शनिवार हो या इतवार, रोज़ पढ़ो अखबार

ज्ञान भी हमारे समाज में मुक्ति का नहीं, बस दिखाने की चीज़ बन गया है। अभी कुछ दिनों पहले मेरे गांव के पास का एक युवक, मसूद खान मुझसे मिलने आया। बताया कि असगर भाई मुझे जानते हैं और मेजर काका ने उसे मेरा नंबर मिला है। खैर, मैं दफ्तर में उनसे मिला। अवधी के साथ-साथ खड़ी बोली में बात हुई। खेती की समस्या से लेकर बेरोजगारी, राजनीति और दंगों की समस्या तक पर बात हुई। मसूद ने बातचीत में बराबर शिरकत की थी। और, मैं तो एक जोड़ी कान देखते ही प्रवचन की मुद्रा में आ जाता हूं। करीब आधे घंटे बाद मुलाकात के खत्म होने पर मसूद ने कहा – भैया, हम भले ही गांव के हों, लेकिन इधर-उधर से इतना ज़रूर पढ़ लेते हैं कि सभ्य समाज में किसी से भी आधा-एक घंटे बात कर सकें।

मैं चौंक गया। तो क्या यह लड़का बिना किसी बात में इनवॉल्व हुए मुझसे बस बात करने के लिए बात किए जा रहा था ताकि एक इम्प्रेशन जमा सके? मुझे अफसोस हुआ। यह यादकर भी दुख हुआ कि 25-30 साल पहले हमारे ज़माने में भी जनरल नॉलेज़ बस कंपिटीशन क्लियर करने का ज़रिया था। उसका बाहरी संसार को जानने-समझने से कोई खास वास्ता नहीं था। साथ के ज्यादातर छात्रों की यही धारणा थी कि दुनिया तो जोड़तोड़ और संपर्कों से चलती है। ज्ञान तो बस बघारने की चीज़ है।

आज मैं इस दृष्टिकोण पर सोचता हूं तो लगता है कि इस सोच के साथ दुनिया को जीने के लिए बेहतर जगह कैसे बनाई जा सकती है। हम घुटने में सिर डालकर बैठे रहे, बस नून-तेल, रोटी-दाल के इंतज़ाम और बाबूसाहब, पंडितजी, नेताजी और बहिनजी के किसी सिपहसालार से संपर्क निकालने में ही लगे रहे, पूजा-पाठ या पांच वक्त की नमाज से अपना शोधन करते रहे, तो पब्लिक (जिसमें हम भी शामिल हैं) के नाम पर हो रही लूट कैसे रुक सकती है? यथास्थिति से मजे लूट रहे लोग तो हमारे अज्ञान में भांग की गोली डालते ही रहेंगे।

अरे, हम कोई राहुल गांधी तो हैं नहीं कि राजनीति का हर रहस्य बस किसी के बेटे या किसी के नाती-परनाती होने के चलते जान लें। हम अनिल या मुकेश अंबानी के पूत-सपूत भी नहीं हैं कि 18-20 साल के होते ही बिजनेस के सारे गुर जान लें। हमें तो बरौनियों से ज़मीन पर बिखरे सरसों के दानों को उठाना है। जहां-तहां बिखरे, हवा में उड़ते हकीकत के रेशों को लपककर पूरा सच बुनना है, जानना है। धरती गोल है। यहां की हर चीज़ कभी क्षैतिज, कभी लंबवत, तो कभी विषम चक्रों में चलती है। इसलिए हम एक बार में किसी चीज़ का एक ही पहलू देख सकते हैं। अगर उसे पूरी तरह देखना है तो बराबर नज़र रखनी होगी कि उसका दूसरा पहलू कब सामने आएगा। स्थिरता के चक्कर में पड़े तो सच कभी नहीं मिलेगा। सच तक पहुंचने के लिए गति के साथ-साथ दौड़ना पड़ेगा, चक्कर पर चक्कर काटने पड़ेंगे।

मैं अपने अनुभव से जानता हूं कि इस बारे में अखबार बड़े मददगार होते हैं। जैसे, मुझे इकनॉमिक्स का एबीसीडी नहीं आता था। लेकिन मैंने करीब 15 साल पहले इकनोमिक टाइम्स अखबार पढ़ना शुरू किया तो अब तक नियमित पढ़ रहा हूं और यह दावा कर सकता हूं कि अर्थशास्त्र की बड़ी से बड़ी गुत्थियां भी आसानी से समझ लेता हूं। हालांकि इस बदलती दुनिया में इतना कुछ नया आता रहता है कि आपकी गगरी कभी भी गले तक नहीं भर सकती। अर्थ ही नहीं, विज्ञान और देशी-विदेशी राजनीति के तमाम पहलू हम नियमित अखबार पढ़कर जान सकते हैं। सच साला बचकर जाएगा कहां, कभी न कभी तो पकड़ में आ ही जाएगा!!! हां, मैं बराबर टीवी देखने के ज़रूर खिलाफ हूं क्योंकि टीवी पर परोसे जा रहे समाचार से लेकर 99 फीसदी कार्यक्रम तक एडिक्शन के वाइरस हैं।

