अखरता है किसी ज़िंदादिल इंसान का यूं चले जाना
करीब ढाई हज़ार साल पहले गौतम बुद्ध ने कहा था – अज्ञान ही दुख का मूल कारण है। लेकिन यह ज्ञान मुसीबत में हमारा साथ छोड़कर चला जाता है। अज्ञान से उपजी निराशा में आज भी करोड़ों लोग तिल-तिलकर मरते हैं और जो लोग इस धीमी मौत को बरदाश्त नहीं कर पाते वो खुदकुशी कर लेते हैं। मुंबई में मंगलवार की रात 39 साल के बाबू ईश्वर तेयर के साथ यही तो हुआ। दो साल पहले मेडिकल जांच में पता चला था कि वो और उसकी पत्नी दोनों ही एआईवी पॉजिटिव हैं। इलाज चलता रहा। खास फायदा नहीं दिखा। इधर पता चला कि उनकी छह साल की बेटी भी एचआईवी पॉजिटिव है। यह इतना बड़ा झटका था कि दक्षिण भारतीय फिल्मों के डिस्ट्रीब्यूशन और केबल टीवी का बिजनेस करनेवाले बाबू ईश्वर और उनकी पत्नी ने मरने-मारने का फैसला कर लिया।
बाबू का छोटा भाई अरमूखम तेयर उनके साथ रहता था। उसे भाई-भाभी की हालत पता थी। मंगलवार शाम को छोटे भाई को बड़े भाई का फोन आया कि तुम थोड़ी देर से आना क्योंकि वो परिवार के साथ कहीं बाहर जा रहे हैं। छोटे भाई को बड़े भाई के इरादों की भनक तक नहीं लगी। घर पर तीनों बच्चों को भी इनकी भनक नहीं लगी। उन्होंने आठ-नौ बजे तक अपने स्कूल के बैग पैक कर करीने से रख दिए। आराम से खाना खाया। मां-बाप ने मिठाई दी। मां-बाप को पता था कि मिठाई में ज़हर है। बच्चों को नहीं पता था। ज़हर ने असर दिखाया। सवा पांच सौ वर्गफुट के एक बेडरूम-हॉल किचेन फ्लैट में तीनों बच्चे हॉल, किचन या बेडरूम में जाकर कहीं लुढ़क गए। सब शांत हो गया तो मां-बाप ने नाइलोन की रस्सी पंखे से बांधी और लटक गए फांसी। अज्ञान से उपजी निराशा तीन मासूमों की मौत और दो समझदारों की खुदकुशी का सबब बन गई।
पहले छोटा भाई घर पहुंचा। अंदर से कोई हलचल नहीं हुई तो खिड़की से झांककर देखा। पुलिस को बुलाया। दरवाज़ा तोड़ा गया। घर के बेडरूम, ह़ॉल, किचन, डाइनिंग टेबल और फ्रिज़ ने सारी कहानी बयां कर दी। हॉल के कोने में तीनों बच्चों के स्कूल बैग सजे रखे थे। ग्रिल लगी बालकनी में पहले की तरह कपड़े सूख रहे थे, कुछ बड़ों के और ज्यादा बच्चों के। सोसायटी में बच्चों के साथ हुडदंग मचाकर बाबू के बच्चे करीब छह बजे घर लौटे थे कल मिलने के वादे के साथ। बताते हैं कि बच्चे इतने स्वस्थ थे कि पड़ोसी उन्हें माइक टाइसन कहते थे।
बाबू तो कहते हैं हीरा आदमी था। मेहनत और बुद्धि से सब कुछ उसने दुरुस्त कर लिया था। सेहत का पूरा ख्याल, हर रोज़ मॉर्निंग वॉक। हर साल सोसायटी में होनेवाली गणपति पूजा को बाबू ही स्पांसर करता था। एक ज़िंदादिल, ज़िम्मेदार शख्स। हर किसी का पूरा ख्याल रखनेवाला। एक दिन पहले ही तो उसने अपनी मुंहबोली बहन से फोन पर पूछा था कि बता, तुझे इस बार रक्षाबंधन पर