अब विदेशी दबदबे से कैसे बच पाएगा हमारा मीडिया

कोलकाता के जेबकतरों के बारे में सुना है कि उनकी खास स्टाइल होती है। वो हमेशा ग्रुप में चलते हैं। जेबकतरे ट्रॉम में खड़े मुसाफिर के दोनों हाथों को अपने हाथों में ऐसा फंसाते हैं कि वो हाथ नीचे नहीं कर सकता। इस बीच उनका साथी मुसाफिर की जेब से बटुआ उड़ा लेता है। दिल्ली की प्राइवेट बसों में भी दो बार जेबकतरों को ऐसा करते देखा है। अखबारों और टेलिविजन न्यूज़ में सेंध लगाने के लिए विदेशी पूंजी ने भी यही तरीका अख्तियार किया है। और, हमारी सरकार न-न करते हुए भी उसका पूरा साथ दे रही है।

आपको पता ही होगा कि अभी न्यूज़ चैनलों और अखबारों में प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश (एफडीआई) की सीमा 26 फीसदी है। एफएम रेडियो में यह सीमा 20 फीसदी ही है। विदेशी कंपनियां इसे पहले चरण में 49 फीसदी करवाने के अभियान में लगी हुई हैं। उनकी लॉबीइंग का ही नतीजा है कि हमारी टेलिकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी, टीआरएआई समाचार चैनलों और अखबारों में एफडीआई की सीमा 49 फीसदी और एफएम रेडियो के मामले में न्यूज़ व करेंट अफेयर्स के लिए 26 फीसदी और नॉन-न्यूज़ के लिए 49 फीसदी करने की सिफारिश कर चुकी है। सरकार ने यह सिफारिश अभी तक मानी नहीं है।

वो दिन गए जब जनसंचार माध्यम लोकतंत्र में लोक के पहरेदार की भूमिका निभाते थे। संपादक की संस्था खत्म हो चुकी है। लोक से जुड़ी पत्रकारिता का जनाज़ा निकल चुका है। सारी विषयवस्तु अब अखबारों में सर्कुलेशन और चैनलों में टीआरपी के आधार पर तय होती है। करें क्या, मजबूरी है। ऐसा नहीं किया तो विज्ञापन नहीं आएंगे और विज्ञापन नहीं आएंगे तो मुनाफा तो दूर लागत तक निकालने के लाले पड़ जाएंगे। ज्यादातर अखबार 2-3 रुपए में बेचे जा रहे हैं, जबकि हर कॉपी पर कागज़ और स्याही का खर्च ही 8 रुपए से ज्यादा होता है। न्यूज़ चैनल में तो प्रोडक्शन से लेकर वेतन और मार्केटिंग पर हर महीने कम से कम चार-पांच करोड़ रुपए खर्च होते हैं। तभी तो इतना बड़ा नाम होने के बावजूद एनडीटीवी लगातार घाटे में चल रहा है।

ज़ाहिर है खबर दिखानेवालों के लिए विज्ञापन जीवन-मरण का मसला है। इस विज्ञापन का रिश्ता मार्केट रिसर्च और पीआर एजेंसियों से है। इन तीनों ही क्षेत्रों को 100 फीसदी विदेशी निवेश की सुविधा मिल चुकी है। इसके साथ ही प्रिटिंग संयंत्रों, तकनीकी पत्रिकाओं और नॉन-न्यूज़ चैनलों में भी शत प्रतिशत विदेशी निवेश की इजाज़त है। यानी एनडीटीवी अपने न्यूज़ चैनलों में भले ही 26 फीसदी एफडीआई की सीमा बरकरार रखे, लेकिन एनडीटीवी इमेजिन या गुड टाइम्स में वो मनचाही विदेशी पूंजी ला सकता है। ये भी तथ्य है कि अखबारों और चैनलों को ज्यादातर विज्ञापन बहुराष्ट्रीय कंपनियों और बड़े कॉरपोरेट घरानों से मिलते हैं। इसका तीन-चौथाई हिस्सा उन्हें 15 बड़ी विज्ञापन एजेंसियां दिलाती हैं। ओ एंड एम से लेकर मैक्कैन जैसी तमाम विज्ञापन एजेंसियां विदेशी कंपनियों के सौ फीसदी स्वामित्व वाली सब्सिडियरी हैं। ऊपर से और भी विदेशी विज्ञापन एजेंसियां देश में घुसती चली आ रही हैं।

