बंटवारे का दंश झेला, फिर भी बंटवारे की राजनीति!!
आडवाणी अपनी किताब – My Country, My Life में लिखते हैं कि उनके सिंध में हिंदू-मुसलमान सांस्कृतिक रूप से इतने जुड़े हुए थे कि उन्हें एक दूसरे से अलग किया ही नहीं जा सकता था। फिर भी दो राष्ट्रों के सिद्धांत ने हिंदुस्तान को बांट दिया। लेकिन उन्हीं आडवाणी की राजनीति आज देश में हिंदू-मुस्लिम नफरत और बंटवारे पर टिकी हुई है। होना तो यह चाहिए था कि बंटवारे का दंश झेल चुके आडवाणी दोनों समुदायों को जोड़ने का काम करते। लेकिन वो कर रहे हैं इसका उल्टा। राजनीति की मजबूरी इंसान से क्या-क्या नहीं करवाती। आप पढ़िए कि आडवाणी ने अपनी किताब में लिखा क्या है...
14 अगस्त 1947...यही वो दिन था, जब संयुक्त भारत से काटकर एक अलग मुस्लिम देश के रूप में पाकिस्तान का गठन हुआ। कई सालों से मैं दो राष्ट्र के सिद्धांत का जुमला सुनता आ रहा था। मेरा युवामन इसे कतई पचा नहीं पा रहा था। हिंदू और मुसलमान कैसे दो अलग राष्ट्रों के वासी हो सकते हैं, सिर्फ इसलिए कि उनके धर्म अलग हैं, आस्थाएं अलग हैं? इसका कोई मतलब नहीं था जब मैं सिंध की सांस्कृतिक बुनावट और सामाजिक तानेबाने को देखता था जिसमें न तो हिंदू को मुसलमान से और न ही मुसलमान को हिंदू से अलग किया जा सकता था। इसी तरह सिंध को भारत से अलग नहीं किया जा सकता था। मेरा और सिंध के अधिकांश हिंदुओं का मानना था कि, “नहीं, पाकिस्तान नहीं बन सकता। हम हज़ारों साल से भारत का अंग रहे हैं और हमेशा रहेंगे। धर्म के आधार पर भारत का बंटवारा कभी नहीं हो सकता।”
लेकिन ऐसा ही हुआ। बंटवारा, जो कुछ सालों पहले तक कपोल-कल्पना लगता था, अब सच्चाई बन चुका था। मुझे याद है कि उस दिन कराची के बड़े हिस्से में कोई खुशियां नहीं मनाई गई थीं, हालांकि चंद इलाकों में पटाखे फोड़े गए थे और रात भर जश्न चले थे। अगले दिन भारत आज़ाद हो गया। तब भी शहर के हमारे हिस्से में कोई खुशी नहीं दिखी। इसके बजाय हर तरफ निराशा-हताशा का ही आलम था। भारत और पाकिस्तान में (अंग्रेज़ों का) यूनियन जैक झुका दिया गया। लेकिन उसकी जगह दो झंडे फहराए गए। दिल्ली में तिरंगा और पाकिस्तान में चांद-सितारे वाला हरा झंडा। उन दिनों मैं यही सोचा करता था कि मैं कितना बदकिस्मत हूं। मैंने 15 अगस्त को भारत का स्वतंत्रता दिवस भी नहीं मनाया, जबकि पांच साल पहले से, जब मैं आरएसएस का स्वयंसेवक बना था, तभी से इस दिन के आने का सपना देख रहा था। आनेवाले तमाम सालों तक वो दुखद और कड़वे विचार मुझे सालते रहे।
अंत में, किताब में लिखा साहिर लुधियानवी का एक शेर...
वो वक्त गया, वो दौर गया, जब दो कौमों का नारा था।
वो लोग गए इस धरती से, जिनका मकसद बंटवारा था।।
14 अगस्त 1947...यही वो दिन था, जब संयुक्त भारत से काटकर एक अलग मुस्लिम देश के रूप में पाकिस्तान का गठन हुआ। कई सालों से मैं दो राष्ट्र के सिद्धांत का जुमला सुनता आ रहा था। मेरा युवामन इसे कतई पचा नहीं पा रहा था। हिंदू और मुसलमान कैसे दो अलग राष्ट्रों के वासी हो सकते हैं, सिर्फ इसलिए कि उनके धर्म अलग हैं, आस्थाएं अलग हैं? इसका कोई मतलब नहीं था जब मैं सिंध की सांस्कृतिक बुनावट और सामाजिक तानेबाने को देखता था जिसमें न तो हिंदू को मुसलमान से और न ही मुसलमान को हिंदू से अलग किया जा सकता था। इसी तरह सिंध को भारत से अलग नहीं किया जा सकता था। मेरा और सिंध के अधिकांश हिंदुओं का मानना था कि, “नहीं, पाकिस्तान नहीं बन सकता। हम हज़ारों साल से भारत का अंग रहे हैं और हमेशा रहेंगे। धर्म के आधार पर भारत का बंटवारा कभी नहीं हो सकता।”
लेकिन ऐसा ही हुआ। बंटवारा, जो कुछ सालों पहले तक कपोल-कल्पना लगता था, अब सच्चाई बन चुका था। मुझे याद है कि उस दिन कराची के बड़े हिस्से में कोई खुशियां नहीं मनाई गई थीं, हालांकि चंद इलाकों में पटाखे फोड़े गए थे और रात भर जश्न चले थे। अगले दिन भारत आज़ाद हो गया। तब भी शहर के हमारे हिस्से में कोई खुशी नहीं दिखी। इसके बजाय हर तरफ निराशा-हताशा का ही आलम था। भारत और पाकिस्तान में (अंग्रेज़ों का) यूनियन जैक झुका दिया गया। लेकिन उसकी जगह दो झंडे फहराए गए। दिल्ली में तिरंगा और पाकिस्तान में चांद-सितारे वाला हरा झंडा। उन दिनों मैं यही सोचा करता था कि मैं कितना बदकिस्मत हूं। मैंने 15 अगस्त को भारत का स्वतंत्रता दिवस भी नहीं मनाया, जबकि पांच साल पहले से, जब मैं आरएसएस का स्वयंसेवक बना था, तभी से इस दिन के आने का सपना देख रहा था। आनेवाले तमाम सालों तक वो दुखद और कड़वे विचार मुझे सालते रहे।
अंत में, किताब में लिखा साहिर लुधियानवी का एक शेर...
