एक नई उम्मीद के साथ
इस कविता में मुक्तिबोध जैसे बिम्ब हैं, धूमिल जैसी निहंगई है और है पाश की पैनी धार। इसे मैंने दखल की दुनिया ब्लॉग पर पढ़ा, जिसका शीर्षक है हर बार आसमान में कुछ नया देखने को होता है। लेकिन वहां इसे जिस तरह घिचपिच अंदाज़ में गद्य के रूप में पेश किया गया था, मुझे नहीं लगता कि ज्यादा लोगों ने इस पर गौर किया होगा। कविता चंद्रिका की है या उन्होंने इसे पोस्ट भर किया है, मुझे नहीं मालूम। चंद्रिका जी, अगर आपने यह कविता खुद लिखी है तो मैं आपकी प्रतिभा की दाद देता हूं और आपने इसे केवल पोस्ट किया है तो इसे उपलब्ध कराने के लिए मैं आपका तहेदिल से शुक्रिया अदा करता हूं।
न रायपुर रायपुर है
न मैं, मैं हूं
देश में कई रायपुर हैं और कई मैं
'मैं' दूसरा बिनायक सेन है
तीसरा अजय टीजी
या कोई और आदमी जो रायपुर की सड़कों पर
घूमते हुए भूल जाता है आदमीयत की तमीज़
घर से निकल कर वापस न लौटने का खौफ़ लिए देश की सुरक्षा से असुरक्षित,
चलते-चलते अक्सर बदल देता है अपने रास्ते
कई बार सड़क के किनारे खडे़ पेड़ उसे देखते हैं हिकारत की नजर से
और वह भर उठता है भय और संदेह से
पूरा शहर 'मैं' के लिए वर्जित प्रांत है
जहां दमित जन के दमन के लिए दिए जा रहे तर्कों से असहमत होना
झूठे शांति अभियानों की खिलाफ़त करना उसे उग्रवादी बना देता है
सड़क पर आदमी की पहुंच से दूर मुख्यमंत्री का चेहरा उसे चिढा़ता है
उसे देख मंत्री मुस्कराते हैं
'मैं' होर्डिंग के नीचे से सिर झुकाकर निकल जाता है
चौराहे के दूसरे छोर पर पहुंच वह पीछे मुड़कर देखता है
कि मुख्यमंत्री उसे देख रहा है
उसका चेहरा और चौड़ा हो गया है
बगल लगी होर्डिंग में एक आदिवासी महिला
अपने कान से सटाकर मोबाइल से बात कर रही है
मोबाइल से बात करती महिला देश के विकास का बिम्ब है
जो हर दूसरे चौराहे पर मौजूद है
सामने गांधी पंक्ति के इस आखिरी आदमी को देख
खुश हैं या नाराज़, नहीं पता
उनकी आँखें नीचे झुकी हैं ठीक जमीन पर टिकी लाठी की नोंक पर
इंदिरा का चेहरा खिला हुआ है
2008 के आपातकाल को अनापातकाल समझती जनता को देख
एक पार्क में बैठकर मैं लम्बी सांस खींचता आसमान की तरफ़ देखता हूं
और खारिज़ कर देता हूं फ़र्नांदो पेसोवा को
कि आसमान में एक बार देख चुकने के बाद देखने को कुछ भी नहीं बचता
एक आभासी दुनिया, शून्य में, आसमान में
जहां कुछ भी नहीं होता
देखने पर हर बार कुछ नया होता है
एक नई उम्मीद के साथ...
