कैसा लगेगा जब तीन की बिजली तीस में मिलेगी!!!
आपको धुंधली-सी याद ज़रूर होगी। एनरॉन की दाभोल परियोजना से मिलने वाली बिजली की कीमत जब सात-आठ रुपए प्रति यूनिट निकली थी तो कितना हंगामा मचा था। आज महानगरों में हमें तीन से चार रुपए प्रति यूनिट की दर से बिजली मिलती है। लेकिन परमाणु बिजली की दर आज की लागत पर 30 रुपए प्रति यूनिट से ज्यादा रहेगी। यह मेरा नहीं, बल्कि परमाणु ऊर्जा विशेषज्ञ भरत करनाड का कहना है। करनाड ने भारत की परमाणु नीति पर एक किताब लिखी है जो इसी अक्टूबर में अमेरिका से छपने वाली है।
इस समय दुनिया भर में कुल बिजली उत्पादन में करीब 16 फीसदी हिस्सा परमाणु बिजली का है। बड़े देशों में फ्रांस अपनी बिजली ज़रूरत का 78 फीसदी हिस्सा परमाणु बिजली से पूरा करता है, जबकि दक्षिण कोरिया 40 फीसदी, जर्मनी 28 फीसदी, जापान 26 फीसदी, ब्रिटेन 24 फीसदी, अमेरिका 20 फीसदी और रूस 18 फीसदी बिजली परमाणु संयंत्रों से हासिल करते हैं। भारत, ब्राजील, पाकिस्तान और चीन अपनी बिजली ज़रूरतों का एक से तीन फीसदी हिस्सा परमाणु बिजली से पूरा करते हैं। लेकिन केवल बिजली से इन देशों की ऊर्जा या ईंधन ज़रूरतें पूरी नहीं होती। मसलन, फ्रांस में 78 फीसदी परमाणु बिजली परमाणु बिजली उसकी केवल 18 फीसदी ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करती है। आज भी फ्रांस की 70 फीसदी से ज्यादा ऊर्जा मांग पेट्रोलियम ईंधन से पूरी की जाती है।
इसलिए अगर यूपीए सरकार हमें बताती है कि परमाणु बिजली से पेट्रोलियम ईंधन पर हमारी निर्भरता घटेगी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कहते हैं कि हमें ऊर्जा स्वतंत्रता और स्वच्छ ऊर्जा के लिए परमाणु बिजली को अपनाना पड़ेगा तो सरकार और प्रधानमंत्री दोनों ही देश को गुमराह कर रहे हैं। फ्रांस के उदाहरण से साफ है कि बिजली की तीन चौथाई मांग परमाणु संयंत्रों से हासिल कर लेने के बावजूद पेट्रोलियम ईंधनों पर उसकी निर्भरता खत्म नहीं हुई है। राहुल गांधी अगर कलावती और शशिकला का नाम लेकर परमाणु बिजली के ज़रिए देश को ऊर्जा सुरक्षा दिलाने की बात करते हैं तो वे हमारी-आपकी आंखों पर भावना की पट्टी बांधकर हमें किसी अंधेरी गली में ले जाकर फंसा देना चाहते हैं।
आज इस पोस्ट को लिखने का खास संदर्भ ये है कि आज दिल्ली में देश भर से कांग्रेस के करीब डेढ़ सौ प्रवक्ताओं की क्लास/वर्कशॉप बुलाई गई है, जहां सरकार और कांग्रेस के खासमखास इन्हें भारत-अमेरिका परमाणु संधि और परमाणु बिजली के बारे में घोखा (घोखाना मतलब रटाना) रहे हैं ताकि वे जनता के बीच जाकर बता सकें कि यूपीए सरकार देश को अंधेरे से उजाले में ले जाने का कितना महान काम किया है। प्रवक्ताओं को पढ़ानेवाली खासमखास हस्तियों में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम के नारायणन, प्रधानमंत्री के खास परमाणु दूत श्यामसरन, विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी, वित्त मंत्री पी. चिदंबरम, कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह और राहुल गांधी शामिल हैं। इसके अलावा डॉ. किरीट पारिख और जी पी श्रीनिवास जैसे विशेषज्ञ भी प्रवक्ताओं का ब्रेनवॉश कर रहे हैं।
लेकिन ये सारे लोगों ने उनको यह नहीं बताया कि परमाणु संधि के बाद आयातित रिएक्टरों से मिलनेवाली बिजली इतनी महंगी पड़ेगी कि शायद ही कोई उसे लेना पसंद करेगा। एक तो आयातित रिएक्टरों की कीमत बहुत ज्यादा है। दूसरे इनको लगाने में होनेवाली देरी या किसी दुर्घटना की सारी जिम्मेदारी सप्लाई करनेवाले देश पर नहीं, लेनेवाले देश यानी भारत पर होगी। भोपाल गैस दुर्घटना से सबक लेकर विदेशी कंपनियों और सरकारों ने ये सावधानी बरती है।
इस तरह भारत सरकार को इन बिजली संयंत्रों से जुड़े जोखिम का बीमा कराना पड़ेगा। इसकी मात्रा कितनी हो सकती है, इसके चंद उदाहरण। अमेरिकी सरकार ने दो-यूनिट के बिजली संयंत्र का प्रस्तावित जोखिम बीमा 50 करोड़ डॉलर रखा है। ब्रिटेन में 1000 मेगावाट के बिजली संयंत्र की लागत देरी के चलते शुरुआती अनुमान की तकरीबन दोगुनी 9 अरब डॉलर हो गई है। फ्रांस जैसे अनुभवी देश में भी बिजली संयंत्र लगाने में देरी होती है। वहां इसके लिए 9 अरब डॉलर की लागत से बन रहे बिजली संयंत्र का बीमा 9 अरब डॉलर में कराया गया है। ऐसा मेरा नहीं, परमाणु ऊर्जा विशेषज्ञ भरत करनाड का कहना है।
