एक विचार, एक सवाल

आज का सवाल पेश है :
क्या भारत और यहां के बाशिंदों के समग्र विकास के लिए जरूरी नहीं है कि रक्षा, मुद्रा, विदेश नीति, डाक और रेलवे को छोड़कर बाकी काम राज्यों के हवाले कर दिए जाएं? केंद्र की भूमिका उसी तरह की हो, जैसे यूरोपीय संघ की है? यूरोपीय संघ के अनुभव को पचास साल हो गए हैं, क्या हमें उसके अनुभव पर गौर नहीं करना चाहिए? वैसे, अपने यहां आनंदपुर साहिब प्रस्ताव के रूप में ऐसा विचार पहले भी आ चुका है।

Comments

मित्र आप की बात से मैं सहमत हूं. अवश्य ऐसा हो जाना चाहिये. पर सवाल यह खडा होत है कि क्या हमें वर्तमान राज व्यव्स्था की ही एक बार फिर विवेचना नहीं करनी चाहिये. क्या आपको नहीं लगता कि लोकतंत्र राज व्यव्स्था अपने आप मे लाखो बुराईयों को जनम देने वाली ब्यवस्था है. सवाल केवल राज व्यव्स्था का ही होता तो कोई बात नही थी. मगर महत्व्पूर्ण सवाल है जीवन व्यव्स्था का. आदिकाल से मानव ने मानव के लिये शांतिपूर्ण जीवन जीने के लिये विभिन्न व्यव्स्थाएं और कानून अर्जित किये. सारे धर्म, सारी राजकाज की प्रणाली. सारे दंड विधान. पर आज यदि भारतीय सभ्यता को स्वीकार करें तो २०६५ वर्ष के बाद भी हम किसी सही जीवन प्रणाली की खोज नहीं कर सके. मुझे लगता है कि हम सब राजनीती को एक विज्ञान मान कर पढते तो रहे पर उस विज्ञान में शोध और नई खोज का रास्ता अवरुध कर दिया. ६० वर्ष मे हम खिचडी लोकतंत्र से काम तो चलाते रहे पर हमसे यह न हो सका कि अंग्रेजों द्वारा लाद और् बनाई गई राज व्यव्स्था को बदल सकते. इस देश को एक नई जात व्यव्स्था चाहिये. भगत सिह ने भी यही कहा है और गांधी भे यही कहता रहा. आज हर चुनाव मे वोट डालने वालों की संख्या घटती जा रही है. कुल ४० फीसदी मतदान में से ३० प्रतिशत वोट पाने वाला अपने आप्को जनता का नुमाईंदा कहने लगता है. क्या यह उत्तम राज व्यव्स्था है? मुझे अपने विचार अवश्य भेजें मेरा ई मेल पता है
ysamdarshi@hotmail.com, ysamdarshi@yahoo.co.in
योगेश जी, टिप्पणी के लिए शुक्रिया। यकीनन भारतीय चुनाव प्रणाली में सुधार की जरूरत है और संसद या विधानसभा में पार्टियों को मिले मत के आधार पर सीटें दी जानी चाहिए। लेकिन लोकतंत्र से बेहतर कोई राजनीतिक प्रणाली नहीं है। हां, इसके लिए समाज के हर तबके का empowerment जरूरी है।
आप कह तो ठीक रहे हैं किन्तु बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधे । आज के नेता तो ऎसा होने नही देगें ।

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