दुआएं न्यौछावर करके साफ दिखा दिया कि वे शुद्ध प्रोफेशनल हैं और कभी भी अपने क्लाएंट के लिए निष्काम भाव से लिख सकते हैं कि जुबां पे सच, दिल में इंडिया। प्रसून जी की व्यावसायिक प्रतिबद्धताएं हम बखूबी समझते हैं और धंधे से इतर उनसे कोई उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए।
लेकिन प्रसून जी, आप इंडियन हैं तो हम भी ठसके से भारतीय हैं। इस देश में जितना हिस्सा आप जैसे संभ्रांत लोगों का है, उससे कम हिस्सा हमारा नहीं है। इसलिए आप जैसे समझदार, ज्ञानवान, पढ़े-लिखे शख्स को कहीं से ये हक नहीं मिल जाता कि आप इस देश को, इसकी अस्मिता को, इसके करोड़ों बाशिंदों की राष्ट्रभक्ति को बेचने लग जाएं।
हम तो अभी तक यही समझते थे कि देश, धर्म और जाति ही नहीं, धंधे से भी ऊपर है। ये देश जितना तिरुपति मंदिर के महंत का है, उतना ही सोनागाछी या श्रद्धानंद मार्ग की किसी सेक्स वर्कर का भी है। लेकिन आप ही नहीं, टेलीविजन समाचारों की पूरी दुनिया, बॉलीवुड के बादशाह और सुरों के सामी तक ने हमारी आंखों में उंगली घोंपकर दिखा दिया है कि हम गलत थे। इस देश में कुछ लोग रहते हैं और कुछ लोग इसे बेचते हैं। वेस्ट इंडीज जाने से एक दिन पहले टीम इंडिया इन सभी 'कलाकारों' के साथ मिलकर पेप्सी को नहीं, पूरे देश की उस बलिदानी मासूम भावना को बेच रही थी, जिसे देशभक्ति या राष्ट्रवाद कहते हैं।
कोई मुझे बताए कि एक प्राइवेट क्लब बीसीसीआई के कांट्रैक्ट-भोगी कर्मचारी करोड़ों भारतीयों के प्रतिनिधि कैसे बन गए? अगर बन भी गए तो उन्हें ये हैसियत किन लोगों ने दिलाई है? हम मानते हैं कि बाजार को एकल सिंबल चाहिए, जिसके जरिए वह ज्यादा से ज्यादा कंज्यूमर्स तक पहुंच सके। लेकिन तुम अमिताभ को बेचो, सचिन को बेचो, धोनी को बेचो। इस देश के करोड़ों मासूम मदहोश लोगों की भावनाओं को तो मत बेचो, क्योंकि फिलहाल न तो ये देश बिकाऊ है और न ही ये लोग।
हो सकता है कल जब सरकारें गायब हो जाएं, देश की सीमाएं खत्म होकर ग्लोबल हो जाएं, कंपनियां ही हमारी जिंदगी का अंधेरा-उजाला तय करने लग जाए, तब आपकी मुराद पूरी हो जाए। लेकिन उस दिन को आने में कभी बहुत वक्त लगेगा। वैसे, ऐसा दिन शायद किसी दिन आ ही जाए, क्योंकि जब टाटा समूह एक कंपनी को खरीदने पर देश के शिक्षा बजट के बराबर रकम खर्च कर सकता है, तब देश को खरीदना बहुत मुश्किल नहीं है। लेकिन उससे पहले शायद हमारे देश में काम कर रही कंपनियों को एक चीज पर अमल करना होगा, जिसका नाम है कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी। अरे, पहले देश तो बनाओ, फिर उसे खरीदने-बेचने की बात सोचना। नहीं तो अभी का बिखरा देश जिस दिन अपनी खोई अस्मिता को ढूंढ निकालेगा, उस दिन तुम कहीं के नहीं रहोगे। लेकिन तुम तो चारण-भांट परंपरा के उत्तराधिकारी हो, अब भी चाकरी करते हो, तब भी चाकरी करने लगोगे। तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा।
जब तुम चलोगे, ये धरती चलेगी, फिज़ाएं चलेंगी
तूफान बनकर तुम्हारे वतन से हवाएं चलेंगी।
तुम्हें खेलना तो अकेले ही होगा, मगर याद रखना
पुकारोगे जब भी, करोड़ों दिलों की दुआएं चलेंगी।।
