महज मृदा और मुर्दा ताकतों से नहीं घिरे हैं हम
मैं सर्वे भवंतु सुखिन: कहता रहूं, निरंतर इसका जाप करता रहूं तो क्या सभी लोग सुखी हो जाएंगे? मैं व्यवस्था की नुक्ताचीनी करता रहूं, उसे बदलने की बात करता रहूं तो क्या वो बदल जाएगी? करीब चौदह महीने अफलातून भाई ने कुछ ऐसी ही बात उठाई थी कि चिट्ठे इंकलाब नहीं लाया करते। मैं उसकी बात से पूरी तरह सहमत होते हुए भी असहमत हूं। इसलिए कि आप कहें कि हाथ से खाना नहीं चबाया जाता तो मैं क्या कह ही क्या सकता हूं!! हाथ से हाथ का काम होगा और मुंह से मुंह का।
दिन में पचास रुपए कमानेवाले परिवार की बेटी से आप उम्मीद करें कि वो भरतनाट्यम की श्रेष्ठ नर्तकी बन जाए तो ये मुमकिन नहीं है। उसी तरह बचपन से लेकर बड़े होने तक एयरकंडीशन कमरों में ज़िंदगी बितानेवाला इंसान कोयलरी का कुशल मलकट्टा नहीं बन सकता। हां, वो अंदर की आंखों से, ज्ञान से, विवेक से, अध्ययन से, विश्लेषण से, लेखन से बता सकता है कि पानी कहां ठहरा हुआ है कि देश में सब कुछ होते हुए भी बहुतों के पास कुछ भी क्यों नहीं है और सामाजिक शक्तियों का कौन-सा कॉम्बिनेशन बदलाव का वाहक बन सकता है।
साइंटिस्ट को उसका काम करने दीजिए। काहे उससे मैकेनिक बनने की उम्मीद करते हैं। एक किस्सा है कि आइंसटाइन ने दो बिल्लियां पाल रखी थीं। एक मोटी-तगड़ी थी और दूसरी एकदम सीकिया। उन्होंने बढ़ई को बुलाकर कहा कि इन दोनों के लिए रहने का कोई बक्सा बना दे। बढ़ई ने लकड़ी का बक्सा बनाकर उसमें एक बड़ा-सा गोल छेद कर दिया। आइंसटाइन ने देखा तो पूछा कि इस छेद से तो बड़ी बिल्ली भीतर जाएगी, छोटी के लिए छोटा छेद कहां है? अब आप यह तो नहीं कह सकते कि जिस इंसान को इतना कॉमनसेंस नहीं है, वो सापेक्षता सिद्धांत कैसे खोज सकता है।
असल में क्या बदला जाना है हम उसकी सही-सही शिनाख्त ही नहीं कर पाते। व्यक्ति-व्यक्ति को बदलना है, आत्मशुद्धि करनी है, कुंडलिनी जगानी है और क्रांति भी करनी है। मेरा मानना है कि आत्मशोधन और परिष्कार निरंतर चलनेवाली सहज मानवीय प्रक्रिया है। आप अपने और औरों के प्रति ईमानदार हैं तो अंदर की साफ-सफाई, कटनी-छंटनी चलती रहेगी। जन-जन को नैतिक बनाना एक बहुत लंबी, सैकड़ों-हज़ारों साल चलनेवाली प्रक्रिया है। आहार, निद्रा, भय और मैथुन से तो आम इंसान ऊपर नहीं उठ सकता। लेकिन प्रकृति को बदलने और उसके साथ अपनी प्रकृति भी बदलने जाने का उसका खुरपेच भी शाश्वत है।
अब जो बदलता है वो है इंसान की सामाजिक चेतना और व्यवहार। सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय की चेतना अपने आप नहीं आती। इसे सुनिश्चित करनेवाले कानून की सख्ती लोगों को इसके लिए तैयार करती है और एक निश्चित अंतराल के बाद यह सभी की नैतिकता में शामिल हो जाता है। लेकिन चोरी करना अपराध है, झूठ बोलना पाप है जैसे नैतिक पैमाने स्थापित होने के बावजूद लोग चोरी करते ही हैं, झूठ बोलते ही हैं। इसलिए मानव समाज में कानूनों की ज़रूरत शायद हमेशा बनी रहेगी।