Comments

ghughutibasuti said…
सच साला बचकर जाएगा कहां, कभी न कभी तो पकड़ में आ ही जाएगा!!! क्या बात कही है!
सच के सिवाय सब ही अपना प्रचार करते रहते हैं और एक सच है कि छिपा रहता है और हम जीवन भर उसकी ही खोज में लगे रहते हैं।

घुघूती बासूती
L.Goswami said…
अधिकतर ज्ञान बघारने वालों की सोंच हम हम हैं बाकि सब में पानी कम हैं
ओह, खोजूं। आज का अखबार तो हमारे आलस्य के मारे किसी कोने अंतरे में बिला गया है।
सही कहते हैं आप।
मे तो भईया कक्षा मे सब से पीछे वाली बेंच पर बेठा हू,ओर हाथ भी नही खडा करता,डर लगता हे कोई सवाल मुझ से ही ना कोई पुछ ले,राम राम भई जी.
मेरे साथ ट्रेनिंग में एक लड़का ऐसा भी था जो किसी भी विषय पर बात होती थी तो एक छोटी सी डायरी में कुछ शब्द नोट कर लेता था। उन शब्दों का अर्थ या उनकी व्याख्या जानने या नोट करने के प्रति उसकी कोई खास अभिरुचि न देखकर जब मैने इसके बारे में पूछा तो उसने सहजता से बताया कि ‘बहुत मौकों पर किसी विषय से संवंधित टेक्निकल शब्द बोल देने भर से अच्छा इम्प्रेशन बन जाता है। सामने वाला अपना अज्ञान छिपाने के लिए उस विषय पर आगे कुछ बोलता ही नहीं है। इससे ज्यादा ज्ञानी बनकर मुझे अपना टेन्शन बढ़ाने की कोई जरूरत नहीं हैं।’
Unknown said…
मैं भी टीवी की लत से निकल रहा हूँ - लेकिन यहाँ अच्छे अखबार पढ़े दिन हो गए - खासकर सबेरे चाय सुड़कते -
और ये जो लिखा है बार बार पढने से भी मन नहीं मानता .. "...हमें तो बरौनियों से ज़मीन पर बिखरे सरसों के दानों को उठाना है। जहां-तहां बिखरे, हवा में उड़ते हकीकत के रेशों को लपककर पूरा सच बुनना है, जानना है। ..." - -साभार - मनीष
आप ने तो अखबार को आईना बना दिय़ा।
Bahut khari bat kahi aapne. such jo hai sub bukwas ke neeche khin chupa hai.
इस बात को लेकर बहुत पक्के नहीं हैं कि अख़बार पढ़ने से बहुत ज्ञान मिलता है. मिलता है, पर चिल्हर चिल्हर में. हालांकि ये बात सही है जानकारी पाने के लिए इंटरनेट और गूगल के अलावा अख़बार भी काम के हैं. एकाग्रता के अर्थशास्त्र पर काम करते हुए जब ज्यादातर अख़बार विजुअल मीडियम, कमतर गहरे और जेनरिक होते जा रहे हैं, तो ऐसे में अख़बार कितने ज्ञानवर्धक हैं कहना मुश्किल जान पड़ता है. लगभग मुफ्त के अखबार पढ़कर ज्ञान की उम्मीद लगाना थोड़ा ज्यादती नहीं है. मुझे ज्ञान और बोध के लिए अख़बार से किताबें ज्यादा काम की लगती हैं. अनिल रघुराज जिस अखबार की बात कर रहे हैं, वे उस बड़ी से भीड़ में अल्पसंख्य है, जो मास मीडिया को बनाते हैं. और जो अख़बार सच में ज्ञान देते हैं (अजगर की लिस्ट- गार्डियन, न्यूयॉर्क टाइम्स, लंदन टेलीग्राफ, इंडिपेंडेंट, वाशिंगटन पोस्ट), उनमें किताब जैसा ही मजा आता है...

अख़बारों में ज्ञान को लेकर अब उत्तेजना कहां दिखलाई देती है. वे उत्तेजना के बेहतर प्रयोग करना सीख रहे हैं.

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