इधर दुनिया में ही नहीं, भारत में भी एम्बेडेड पत्रकारिता की चर्चा ज़ोरों पर है। मीडिया प्लानिंग और कॉरपोरेट पब्लिक रिलेशन एजेंसियों का दखल बढ़ गया है। ऊपर से रीडरशिप सर्वे और टीआरपी बतानेवाली मार्केट रिसर्च एजेंसियां तय करती हैं कि कैसी खबरें ली जानी चाहिए और कैसी नहीं। विज्ञापनदाता इन्हीं की रिसर्च से अखबार और चैनल का चुनाव करते हैं। आज देश में पाठकों/दर्शकों का मूड बतानेवाली 75 फीसदी रिसर्च सात-आठ मार्केट रिसर्च एजेंसियां कर रही हैं जिन पर आंशिक या पूरा कब्जा विदेशी फर्मों का है। अब तो केबल और डीचीएच सेवाओं में भी विदेशी पूंजी निवेश की सीमा 49 फीसदी से बढ़ाकर 74 फीसदी करने की तैयारी हो चुकी है।

पूरा सीन यह बनता है कि विज्ञापन, मार्केट रिसर्च, मीडिया प्लानिंग और डिस्ट्रीब्यूशन एजेंसियों पर विदेशियों का प्रभुत्व कायम हो चुका है। और, ये सभी न्यूज़रूम के सारे दरवाजों पर धंधे का अमोघ-अस्त्र लेकर खड़ी हो गई हैं। ऐसे में न्यूज़रूम उनके हितों और चाहत के खिलाफ कैसे जा सकता है? हम मीडिया में एफडीआई पर बहस करते रहेंगे और एक दिन हमारे मीडिया संस्थानों के मालिक खुद-ब-खुद कह उठेंगे कि उन्हें 49 फीसदी एफडीआई से कोई विरोध नहीं है। सरकार तब एक कुशल पंच की तरह कह देगी कि मियां-बीवी राजी तो क्या करेगा काज़ी।
- संदर्भ: सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की निदेशक पी एन वसंती का एक लेख
फोटो सौजन्य: randbild

Comments

अरे बप्पा रे.... ऐसे काये डरा रये हो... रस्ता बता रये हों तो ठीक है. नई तो सवाल खडे करबे और डराबे के अलावा कछु काम नई आए का..
PREETI BARTHWAL said…
विदेशी रंग बहुत जल्दी चढ़ता है लोंगो में अनिल जी। सरकार अपने ऊपर कोई इल्ज़ाम नहीं चाहती सो खुद मेहनत करने से अच्छा उन्हे विदेशी के आगे दुम हिलाना ठीक लगता है।
अच्छा लिखा है आपने
मीडिया वालों को खालिस धन्धा ही करना है तो ‘समाज का प्रहरी’ होने का ढोंग क्यों करते हैं? यह ढोंग ही बुरा है जो खटकता है, बाकी पैसा बनाना तो कलियुग का पहला लक्ष्य हो ही गया है।
देशी पूंजीपतियों और जमींदारों की विदेशी पूंजी से मित्रता रखने वाली सरकार धीरे धीरे अपना नियंत्रण कर करती जा रही है विदेशी पूंजी का नियंत्रण बढ़ रहा है। यही है नवीनउपनिवेशवाद, या और कुछ?
Abhishek Ojha said…
मिडिया उद्योग के बारे में ज्यादा जानकारी तो नहीं है... पर स्थिति डरावनी लग रही है.

Popular posts from this blog

मोदी, भाजपा व संघ को भारत से इतनी दुश्मनी क्यों?

चेला झोली भरके लाना, हो चेला...

घोषणाएं लुभाती हैं, सच रुलाता है