ब्रह्मराक्षस का हश्र नहीं होनेवाला है हमारा

महीनों हो गए। दिल्ली के एक राजनीतिक मित्र का फोन आया था कि यार, तुम ये सब लिख क्यों रहे हो। वरिष्ठ हैं, इसलिए उनका जवाब नहीं दे पाया। लेकिन सोचता ज़रूर रहा। अगर मदन कश्यप कोई पत्रिका निकालें तो ठीक है, कोई राय साहब या पांडेजी बंद कमरों में बैठकर बोझिल विमर्शों और आत्म-प्रशस्ति से भरी प्रतिरोध की सामाजिक सांस्कृतिक पत्रिका निकालें तो ठीक है। तमाम लोग माथे पर लाल पट्टी बांधकर ब्लॉग लिखते रहें, दुकानें खोल लें, जूतम-पैजार करते रहें तो ठीक है। लेकिन मुझसे पूछा जाता है कि ये सब क्यों लिख रहे हो? ‘क्रांति के ठेकेदारों’ की बिरादरी मुझे अछूत समझकर थू-थू करती है और जमात में शामिल ब्लॉगिए अपने ब्लॉग पर मेरी छाया तक नहीं पड़ने देते हैं। इसीलिए कि मैं अपनी पीठ पर कोई मुलम्मा लगाने की ज़रूरत नहीं समझता!!

तकलीफ होती है, इंसान हूं, सामाजिक प्राणी हूं। जिनके साथ कभी काम किया हो, देश-दुनिया बदलने के सपने देखे हों, उनकी दुत्कार से दिल को बहुत चोट लगती है, न जाने कितने खंडों में टूटकर सिसकने लगता है दिल। अरे, पूरी ज़िंदगी के ऊर्जावान दिनों को झोंककर यही तो पूंजी जुटाई थी हमने और ‘वही सूत तोड़े लिए जा रहे हो।’ वैसे, इस नॉस्टैल्जिया को किनारें कर दें तो देश-समाज कमोवेश वैसा ही है जैसा उस समय हुआ करता था। उदारीकरण से आए ग्लोबीकरण के बाद आबादी के 80-100 लाख लोगों के चेहरों पर चमक ज़रूर बढ़ गई है। बीपीओ, कॉल सेटरों की रात की पारियां चल निकली हैं। सर्विस सेक्टर में बीस-पच्चीस लाख नई नौकरियां निकली हैं। लेकिन बाकी भारत पहले से ज्यादा निर्वासित हो गया है।

विकास में हिस्सेदारी की आवाज़ें ज्यादा मुखर हो गई हैं। एनजीओ की तादाद बढ़ गई है। क्रांतिकारियों की संख्या घट गई है। अवाम बंटता गया है। संगठन टूटकर बिखरते गए हैं। सभी संकरी गली से मंजिल तक पहुंचने की जुगत में हैं। सच्चे लोकतंत्र का एजेंडा पृष्ठभूमि में चला गया है। मजबूरी में कभी क्षेत्रीय ताकतों तो कभी मायावती में व्यापक अवाम का भविष्य देखना पड़ता है। विभ्रम पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गए हैं। हालात जटिल हो गए हैं। ऐसे में नहीं लिखूं तो क्या करूं?

किसी को बताने-समझाने के लिए नहीं लिखता। खुद जानने-समझने के लिए लिखता हूं। दिखता बहुत कुछ है, लेकिन उनके तार आपस में जोड़कर सच की पूरी तस्वीर नहीं बना पाता। बदलते समाज के द्वंद्व समझ में आते हैं, वर्ग हितों और संघर्षों का तर्क समझ में आता है। लेकिन आज के अपने समाज पर उन्हें इस तरह नहीं लागू कर पाता कि बदलने का कोई सूत्र हाथ लग जाए। इसी सूत्र की तलाश है, इसीलिए लिखता हूं। हर पुराने सूत्रीकरण में दम घुटता है, इसीलिए उनसे अलग हटकर लिखता हूं। बहुत-से लोगों ने सूत्रों को बांचने की दुकान खोल रखी है। उनके छल को छांटने के लिए लिखता हूं।

न भारतीय सभ्यता की सुदीर्घ परंपरा से वाकिफ हूं, न अपने इतिहास की गहरी जानकारी है। ये भी नहीं जानता कि भारतीय दर्शन परंपरा कहां और क्यों अवरुद्ध हो गई। नहीं जानता कि आम भारतीय के मानस पर अब भी मिथकों का इतना प्रभाव क्यों है। मिथक तो तभी तक अहमियत रखते थे जब तक इंसान प्राकृतिक शक्तियों से भयभीत रहता था। यूरोप में 500 ईसा-पूर्व के आसपास ही धार्मिक मान्यताओं और मिथकों की जगह दार्शनिक वाद-विवाद ने ले ली। लेकिन अपने यहां बुद्ध के बाद सब गड्डमड्ड क्यों हो गया? नहीं जानता। इसीलिए नौकरी से चंद घंटे निकाल कर पढ़ता हूं और कुछ समझ में आ जाता है तो लिख मारता हूं। क्या गुनाह करता हूं?