वो वक्त गया, वो दौर गया, जब दो कौमों का नारा था।
वो लोग गए इस धरती से, जिनका मकसद बंटवारा था।।
Comments
फिर आडवाणी का इतिहास खंगाल कर क्या बताना चाहते हैं? जिन्ना की जिद मानकर जो भुगत लिया वो क्या कम था जो अब अफ़जल गुरू कि जिद भी मान ली जाय?
देश के बट्वारे के लिए और वर्तमान में देख रहा आने वाले बटवारे के लिए हिन्दुओं को जिम्मेदार माना जाना...भगवान बचाए बुद्धिजीविता से.
जिन्ना भी अंग्रेज़ों का दलाल था और गांधी व नेहरू भी। इन दलालों के लिए किसी भी कौम को दोषी ठहराना गलत है। हमारे मुस्लिम नेता भी आम नेताओं की तरह हैं। उन्हें पका-पकाया माल चाहिए। मुस्लिमों को डराकर वोट लेना उनकी फितरत है और बाकी नेताओं की भी। हमें राजनीति से इस फितरत को खत्म करना है। 1857 तक हम एक थे। फिर सायास बांट दिए गए। एक को दूसरे का हक मारनेवाला बता दिया गया। इस सिलसिले को अब तो बंद कर देना चाहिए।
और, शेष बंधुओं से मेरा यही कहना है कि मैंने आंखों पर लाल या भगवा किसी किस्म की पट्टी नहीं बांधी है। हिंदुस्तान और व्यापक अवाम की बेहतरी के ख्बाव देखता हूं और इसी ख्बाव के लिए आप सभी के एकजुट होने की कामना करता हूं। मेरी बात से आप आहत हुए हों तो मुझे इसका दुख है। लेकिन पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर सोचने की कोशिश करेंगे तो शायद मेरी भावना आपको आहत नहीं करेगी।
अडवाणी हमेशा इस देश मे अशांति फैलाते रहे निज स्वार्थ के लिये। कोई तो उनसे पूछे कि वे हमारी तरफ है या उनकी तरफ जो इस देश को शांत नही देखना चाहते है।
अनिल जी,
आप अपनी इस बात की थोड़ी गहराई से पड़ताल कीजिए। मेरे विचार से यह पट्टीदारी ऐसी है जिसमें बड़ा भाई लोकलाज के नाते अपने छोटे भाई की जायज-नाजायज मांगो को सिर्फ़ इसलिए मानता रहता है कि दुनिया उसी को दोषी मानेगी क्योंकि वो बड़ा है। इधर छोटा उसकी इस मजबूरी का फायदा उठाते हुए उसे ब्लैक-मेल करता जाता है। मुझे लगता है कि गांधी से लेकर अबतक बहुत से लोग इस ब्लैक-मेलिंग के शिकार होते रहे हैं। आज के अच्छे-भले लोग भी ‘साम्प्रदायिक’ होने का ठप्पा लगने के डर से मुस्लिम कुप्रवृत्तियों को नज़र-अन्दाज करके उनके हितों की बात पब्लिक में करते रहते हैं। इनके संगठित वोट की लालच तो अपनी जगह है ही।
आडवानी या मोदी ने शायद इस ब्लैक-मेलिंग की राजनीति से छुटकारा पाने के लिए अपनी अलग राह चुनी हो, और हिन्दू विचारधारा को साम्प्रदायिक ठहराने वाले राजनीतिक प्रचार का शिकार बनना कहीं बेहतर समझा हो। मैं इनका कभी प्रशंसक नहीं रहा, और न ही इनकी गतिविधियों से उपजी हिंसा को हिन्दू अवधारणा के अनुकूल मानता हूँ, लेकिन सिर्फ़ हिन्दूवादी बातें करने के कारण इन्हें सिरे से खारिज कर देना शायद आँख मूंदकर दिन को रात बताना होगा।
बंटवारे के समय हिन्दुस्तान या महात्मा गान्धी की पॉलिसी यह नहीं रही कि मुस्लिम भाई भारत छोड़ कर चले जाँय। जिन्हे मुस्लिम देश पसंद था वे गये। जिन्हे भारत प्यारा लगा वे रुके। लाख बुराइयों के बावजूद हमारे नेताओं ने संप्रभु संविधान के माध्यम से मुस्लिम भाइयों को वो सभी सहूलियतें भी दीं जो पाकिस्तान में किसी मुस्लिम को भी आज तक मयस्सर नहीं हैं। जो लोग यहाँ से गये वो तो आज भी मुहाज़िर ही हैं। विश्वास कीजिए- भारत में ऐसा संभव सिर्फ़ इसलिए हुआ क्योंकि भारत हिन्दू-बहुल देश है।
दुर्भाग्य है इस देश के विडम्बनापूर्ण लोकतंत्र का जहाँ पोलिटिकली करेक्ट होने के नाम पर घोर वैचारिक धाँधली की जा रही है।