न रायपुर रायपुर है
न मैं, मैं हूं
देश में कई रायपुर हैं और कई मैं
'मैं' दूसरा बिनायक सेन है
तीसरा अजय टीजी
या कोई और आदमी जो रायपुर की सड़कों पर
घूमते हुए भूल जाता है आदमीयत की तमीज़
घर से निकल कर वापस न लौटने का खौफ़ लिए देश की सुरक्षा से असुरक्षित,
चलते-चलते अक्सर बदल देता है अपने रास्ते
कई बार सड़क के किनारे खडे़ पेड़ उसे देखते हैं हिकारत की नजर से
और वह भर उठता है भय और संदेह से
पूरा शहर 'मैं' के लिए वर्जित प्रांत है
जहां दमित जन के दमन के लिए दिए जा रहे तर्कों से असहमत होना
झूठे शांति अभियानों की खिलाफ़त करना उसे उग्रवादी बना देता है
सड़क पर आदमी की पहुंच से दूर मुख्यमंत्री का चेहरा उसे चिढा़ता है
उसे देख मंत्री मुस्कराते हैं
'मैं' होर्डिंग के नीचे से सिर झुकाकर निकल जाता है
चौराहे के दूसरे छोर पर पहुंच वह पीछे मुड़कर देखता है
कि मुख्यमंत्री उसे देख रहा है
उसका चेहरा और चौड़ा हो गया है
बगल लगी होर्डिंग में एक आदिवासी महिला
अपने कान से सटाकर मोबाइल से बात कर रही है
मोबाइल से बात करती महिला देश के विकास का बिम्ब है
जो हर दूसरे चौराहे पर मौजूद है
सामने गांधी पंक्ति के इस आखिरी आदमी को देख
खुश हैं या नाराज़, नहीं पता
उनकी आँखें नीचे झुकी हैं ठीक जमीन पर टिकी लाठी की नोंक पर
इंदिरा का चेहरा खिला हुआ है
2008 के आपातकाल को अनापातकाल समझती जनता को देख
एक पार्क में बैठकर मैं लम्बी सांस खींचता आसमान की तरफ़ देखता हूं
और खारिज़ कर देता हूं फ़र्नांदो पेसोवा को
कि आसमान में एक बार देख चुकने के बाद देखने को कुछ भी नहीं बचता
एक आभासी दुनिया, शून्य में, आसमान में
जहां कुछ भी नहीं होता
देखने पर हर बार कुछ नया होता है
एक नई उम्मीद के साथ...
Comments
इस कविता के दृश्य और पृष्ठीय 'अंडरस्टेटमेंट' के पीछे पिन्हां हैं गुम चोटें,मौन कराहें और जमा हुआ क्रोध . एक चीत्कार जो अभी उठनी है .
साथ ही एक उम्मीद भी . जो हर 'सिनिक' को चिढाती है और हर 'स्वप्नदर्शी' का मौलिक औजार होती है .
यह कविता पिटे-पिटाए कवि समय के केंचुल को न केवल उतार फेंकती है; बल्कि,नई वास्तविकताओं को प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त करता नया कवि समय रचती है .
बेहद अच्छी और असरदार कविता .
कविता की चौथी,बारहवीं और सत्रहवीं पंक्ति में 'मैं' को यदि सिंगल इनवरटेड कौमा में कर दें तो शायद बेहतर हो .
जिनके सौजन्य से इसे पढ पाया.
कविता की सबसे खास बात इसका बहुत सटीक होना है न बहुत लाउड न बहुत अंडरटोन. गुस्सा जो बेचारगी और असहायता की हदों को छूता है.
कविता बेचैन करती है. और कवि की इस बात के लिये भी तारीफ होनी चाहिये कि इतने क्रूर समय का बयान करने के बाद भी कविता में उम्मीद बची रह्ती है. बेहद व्क्तिगत स्तर पर शायद मै अंत से सहमत न होउँ पर कविता बहुत अच्छी है.
अति सुंदर!
बेहतरीन....
बहुत ही उम्दा... रचना.
आपको बधाई.
एक आभासी दुनिया, शून्य में, आसमान में जहां कुछ भी नहीं होता
देखने पर हर बार कुछ नया होता है
एक नई उम्मीद के साथ...
सशक्त रचना...समीचीन प्रस्तुति
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साभार बधाई
डा.चन्द्रकुमार जैन