तुम हो जाओ ग्लोबल, अपन तो ‘कूपमंडूक’ ही भले

किसी को कूपमंडूक कहने का सीधा मतलब होता है कि उसने खुद को बहुत छोटे दायरे में समेट रखा है, असली दुनिया से उसने आंखें मूंद रखी हैं। लेकिन कन्नड़ के मशहूर कवि गोपालकृष्ण अडिगा की कूपमंडूक कविता इस शब्द का एक नया अर्थ खोलती है। कविता का नायक स्वप्नदर्शी और आदर्शवादी है जो समूचे ब्रह्माण्ड को अपने पहलू में समेट लेना चाहता है। वह सारे विश्व पर उड़ता है। लेकिन सफर के अंत में उसके पास रह जाते हैं चंद शब्द, कुछ जुमले। वह हर मौके पर वही जुमले बोलता रहता है। उसकी रचनात्मकता खत्म हो जाती है। आखिर में वह कुएं का मेढक बन जाता है और वहां जमा कीचड़ ही उसका संसार बन जाता है। आप सोच रहे होंगे कि उसने ऐसा क्यों किया?

माना जाता है कि जब किसी मेढक की खाल सूख जाती है तो वह अपनी पीली चमक को फिर से हासिल करने के लिए कीचड़ में चला जाता है। शायद, ग्लोबीकरण की तमाम चकाचौंध के बीच कुएं के मेढक के रूप में लौटने की अनिवार्यता होती है ताकि आपने अपनी सीमाओं को लांघने की चाहत में जो कुछ खोया है, उसे फिर से हासिल कर सकें। ऐसा कहना बेवजह नहीं है। कर्णाटक के दक्षिण और उत्तर कनारा ज़िले में बमुश्किल कुछ मील के अंतर पर आपको दो तरह के यक्षगान मिलते हैं, बडागू और तेंकु टिट्टू। राजस्थान में दस मील के दायरे में आपको भांति-भांति के ढोल मिलते हैं, जिनके बजाने का अंदाज़ भी अलग होता है।

भारत ने जिस दौर में जिस स्तर की विविधता का सृजन किया है, उस दौर में न तो विश्व बैंक का पैसा था और न ही आज की तरह किसी बुश की नज़र हम पर लगी हुई थी। जब हम एकता की तलाश में लगे हुए थे, तब भी हमारे पास गजब की विविधता थी। अपने यहां अद्वैत है जो सारे सिद्धांतों को एक सिद्धांत में समाहित करने की कोशिश करता है। इसके साथ ही स्थानीय ज़रूरतों को पूरा करनेवाले अनगिनत देवता हैं। क्षेत्र देवता है, गृहदेवता हैं तो हर किसी व्यक्ति के इष्टदेवता भी हैं। लेकिन इन सभी में ब्रह्म व्याप्त है।

ए के रामानुजन मुझे एक कहानी बताते थे, जिसे मैं अक्सर सुनाता रहता हूं। रामानुजन ने कन्नड़ में ही हज़ार से ज्यादा तरह के रामायण जुटाए थे। इसमें से मौखिक रूप से सुनाई जानेवाली रामायण में राम और सीता दोनों अनपढ़ हैं। वन जाने का प्रसंग है। राम सीता से कहते हैं – तुम मेरे साथ वन में नहीं आ सकती। तुम राजकुमारी हो। कष्ट नहीं सह सकती, इसलिए मेरे साथ मत आओ। सीता कहती हैं – मुझे आना पड़ेगा। मैं आपकी अद्धांगिनी हूं। राम बार-बार अपनी बात दोहराते हैं तो सीता उसका जवाब देती हैं कि हर रामायण में वह वन में जाती है तो आप मुझे इससे कैसे मना कर सकते हैं। यानी, कहानी एक है, लेकिन उसको कहने का अंदाज़ अलग-अलग है। यह है हमारी एकता की अनेकता।

लेकिन जब हम अनेकता में एकता पर ज्यादा ज़ोर देते हैं तब हम अपनी भिन्नता को लेकर ज्यादा सचेत हो जाते हैं। हममें से कोई तमिल होने का दावा करने लगता है तो कोई कन्नड़, कोई असमी तो कोई बंगाली। इसके विपरीत जब हम विविधता पर ज़ोर देते हैं और कहते हैं कि हम कन्नड़ हैं और दूसरों से हमारा कोई लेना-देना नहीं है, तब प्रतिक्रिया होती है कि नहीं, हम सब एक धारा के हिस्सा हैं, एक राष्ट्र हैं। हमारे वो तमाम महान संत एक हैं जिन्होंने उपनिषदों से लेकर रामायण और महाभारत की रचना की है। यही वजह है कि हम न तो एकता और न ही अनेकता पर अलग से ज़ोर दे सकते हैं। इसीलिए मुझे लगता है कि हम भारतीयों में एकल सूत्र खोजने की कोशिश में बीजेपी कामयाब नहीं होगी।