सवाल बस इतना है कि सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय के लिए ज़रूरी शासन तंत्र कैसे आए? ऐसा प्रशासन कैसे आए जिसकी अंतिम जवाबदेही अवाम के प्रति हो? अपने यहां लोकतंत्र है तो प्रशासन स्वायत्त होते हुए भी राजनीति को मुंह नहीं चिढ़ा सकता। इसलिए असली काम है राजनीति को बदलना। या यूं कहें कि ऐसी राजनीतिक सत्ता कायम करना जो देश में सच्चे लोकतंत्र की स्थापना को समर्पित हो, जिसकी नकेल अवाम के हाथों में हो। इसके लिए लोगों के दिमाग में जमे भ्रमों को, झाड़-झंखाड़ को काटना होगा। सत्ता की रग-रग से उन्हें वाकिफ कराना होगा। जो जितना समझ सके, उसका उतना समझना होगा। किसी को अर्थशास्त्र तो किसी को समाजशास्त्र।
फिर, असली बात ये है कि कोई किसी के भरोसे नहीं बैठा रहता। वंचित लोग संघर्ष करते रहते हैं। कोई भी समाज कभी मुर्दा नहीं होता। कोई कौम मुर्दा नहीं होती। मिट्टी के माधो नहीं होते हैं लोग। जो अशक्त या मानसिक रूप से दुर्बल होते हैं, वो किनारे लग जाते हैं। बाकी अधिकांश लोग बेहतर कल के लिए दिलोजान से कोशिश करते रहते हैं। इसमें हम भी हैं और आप भी। अगर हम अपने लिखने-पढ़ने से साफ देख लेते हैं कि किन शक्तियों के हित में पूरे देश-समाज का हित है, तो यह हमारी बढ़ी उपलब्धि होगी। अब हम अपना अर्जित ज्ञान अधिकतम संभव लोगों तक पहुंचा दें, बस हो गया हमारा काम पूरा। हर कोई मोर्चे पर जाकर बंदूक तो नहीं चलाता!!!
दिन में पचास रुपए कमानेवाले परिवार की बेटी से आप उम्मीद करें कि वो भरतनाट्यम की श्रेष्ठ नर्तकी बन जाए तो ये मुमकिन नहीं है। उसी तरह बचपन से लेकर बड़े होने तक एयरकंडीशन कमरों में ज़िंदगी बितानेवाला इंसान कोयलरी का कुशल मलकट्टा नहीं बन सकता। हां, वो अंदर की आंखों से, ज्ञान से, विवेक से, अध्ययन से, विश्लेषण से, लेखन से बता सकता है कि पानी कहां ठहरा हुआ है कि देश में सब कुछ होते हुए भी बहुतों के पास कुछ भी क्यों नहीं है और सामाजिक शक्तियों का कौन-सा कॉम्बिनेशन बदलाव का वाहक बन सकता है।
साइंटिस्ट को उसका काम करने दीजिए। काहे उससे मैकेनिक बनने की उम्मीद करते हैं। एक किस्सा है कि आइंसटाइन ने दो बिल्लियां पाल रखी थीं। एक मोटी-तगड़ी थी और दूसरी एकदम सीकिया। उन्होंने बढ़ई को बुलाकर कहा कि इन दोनों के लिए रहने का कोई बक्सा बना दे। बढ़ई ने लकड़ी का बक्सा बनाकर उसमें एक बड़ा-सा गोल छेद कर दिया। आइंसटाइन ने देखा तो पूछा कि इस छेद से तो बड़ी बिल्ली भीतर जाएगी, छोटी के लिए छोटा छेद कहां है? अब आप यह तो नहीं कह सकते कि जिस इंसान को इतना कॉमनसेंस नहीं है, वो सापेक्षता सिद्धांत कैसे खोज सकता है।
