क्या करेंगे 15 अगस्त की पैदाइशी विकलांगता का?

ठीक आधी रात को, जब सारी दुनिया सो रही होगी, तब भारत जागेगा जीवन और स्‍वतंत्रता के संचार के साथ। ... आज हम अपनी बदकिस्मती का दौर खत्म करते हैं, और भारत दोबारा अपनी पहचान हासिल करेगा।
नेहरू के ऐतिहासिक भाषण की इन लाइनों से करोड़ों भारतवासियों का रोम-रोम सिहर उठा था। लेकिन इस शब्दों में छिपा था एक छद्म... क्योंकि ठीक जिस वक्त वे यह लफ्फाज़ी कर रहे थे, उन्हें अच्छी तरह पता था कि भारतीय अवाम की बदकिस्मती का दौर खत्म नहीं होनेवाला। इस विद्वान प्रधानमंत्री को निश्चित रूप से पता रहा होगा कि जिस तंत्र ने ब्रिटिश राज की सेवा की है, उससे भारत में नए जीवन और स्वतंत्रता का संचार नहीं हो सकता। एक तरफ यह ‘युग-पुरुष’ पुराने तंत्र को जारी रखने की गारंटी कर रहा था, दूसरी तरफ अवाम को मुक्ति का संदेश दे रहा था। वाकई, नेताओं की कथनी और करनी में अंतर का, उनके दोमुंहेपन की कर्मनाशा का स्रोत रहे हैं हमारे पंडितजी।

15 अगस्त 1947 के बाद अंग्रेज़ों का बनाया प्रशासनिक ढांचा जस का तस कायम रहा। आईसीएस के औपनिवेशिक प्रशासन तंत्र ने आईएएस का आभिजात्य बाना पहन लिया। होना तो यह चाहिए था कि प्रशासनिक अधिकारियों को आर्थिक-सामाजिक विकास की प्रेरक भूमिका में उतार दिया जाता, लेकिन उन्हें कानून-व्यवस्था बनाए रखने जैसे संकीर्ण दायरे तक सीमित रखा गया। पुलिस और न्यायपालिका के ढांचे में भी मामूली तब्दीलियां आईं। जिस भारतीय संविधान को हम पवित्र मानते हैं, जिससे हमारी जिंदगी संचालित होती है, उसमें बहुत कुछ ब्रिटिशों का है। 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट की 395 धाराओं में से लगभग 250 धाराओं को या तो शब्दश: ले लिया गया या उनकी शब्दावली में नाममात्र को बदलाव किया गया।

संविधान को बनानेवाली संविधान सभा का गठन 16 मई 1946 के ब्रिटिश कैबिनेट मिशन और वायसरॉय के बयान के आधार पर किया गया। नेहरू जैसे कांग्रेसी नेताओं ने बार-बार वादा किया था कि संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर किया जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 1935 के जिस गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट को नेहरू ने गुलामी का चार्टर करार दिया था, उसी के तहत ब्रिटिश भारत में बनी प्रांतीय विधानसभाओं को कहा गया कि वे अपने सदस्यों के बीच से संविधान सभा के प्रतिनिधियों का चुनाव करें। गौरतलब है कि इन प्रांतीय विधानसभाओं के लिए केवल 11.5 फीसदी लोगों को ही मत देने का अधिकार था।

उधर, नेहरू और चैंबर ऑफ प्रिसेज़ के समझौते में तय हुआ कि उनकी रियासतों के भारतीय संघ में मिलने पर संविधान सभा में उनके लिए नियत करीब 50 फीसदी सीटें राजाओं के मनोनीत लोगों से ही भरी जाएंगी। आप जानते ही होंगे कि ये सारे राजा ब्रिटिश सरकार के कितने बड़े चमचे रहे थे। 9 दिसंबर 1946 को संविधान सभा के पहले सत्र का संचालन वायसरॉय वैवेल ने किया था। इससे महीने भर पहले ही नेहरू ने नवंबर 1946 में कांग्रेस के मेरठ सत्र के दौरान कहा था कि आज़ादी मिलने पर हम अपनी अलग संविधान सभा बुलाएंगे। लेकिन पंडित जी आज़ाद होते ही सारा वादा भूल गए।