अपने उन राजनीतिक मित्र को मैं बता देना चाहता हूं कि बावड़ी में हाथ के पंजे, बांह-छाती-मुंह छपाछप साफ करते और कोठरी में अपना गणित करते ब्रह्मराक्षस जैसा हश्र नहीं होनेवाला है हमारा। हम कोई बुद्धिविलासी बुद्धिजीवी नहीं हैं। क्रांति का जाप करनेवाले वाममार्गी भी नहीं हैं। किसान के बेटे हैं। शहर में रहते हुए भी मन उन्हीं पीड़ाओं की थाह लेता रहता हैं। लक्षण दिखते हैं। उपचार नहीं समझ में आता। हां, इतना ज़रूर दिख रहा है कि किसान ही इस देश की मुक्ति का आधार बनेगा। लेकिन कैसे? मुझे नहीं पता। क्या आपको पता है मेरे मित्र?
फोटो सौजन्य: My Symbiosis

Comments

आप को ही नहीं किसी भी क्रांतिधर्मी को माथे पर लाल पट्टी लगाने की जरूरत नहीं है। सही है कि अभी आगे का रास्ता नजर नहीं आ रहा है, सब ओर धुंध छाई है। फिर भी आप बहुत अच्छा काम कर रहे हैं।
जब धुंध छटेगी और रास्ता दिखाई देने लगेगा तो सब साफ हो जाएगा कौन सही पथ पर है, कौन कदमताल कर रहा है और कौन अतिगामी होकर घायल पड़ा कराह रहा है?
हाँ, मैं अभी इस से सहमत नहीं कि किसान क्रांति का मुख्य आधार बनेगा। हाँ आधुनिक कृषि का खेत मजदूर उस आधार का हिस्सा हो सकता है। मेरा मंतव्य तो है कि बडी संख्या में जो तकनीकी प्रोफेशनल तैयार हो रहे हैं वे इस का मुख्य आधार बन सकते हैं, लेकिन स्थितियों को पकने में अभी समय लगेगा। मतभेदों के घर्षण से ही ऊर्जा उत्पन्न होगी। आप अपना काम करते रहें।
जिन्हें इस आलेख से आप ने जवाब देना चाहा है उन्हें उत्तर देने की आवश्यकता क्या है उन्हें वहीं कदमताल करने दीजिए जहाँ कर रहे हैं।
कुश said…
इधर उधर देखे बिना.. आप तो बस अपना काम करते चले जाइए
Anil Pusadkar said…
sahi kaha aapne anil jee,aapko kisi ke certificate ki zaroorat nahi hai,aap desh ke bare me imaandari se soch rahe hain,ye baat sach hai vikaas me hissedaari ki sirf aawaj mukhar hui hai,ngo to kukurmutton ki tarah ug aaye hain,wo karte kya hain sab ko pata hai,khair aapne sahi kaha agar desh ka bhala hoga to wo kisaano se,magar wo garib b hi kabhi kudrat se to kabhi bijli ki killat se to kabhi nakli khab-beej se chhala jaa raha hai.bina lal patti bandhe humare jaise ahut se log aapke sath hain
PREETI BARTHWAL said…
जरुरी नहीं सब आपकी बात से सहमत हो,
लेकिन हम आज़ाद देश के नागरिक है अपना मत रखने का पूरा हक़ है सो आप अपने दिल और दिमाग की सुनिए बाकि तो
कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना।
azdak said…
"किसी को बताने-समझाने के लिए नहीं लिखता। खुद जानने-समझने के लिए लिखता हूं। दिखता बहुत कुछ है, लेकिन उनके तार आपस में जोड़कर सच की पूरी तस्वीर नहीं बना पाता। बदलते समाज के द्वंद्व समझ में आते हैं, वर्ग हितों और संघर्षों का तर्क समझ में आता है। लेकिन आज के अपने समाज पर उन्हें इस तरह नहीं लागू कर पाता कि बदलने का कोई सूत्र हाथ लग जाए। इसी सूत्र की तलाश है, इसीलिए लिखता हूं। हर पुराने सूत्रीकरण में दम घुटता है, इसीलिए उनसे अलग हटकर लिखता हूं। बहुत-से लोगों ने सूत्रों को बांचने की दुकान खोल रखी है। उनके छल को छांटने के लिए लिखता हूं।"
लिखने के ये सभी कारण बड़े वाजिब हैं.

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