प्रसून जी पढ़े-लिखे इंडियन हैं। रंग दे बसंती के संवाद और गानों से उन्होंने साबित कर दिया है कि वे बदलते समाज की सकारात्मक ऊर्जा को पहचानते हैं। ठंडा मतलब कोकाकोला लिखकर उन्होंने बेहद सहज बातों को पकड़ने की समझ भी दिखाई है। लेकिन...एक नया कल चाहते हैं हम, इसलिए सच दिखाते हैं हम...लिखनेवाले प्रसून जोशी ने टीम इंडिया के टूर पर करोड़ों दिलों की दुआएं न्यौछावर करके साफ दिखा दिया कि वे शुद्ध प्रोफेशनल हैं और कभी भी अपने क्लाएंट के लिए निष्काम भाव से लिख सकते हैं कि जुबां पे सच, दिल में इंडिया। प्रसून जी की व्यावसायिक प्रतिबद्धताएं हम बखूबी समझते हैं और धंधे से इतर उनसे कोई उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए।
लेकिन प्रसून जी, आप इंडियन हैं तो हम भी ठसके से भारतीय हैं। इस देश में जितना हिस्सा आप जैसे संभ्रांत लोगों का है, उससे कम हिस्सा हमारा नहीं है। इसलिए आप जैसे समझदार, ज्ञानवान, पढ़े-लिखे शख्स को कहीं से ये हक नहीं मिल जाता कि आप इस देश को, इसकी अस्मिता को, इसके करोड़ों बाशिंदों की राष्ट्रभक्ति को बेचने लग जाएं।
हम तो अभी तक यही समझते थे कि देश, धर्म और जाति ही नहीं, धंधे से भी ऊपर है। ये देश जितना तिरुपति मंदिर के महंत का है, उतना ही सोनागाछी या श्रद्धानंद मार्ग की किसी सेक्स वर्कर का भी है। लेकिन आप ही नहीं, टेलीविजन समाचारों की पूरी दुनिया, बॉलीवुड के बादशाह और सुरों के सामी तक ने हमारी आंखों में उंगली घोंपकर दिखा दिया है कि हम गलत थे। इस देश में कुछ लोग रहते हैं और कुछ लोग इसे बेचते हैं। वेस्ट इंडीज जाने से एक दिन पहले टीम इंडिया इन सभी 'कलाकारों' के साथ मिलकर पेप्सी को नहीं, पूरे देश की उस बलिदानी मासूम भावना को बेच रही थी, जिसे देशभक्ति या राष्ट्रवाद कहते हैं।
कोई मुझे बताए कि एक प्राइवेट क्लब बीसीसीआई के कांट्रैक्ट-भोगी कर्मचारी करोड़ों भारतीयों के प्रतिनिधि कैसे बन गए? अगर बन भी गए तो उन्हें ये हैसियत किन लोगों ने दिलाई है? हम मानते हैं कि बाजार को एकल सिंबल चाहिए, जिसके जरिए वह ज्यादा से ज्यादा कंज्यूमर्स तक पहुंच सके। लेकिन तुम अमिताभ को बेचो, सचिन को बेचो, धोनी को बेचो। इस देश के करोड़ों मासूम मदहोश लोगों की भावनाओं को तो मत बेचो, क्योंकि फिलहाल न तो ये देश बिकाऊ है और न ही ये लोग।
हो सकता है कल जब सरकारें गायब हो जाएं, देश की सीमाएं खत्म होकर ग्लोबल हो जाएं, कंपनियां ही हमारी जिंदगी का अंधेरा-उजाला तय करने लग जाए, तब आपकी मुराद पूरी हो जाए। लेकिन उस दिन को आने में कभी बहुत वक्त लगेगा। वैसे, ऐसा दिन शायद किसी दिन आ ही जाए, क्योंकि जब टाटा समूह एक कंपनी को खरीदने पर देश के शिक्षा बजट के बराबर रकम खर्च कर सकता है, तब देश को खरीदना बहुत मुश्किल नहीं है। लेकिन उससे पहले शायद हमारे देश में काम कर रही कंपनियों को एक चीज पर अमल करना होगा, जिसका नाम है कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी। अरे, पहले देश तो बनाओ, फिर उसे खरीदने-बेचने की बात सोचना। नहीं तो अभी का बिखरा देश जिस दिन अपनी खोई अस्मिता को ढूंढ निकालेगा, उस दिन तुम कहीं के नहीं रहोगे। लेकिन तुम तो चारण-भांट परंपरा के उत्तराधिकारी हो, अब भी चाकरी करते हो, तब भी चाकरी करने लगोगे। तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा।
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