क्या तोहफा चाहिए। लेकिन बाबू अब मर चुका है... और इससे बड़ा मज़ाक क्या हो सकता है कि हमारी पुलिस ने उसके खिलाफ आईपीसी की धारा 302 के तहत हत्या का मुकदमा दर्ज कर लिया है। हत्या का आरोप साबित हो गया तो अदालत बाबू को आखिर ज्यादा से ज्यादा क्या सज़ा दे सकती है? मौत की!! एक मरे हुए शख्स को मौत की सज़ा!!! हंसिएगा नहीं। ये हमारे कानून का प्रहसन नहीं, असली चेहरा है।
अगर बाबू ईश्वर तेयर को पता होता कि एचआईवी/एड्स डायबिटीज या हाइपर-टेंशन जैसी ही बीमारी है और दस साल के भीतर इसका पक्का इलाज भी निकलनेवाला है, तो शायद वो न तो अपने बच्चों को मारता और न ही खुद बीवी के साथ खुदकुशी करता। दूर की बात छोड़िए, मुंबई में ही जेजे जैसे कई अस्पतालों में इसके इलाज के लिए विशेष एंटी-रेट्रोवाइरल थिरैपी (एआरटी) क्लिनिक बनाए गए हैं। जेजे अस्पताल में करीब 6000 एड्स मरीज़ों का मुफ्त इलाज किया जा रहा है। डॉक्टरों का कहना है कि एड्स का पता लगने के बाद भी बहुत से मरीज 20-20 साल तक ज़िंदा रहते हैं।
मुंबई में ही घाटकोपर की शबाना पटेल का मामला ले लीजिए। एड्स से उनके पति की मौत हो चुकी है। 1998 में शबाना को पहली बार पता चला कि उन्हें भी एड्स है। उन्हें लगा कि वो तीन महीने में मर जाएंगी। लेकिन दस साल बाद भी वो ज़िंदा हैं और 10 बजे सुबह से लेकर 10 बजे रात तक जमकर काम करती हैं। 1998 में एआरटी का खर्च 40,000 रुपए था, जबकि आज ये थिरैपी सरकारी अस्पतालों में मुफ्त में की जाती है। काश, बाबू ईश्वर तेयर को ये सब पता होता और उसे हमारे सरकारी अस्पतालों के इंतज़ामों पर भी पूरा भरोसा होता!!!
बाबू का छोटा भाई अरमूखम तेयर उनके साथ रहता था। उसे भाई-भाभी की हालत पता थी। मंगलवार शाम को छोटे भाई को बड़े भाई का फोन आया कि तुम थोड़ी देर से आना क्योंकि वो परिवार के साथ कहीं बाहर जा रहे हैं। छोटे भाई को बड़े भाई के इरादों की भनक तक नहीं लगी। घर पर तीनों बच्चों को भी इनकी भनक नहीं लगी। उन्होंने आठ-नौ बजे तक अपने स्कूल के बैग पैक कर करीने से रख दिए। आराम से खाना खाया। मां-बाप ने मिठाई दी। मां-बाप को पता था कि मिठाई में ज़हर है। बच्चों को नहीं पता था। ज़हर ने असर दिखाया। सवा पांच सौ वर्गफुट के एक बेडरूम-हॉल किचेन फ्लैट में तीनों बच्चे हॉल, किचन या बेडरूम में जाकर कहीं लुढ़क गए। सब शांत हो गया तो मां-बाप ने नाइलोन की रस्सी पंखे से बांधी और लटक गए फांसी। अज्ञान से उपजी निराशा तीन मासूमों की मौत और दो समझदारों की खुदकुशी का सबब बन गई।
