Sunday 2 December, 2007

मस्त रहो, सब कुछ जानना ज़रूरी नहीं

कभी-कभी इच्छा होती है कि सब कुछ जान लें। दुनिया की अनंत सैर पर निकल जाएं। पुरानी सभ्यताओं के अवशेष देखें, नए का निर्माण देखें। घूम-घूमकर और पढ़कर राजनीति भी जान लें, अर्थनीति भी। साइंस, साहित्य, खगोलशास्त्र से लेकर इतिहास-भूगोल समेत दुनिया की कोई भी चीज़ ऐसी न हो जिनकी जानकारी हमें न हो। यानी, पूरे एनसाइक्लोपीडिया बन जाए। फिर लगा कि तब किसी कंप्यूटर की फाइल और हम में अंतर क्या रह जाएगा? इसी दौरान पुरानी डायरी पलटते-पलटते मुझे किसी विचारक की चंद लाइनें लिखी हुई नज़र आ गईं:
न सब कुछ देखना-पढ़ना उचित है, न अनिवार्य। व्यक्ति को प्रतिपल चुनाव करना चाहिए। ...हम अंधों की तरह टटोलते रहते हैं। एक हाथ ऊपर भी मारते हैं। एक हाथ नीचे भी मारते हैं। ...इस तरह हम अपनी ज़िंदगी को अपने ही हाथों काटते रहते हैं। हम अपनी ज़िंदगी को दोनों तरफ फैलाए रहते हैं और कहीं भी नहीं पहुंच पाते। ...हम सब कन्फ्यूज्ड हैं क्योंकि हम अनर्गल, असंगत चुनाव करते रहते हैं। अनेक तरह की नांव पर सवार हो जाते हैं। फिर जीवन टूटता है, जीवन नष्ट होता है और हम कहीं नहीं पहुंच पाते।
मैं सोचने लगा कि फिर रास्ता क्या है? मुझे एक पुराने साथी की बात याद आ गई कि हमारा 90 फीसदी से ज्यादा ज्ञान अप्रत्यक्ष होता है। हम आग को छूकर नहीं देखते कि वह जलाती है या नहीं। संत कबीर भी कह चुके हैं कि ढाई आखर का प्रेम का पढ़य सो पंडित होय। लेकिन आज के संदर्भों में प्रेम का ये ढाई आखर है क्या? मैं उलझन में पड़ गया कि करूं क्या? यहीं पर मुझे किसी और विद्वान-विचारक की लाइनें अपनी डायरी में दिख गईं: वह मत करो जो तुम चाहते हो और तब तुम वह कर सकते हो जो तुम्हें अच्छा लगता है।

यानी मन के राजा बनो, मस्त रहो। लेकिन मन के राजा ही बन पाते तो चिंतित और परेशान और साथ ही कन्फ्यूज्ड क्यों रहते? अपने को हर पल आधा-अधूरा क्यों महसूस करते?

6 comments:

पारुल "पुखराज" said...

भाव अच्छे लगे अनिल जी,वैसे सब कुछ पा लेने की लालसा हमेशा रहती है हर मन में मगर अगर कुछ प्यास ्बनी रहे तो जीवन जी ने की इच्छा बढ़ जाती है……।

bhuvnesh sharma said...

वाह अनिलजी मजा आ गया आज आपकी ये पोस्‍ट पढ़कर.

हम लोग कभी इस तरह से क्‍यों नहीं सोच पाते.

Gyan Dutt Pandey said...

अच्छा लगा यह मोनोलॉग। हम भी अपने में ऐसा करते हैं। पर इत्ता बढ़िया लिख नहीं पाते।

मीनाक्षी said...

अनिल जी , इस लेख को मैं कई बार पढ़ चुकी हूँ.....आपने मेरे ही मन के भावो को यहाँ चित्रित कर दिया... और समाधान भी सुझा दिया....
चाहते हुए और सोचते हुए भी हम अपनी सोच को इतना अच्छा रूप नहीं दे पाते...
आपका बहुत बहुत शुक्रिया ....

Manish Kumar said...

उत्सुकता तो रहनी ही चाहिए सब जान लेने के प्रति, पर प्रयत्न वहाँ अधिक लगे जो करने से सबसे ज्यादा संतोष मिले।

डा० अमर कुमार said...

अनिल जी,
आप तो चढ़े जा रहे हो, अरे इतना नीकौ अउर इतनी सफ़ाई से न लिखो कि हम लोग आपन बोरिया समेट लेई । वैसे आपने बहुत ही सारगर्भित तरीके से अपनी बात रखी है, जितनी प्रशंसा की जाये, कम होगी ।