सैनिक व्यवस्था की बात करें तो सत्ता हस्तांतरण के फौरन बाद ब्रिटिश भारत की सेना के कमांडर-इन-चीफ क्लॉड ऑचिनलेक भारत और पाकिस्तान की सेनाओं के सुप्रीम कमांडर बन गए। सेना के तीन अंगों – थलसेना, नौसेना और वायुसेना के कमांडर ब्रिटिश ही रहे। पचास के दशक के आखिरी सालों तक नौसेना का कमांडर अंग्रेज ही रहा। गुलाम भारत की सेना के ब्रिटिश अफसरों और दूसरे कर्मियों से अपील की गई कि वे भारत में बने रहें और उनका भारत भत्ता 50 फीसदी बढ़ा दिया गया।

स्वतंत्र भारत की सेना में 49 फीसदी ब्रिटिश अफसर अपने ओहदों पर कायम रहे। लेकिन आज़ाद हिंद फौज के उन सिपाहियों और अफसरों को भारतीय सेना में कोई जगह नहीं दी गई जिनकी राष्ट्रभक्ति और जुझारूपन की भूरि-भूरि प्रशंसा खुद नेहरू ने की थी। नेहरू ने यहां तक कहा था कि इन्हें आज़ाद भारत की सेना में शामिल करने की पूरी संभावना है। जिन नौसैनिकों ने फरवरी 1946 में ब्रिटिशों के खिलाफ बगावत की थी, जिन भारतीय सैनिकों ने इंडोनेशियाई अवाम को डच साम्राज्यवादियों के खिलाफ लड़ाई में साथ दिया था, उनको स्वतंत्र भारत की सेना में कोई जगह नहीं मिली।

मै यह नहीं कहता कि आजा़दी के बाद के सालों में कोई बदलाव नहीं हुआ है। लेकिन अवाम की बेहतरी और प्रशासन को जिम्मेदार बनाने वाले बहुतेरे कानून अभी जस के तस पड़े हैं। खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह प्रशासनिक सुधारों की वकालत की है। अगर आज़ादी मिलने के साथ ही नेहरू ने ब्रिटिश राज की सेवा कर चुके पुराने प्रशासनिक और कानूनी तंत्र की जगह नया तंत्र बनाने का अभियान छेड़ा होता, राजनीतिक सुधारों का दौर शुरू किया होता तो देश को बदलाव की इतनी सुदीर्घ और कष्टसाध्य प्रक्रिया से नहीं गुजरना पड़ता। पहली आज़ादी के बाद दूसरी आज़ादी की ज़रूरत नहीं पड़ती और दूसरी आज़ादी के नायक आज चाराचोर, ज़मीनखोर नहीं बन पाते।
संदर्भ: सुनिति घोष की किताब The Transfer of Power का पहला अध्याय

Comments

1. कानून से समाज नहीं बदलता।
2. जो वे कर गए कर गए, अब तो जो करना है वह हमें ही करना है।

***
आजाद है भारत,
आजादी के पर्व की शुभकामनाएँ।
पर आजाद नहीं
जन भारत के,
फिर से छेड़ें संग्राम
जन की आजादी लाएँ।
भारत को,
जन गण मन को,
स्वयम की अस्मिता पहचान कर, अपने देश से,
अपनी माँ से
सच्चा प्रेम करना होगा
तभी आमूल परिवर्तन सम्भव है
- लावण्या
Udan Tashtari said…
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.
mamta said…
स्वतंत्रता दिवस की बधाई और शुभकामनाएं।
इस आलेख से पूरी सहमति के साथ..स्वाधीनता दिवस की आपको शुभकामानायें


***राजीव रंजन प्रसाद
vikas pandey said…
A thought provoking article.
Arun Arora said…
बिल्कुल सही कहा आपने
Arun Arora said…
बिल्कुल सही कहा आपने

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