इस समय दुनिया भर में कुल बिजली उत्पादन में करीब 16 फीसदी हिस्सा परमाणु बिजली का है। बड़े देशों में फ्रांस अपनी बिजली ज़रूरत का 78 फीसदी हिस्सा परमाणु बिजली से पूरा करता है, जबकि दक्षिण कोरिया 40 फीसदी, जर्मनी 28 फीसदी, जापान 26 फीसदी, ब्रिटेन 24 फीसदी, अमेरिका 20 फीसदी और रूस 18 फीसदी बिजली परमाणु संयंत्रों से हासिल करते हैं। भारत, ब्राजील, पाकिस्तान और चीन अपनी बिजली ज़रूरतों का एक से तीन फीसदी हिस्सा परमाणु बिजली से पूरा करते हैं। लेकिन केवल बिजली से इन देशों की ऊर्जा या ईंधन ज़रूरतें पूरी नहीं होती। मसलन, फ्रांस में 78 फीसदी परमाणु बिजली परमाणु बिजली उसकी केवल 18 फीसदी ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करती है। आज भी फ्रांस की 70 फीसदी से ज्यादा ऊर्जा मांग पेट्रोलियम ईंधन से पूरी की जाती है।
इसलिए अगर यूपीए सरकार हमें बताती है कि परमाणु बिजली से पेट्रोलियम ईंधन पर हमारी निर्भरता घटेगी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कहते हैं कि हमें ऊर्जा स्वतंत्रता और स्वच्छ ऊर्जा के लिए परमाणु बिजली को अपनाना पड़ेगा तो सरकार और प्रधानमंत्री दोनों ही देश को गुमराह कर रहे हैं। फ्रांस के उदाहरण से साफ है कि बिजली की तीन चौथाई मांग परमाणु संयंत्रों से हासिल कर लेने के बावजूद पेट्रोलियम ईंधनों पर उसकी निर्भरता खत्म नहीं हुई है। राहुल गांधी अगर कलावती और शशिकला का नाम लेकर परमाणु बिजली के ज़रिए देश को ऊर्जा सुरक्षा दिलाने की बात करते हैं तो वे हमारी-आपकी आंखों पर भावना की पट्टी बांधकर हमें किसी अंधेरी गली में ले जाकर फंसा देना चाहते हैं।
आज इस पोस्ट को लिखने का खास संदर्भ ये है कि आज दिल्ली में देश भर से कांग्रेस के करीब डेढ़ सौ प्रवक्ताओं की क्लास/वर्कशॉप बुलाई गई है, जहां सरकार और कांग्रेस के खासमखास इन्हें भारत-अमेरिका परमाणु संधि और परमाणु बिजली के बारे में घोखा (घोखाना मतलब रटाना) रहे हैं ताकि वे जनता के बीच जाकर बता सकें कि यूपीए सरकार देश को अंधेरे से उजाले में ले जाने का कितना महान काम किया है। प्रवक्ताओं को पढ़ानेवाली खासमखास हस्तियों में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम के नारायणन, प्रधानमंत्री के खास परमाणु दूत श्यामसरन, विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी, वित्त मंत्री पी. चिदंबरम, कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह और राहुल गांधी शामिल हैं। इसके अलावा डॉ. किरीट पारिख और जी पी श्रीनिवास जैसे विशेषज्ञ भी प्रवक्ताओं का ब्रेनवॉश कर रहे हैं।
लेकिन ये सारे लोगों ने उनको यह नहीं बताया कि परमाणु संधि के बाद आयातित रिएक्टरों से मिलनेवाली बिजली इतनी महंगी पड़ेगी कि शायद ही कोई उसे लेना पसंद करेगा। एक तो आयातित रिएक्टरों की कीमत बहुत ज्यादा है। दूसरे इनको लगाने में होनेवाली देरी या किसी दुर्घटना की सारी जिम्मेदारी सप्लाई करनेवाले देश पर नहीं, लेनेवाले देश यानी भारत पर होगी। भोपाल गैस दुर्घटना से सबक लेकर विदेशी कंपनियों और सरकारों ने ये सावधानी बरती है।
इस तरह भारत सरकार को इन बिजली संयंत्रों से जुड़े जोखिम का बीमा कराना पड़ेगा। इसकी मात्रा कितनी हो सकती है, इसके चंद उदाहरण। अमेरिकी सरकार ने दो-यूनिट के बिजली संयंत्र का प्रस्तावित जोखिम बीमा 50 करोड़ डॉलर रखा है। ब्रिटेन में 1000 मेगावाट के बिजली संयंत्र की लागत देरी के चलते शुरुआती अनुमान की तकरीबन दोगुनी 9 अरब डॉलर हो गई है। फ्रांस जैसे अनुभवी देश में भी बिजली संयंत्र लगाने में देरी होती है। वहां इसके लिए 9 अरब डॉलर की लागत से बन रहे बिजली संयंत्र का बीमा 9 अरब डॉलर में कराया गया है। ऐसा मेरा नहीं, परमाणु ऊर्जा विशेषज्ञ भरत करनाड का कहना है।
Comments
जिस अंदाज में देश में ऊर्जा की मांग बढ़ी है और लगातार बढ़ रही है, उसे पूरी करना गैर पारंपरिक स्त्रोतों जैसे सौर या पवन ऊर्जा के बूते की बात नहीं होगी, जिनकी ओर कुछ लोग अति उत्साह से निहार रहे हैं.
पौराणिक युग की तरह फिर गर्मी के त्रास से पृथ्वी को गाय बन कर विष्णु की शरण में न जाना पड़े???