पहले छोटा भाई घर पहुंचा। अंदर से कोई हलचल नहीं हुई तो खिड़की से झांककर देखा। पुलिस को बुलाया। दरवाज़ा तोड़ा गया। घर के बेडरूम, ह़ॉल, किचन, डाइनिंग टेबल और फ्रिज़ ने सारी कहानी बयां कर दी। हॉल के कोने में तीनों बच्चों के स्कूल बैग सजे रखे थे। ग्रिल लगी बालकनी में पहले की तरह कपड़े सूख रहे थे, कुछ बड़ों के और ज्यादा बच्चों के। सोसायटी में बच्चों के साथ हुडदंग मचाकर बाबू के बच्चे करीब छह बजे घर लौटे थे कल मिलने के वादे के साथ। बताते हैं कि बच्चे इतने स्वस्थ थे कि पड़ोसी उन्हें माइक टाइसन कहते थे।
बाबू तो कहते हैं हीरा आदमी था। मेहनत और बुद्धि से सब कुछ उसने दुरुस्त कर लिया था। सेहत का पूरा ख्याल, हर रोज़ मॉर्निंग वॉक। हर साल सोसायटी में होनेवाली गणपति पूजा को बाबू ही स्पांसर करता था। एक ज़िंदादिल, ज़िम्मेदार शख्स। हर किसी का पूरा ख्याल रखनेवाला। एक दिन पहले ही तो उसने अपनी मुंहबोली बहन से फोन पर पूछा था कि बता, तुझे इस बार रक्षाबंधन पर क्या तोहफा चाहिए। लेकिन बाबू अब मर चुका है... और इससे बड़ा मज़ाक क्या हो सकता है कि हमारी पुलिस ने उसके खिलाफ आईपीसी की धारा 302 के तहत हत्या का मुकदमा दर्ज कर लिया है। हत्या का आरोप साबित हो गया तो अदालत बाबू को आखिर ज्यादा से ज्यादा क्या सज़ा दे सकती है? मौत की!! एक मरे हुए शख्स को मौत की सज़ा!!! हंसिएगा नहीं। ये हमारे कानून का प्रहसन नहीं, असली चेहरा है।
अगर बाबू ईश्वर तेयर को पता होता कि एचआईवी/एड्स डायबिटीज या हाइपर-टेंशन जैसी ही बीमारी है और दस साल के भीतर इसका पक्का इलाज भी निकलनेवाला है, तो शायद वो न तो अपने बच्चों को मारता और न ही खुद बीवी के साथ खुदकुशी करता। दूर की बात छोड़िए, मुंबई में ही जेजे जैसे कई अस्पतालों में इसके इलाज के लिए विशेष एंटी-रेट्रोवाइरल थिरैपी (एआरटी) क्लिनिक बनाए गए हैं। जेजे अस्पताल में करीब 6000 एड्स मरीज़ों का मुफ्त इलाज किया जा रहा है। डॉक्टरों का कहना है कि एड्स का पता लगने के बाद भी बहुत से मरीज 20-20 साल तक ज़िंदा रहते हैं।
मुंबई में ही घाटकोपर की शबाना पटेल का मामला ले लीजिए। एड्स से उनके पति की मौत हो चुकी है। 1998 में शबाना को पहली बार पता चला कि उन्हें भी एड्स है। उन्हें लगा कि वो तीन महीने में मर जाएंगी। लेकिन दस साल बाद भी वो ज़िंदा हैं और 10 बजे सुबह से लेकर 10 बजे रात तक जमकर काम करती हैं। 1998 में एआरटी का खर्च 40,000 रुपए था, जबकि आज ये थिरैपी सरकारी अस्पतालों में मुफ्त में की जाती है। काश, बाबू ईश्वर तेयर को ये सब पता होता और उसे हमारे सरकारी अस्पतालों के इंतज़ामों पर भी पूरा भरोसा होता!!!
Comments
निश्चित ही यह गंभीर मामला था परंतु इस तरह से सब कुछ ख़त्म कर देना क्या कहें। पोस्ट के वास्ते बधाई।
पढ़ कर दुःख होता है
और एक ही प्रश्न दिमाग में कौंधता है.
क्यों? क्यों? क्यों?
- आनंद
बाकी तो जो कानून, देश का भला भगवान भी नहीं कर सकता, कहता हो उसकी क्या बात करें. अच्छा मुद्दा उठाया है.