भारतीय मानस और संस्कृति में एक तरह की उदारता और लचीलापन है। तभी तो गांधी जैसा आम गुजराती अखिल भारतीय शख्सियत बन जाता है। गांधी गुजराती बोलते थे, गुजराती में लिखते थे, उनके एक वैश्य के सभी गुण-अवगुण थे। लेकिन उनकी राष्ट्रीय और वैश्विक शख्सियत से कोई इनकार नहीं कर सकता। आडवाणी जब अपनी रथयात्रा की तैयारी कर रहे थे, तब मैंने एक कविता उनको संबोधित करते हुए लिखी थी। मैंने कहा कि कोई मुझसे पूछे कि तुम कौन हो तो अगर मैं लंदन में हूं तब कहूंगा कि मैं भारतीय हूं। वहां मुझे पाकिस्तानी से फर्क करना है क्योंकि हम एक जैसे दिखते हैं। दिल्ली में मैं कहूंगा कि मैं कर्णाटक से हूं। बैंगलोर में मैं कहूंगा कि मैं शिमोगा का हूं और शिमोगा में मैं मेलिगे बताऊंगा। और, अपने गांव मेलिगे में मैं कुछ नहीं कहूंगा क्योंकि वहां सब लोग मेरी जाति, उपजाति और यहां तक कि गोत्र भी जानते हैं।

ये सारी पहचान एक साथ चलती हैं, किसी का किसी से विरोध नहीं है। लेकिन भारतीय राजनीति उन्हें अलग और परस्पर विरोधी बनाना चाहती है। जब ऐसा किया जाता है तब हम किसी मूल्यवान चीज़ से हाथ धो बैठते हैं। कहा जाता है कि कोई कैसे कन्नड़ भी रह सकता है और भारतीय भी, तमिल भी और राष्ट्रभक्त भी? इस तरह के अंतर्विरोध आज की राजनीति ने पैदा किए हैं जो कहती है कि भारतीय होने या एक खास भाषा बोलनेवाले या किसी जाति विशेष से आने से भी बड़ी कोई और सच्चाई है। और, यही बात ग्लोबीकरण पर भी लागू होती है।

ग्लोबीकरण के झोंके में बह गए तो हम कहीं के नहीं रहेंगे। हम अपनी तमिल, तेलुगू, या कन्नड़ जैसी सांस्कृतिक पहचान खो बैठेंगे, लेकिन कोई दूसरी संस्कृति अंगीकार नहीं कर पाएंगे। हम चाहकर भी अमेरिकी या पश्चिमी संस्कृति नहीं अपना सकते। मन की यह हालत खतरनाक है। यह मानव आत्मा की थकान को दर्शाती है। यही अडिगा की कविता का आखिरी संदेश भी है। कवि कहता है कि मैं थक गया हूं, मैं कुएं का मेढक बनना चाहता हूं ताकि मैं अपनी चमक को फिर से हासिल कर सकूं। शायद ग्लोबीकरण में कुछ दूर और चलने पर हम भी ऐसा ही महसूस करने लगेंगे।
- प्रोफेसर यू आर अनंतमूर्ति के एक भाषण का अनूदित अंश

Comments

Abhishek Ojha said…
विचारणीय लेख है ! मेंढक वाली बात अच्छी लगी. प्रोफेसर अनंतमूर्ति के बारे में भी पहली बार पढ़ा. धन्यवाद.
Unknown said…
अनिल भाई - मेरा कहना है - आख़िर हज़ार रामायण बनीं कैसे? या लोग अलग अलग ढोल क्यों बजा लेते हैं?- पैदल/ बैल-गाडी के ज़माने का आन गाँव, आज के विदेश से कम थोड़े ही होगा? जैसे लहजे कल बदल जाते रहे वैसे आज भी बदल रहे हैं - वितान बस बड़े हैं [ अच्छा है या बुरा - राम जाने - कभी ठीक लगता है कभी नहीं] - बहता पानी मिट्टी का रंग लेगा - ज़हर भी लेगा- उसे अपना स्वाद भी देगा जीवन भी - मेंढक क्यों बने - पानी क्यों नहीं? [ :-)]-सादर - मनीष
अनंतमूर्ति के विचारों पर
टिप्पणी मैं क्या करुँ ?
पर यह अवश्य कहूँगा कि
अनुवाद के साथ आपकी भूमिका
बेहद माकूल है....आभार.
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चन्द्रकुमार
अँतराष्ट्रीय भूमि पर ज़िँदा रहकर भी व्यक्ति अपनी सोच से सुसँस्कृत या छीछोरा बना रहता है -
मेढँक के कूप मेँ भी अब रोज १०० टीवी चेनलोँ से बाहर की घटना प्रकाशित हो रही है -कूप
बदल रहा है ...बस, अपने भीतर की इन्सानियत को अगर कहीँ भी रहते हुए, कोई बचा पाया
वही जीवन का कम्पास या धुरी पा गया !
- लावण्या
जरूरी है मेंढ़क का वापस कीचड़ में लौटना। क्यों दिन भर सिर उच्चता का और पैर निम्नता का अहसास लिए रहने के बाद विश्राम के समय एक तल पर आते हैं। वापस ऊर्जा और नएपन के संचार के लिए ही न?
हम मेढ़क के बजाय अपना रुपक उस पक्षी को क्यों न बनाएं जिसके पास उड़ने को मुक्त आकाश है, विलक्षण क्षमता वाले पंख हैं, कर्णप्रिय बोली है, उँची उड़ान पर जाने का उत्साह है... फिर भी वह धरती से पूरी तरह जुड़ा हुआ है जहाँ उसका अपना घोसला है, प्रकृति की हरियाली है, परिवार और बच्चे हैं, सामाजिकता है, दुश्मन और दोस्त पशु-पक्षी व मनुष्य हैं। जिन्दगी की तमाम जिम्मेदारियाँ और चुनौतियाँ है फिर भी घनघोर जिजीविषा है...
विचारणीय लेख है.....कही कही सोचने पर मजबूर करता है.....

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