असल में क्या बदला जाना है हम उसकी सही-सही शिनाख्त ही नहीं कर पाते। व्यक्ति-व्यक्ति को बदलना है, आत्मशुद्धि करनी है, कुंडलिनी जगानी है और क्रांति भी करनी है। मेरा मानना है कि आत्मशोधन और परिष्कार निरंतर चलनेवाली सहज मानवीय प्रक्रिया है। आप अपने और औरों के प्रति ईमानदार हैं तो अंदर की साफ-सफाई, कटनी-छंटनी चलती रहेगी। जन-जन को नैतिक बनाना एक बहुत लंबी, सैकड़ों-हज़ारों साल चलनेवाली प्रक्रिया है। आहार, निद्रा, भय और मैथुन से तो आम इंसान ऊपर नहीं उठ सकता। लेकिन प्रकृति को बदलने और उसके साथ अपनी प्रकृति भी बदलने जाने का उसका खुरपेच भी शाश्वत है।
अब जो बदलता है वो है इंसान की सामाजिक चेतना और व्यवहार। सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय की चेतना अपने आप नहीं आती। इसे सुनिश्चित करनेवाले कानून की सख्ती लोगों को इसके लिए तैयार करती है और एक निश्चित अंतराल के बाद यह सभी की नैतिकता में शामिल हो जाता है। लेकिन चोरी करना अपराध है, झूठ बोलना पाप है जैसे नैतिक पैमाने स्थापित होने के बावजूद लोग चोरी करते ही हैं, झूठ बोलते ही हैं। इसलिए मानव समाज में कानूनों की ज़रूरत शायद हमेशा बनी रहेगी।
सवाल बस इतना है कि सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय के लिए ज़रूरी शासन तंत्र कैसे आए? ऐसा प्रशासन कैसे आए जिसकी अंतिम जवाबदेही अवाम के प्रति हो? अपने यहां लोकतंत्र है तो प्रशासन स्वायत्त होते हुए भी राजनीति को मुंह नहीं चिढ़ा सकता। इसलिए असली काम है राजनीति को बदलना। या यूं कहें कि ऐसी राजनीतिक सत्ता कायम करना जो देश में सच्चे लोकतंत्र की स्थापना को समर्पित हो, जिसकी नकेल अवाम के हाथों में हो। इसके लिए लोगों के दिमाग में जमे भ्रमों को, झाड़-झंखाड़ को काटना होगा। सत्ता की रग-रग से उन्हें वाकिफ कराना होगा। जो जितना समझ सके, उसका उतना समझना होगा। किसी को अर्थशास्त्र तो किसी को समाजशास्त्र।
फिर, असली बात ये है कि कोई किसी के भरोसे नहीं बैठा रहता। वंचित लोग संघर्ष करते रहते हैं। कोई भी समाज कभी मुर्दा नहीं होता। कोई कौम मुर्दा नहीं होती। मिट्टी के माधो नहीं होते हैं लोग। जो अशक्त या मानसिक रूप से दुर्बल होते हैं, वो किनारे लग जाते हैं। बाकी अधिकांश लोग बेहतर कल के लिए दिलोजान से कोशिश करते रहते हैं। इसमें हम भी हैं और आप भी। अगर हम अपने लिखने-पढ़ने से साफ देख लेते हैं कि किन शक्तियों के हित में पूरे देश-समाज का हित है, तो यह हमारी बढ़ी उपलब्धि होगी। अब हम अपना अर्जित ज्ञान अधिकतम संभव लोगों तक पहुंचा दें, बस हो गया हमारा काम पूरा। हर कोई मोर्चे पर जाकर बंदूक तो नहीं चलाता!!!
फोटो सौजन्य: DMC43
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