सारे जयचंद एनडीए के, बीएसपी-लेफ्ट का कोई नहीं

अमर सिंह अगर उन्हें राजनीति की वैश्याएं कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे क्योंकि वैश्याओं का कोई रहस्य दलालों से नहीं छिपा होता। उनमें तो चोली-दामन का साथ है। लेकिन हम मुलायम सिंह और सुब्रतो राय से लेकर बड़े भाई और छोटे भाई तक को ‘माल-मलाई’ सप्लाई करनेवाले अमर सिंह के पेशाई और भाषाई संस्कार तक नहीं गिर सकते। इसलिए हम विपक्ष के उन भितरघातियों को जयचंद कह रहे हैं। विपक्ष के ऐसे जयचंदों की संख्या 21 रही है।

इनमें से सबसे ज्यादा नौ सांसद बीजेपी के हैं। पार्टी ने फिलहाल सरकार का साथ देनेवाले अपने आठ सांसदों को निष्कासित कर दिया है। इनके नाम हैं: बृजभूषण शरण सिंह (बलरामपुर), मंजूनाथ (धारवाड़), चंद्रभान सिंह (दमोह), एच टी सांग्लियाना (बैंगलोर उत्तर), मनोरमा (उडुपी), हरिभाऊ राठोड़ (जलगांव), बाबूभाई कटारा (दोहाड) और सोमाभाई पटेल (सुरेंद्रनगर)... वैसे, हरिभाऊ राठोड़ कह रहे हैं कि वो दोपहर एक बजे लोकसभा से निकले तो उनका ब्लग शुगर लेवल इतना गिर गया कि उन्हें आईसीयू में भर्ती करना पड़ा और वे वहां से रात के 9 बजे ही निकल पाए। चिकमगलूर के बीजेपी सांसद डी सी श्रीकांतप्पा अपनी बीमारी के चलते लोकसभा नहीं पहुंच सके। ध्यान देने की बात है कि जब बीजेपी के दो बीमार सांसदों महेश कनोडिया और हरिश्चंद्र चव्हाण को विमान से दिल्ली पहुंचाया जा सकता था, खुद अटल बिहारी वाजपेयी ह्वीलचेयर से लोकसभा पहुंच सकते थे तो बाकी क्यों नहीं।

तेलुगू देशम पार्टी के भी दो सांसदों डी के अदिकेशवुलु नायडू और एम जगन्नाथम ने यूपीए सरकार के पक्ष में वोट दिया है। पार्टी ने इनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की बात कही है। जेडी-यू के रामस्वरूप प्रसाद ने सरकार को वोट दिया तो पी पी कोया ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया। बीजू जनता दल के हरिहर स्वैन ने भी पार्टी का व्हिप तोड़ा है। अकाली दल के सुखदेव सिंह लिब्रा ने मतदान में हिस्सा न लेकर सरकार का साथ दिया। इसके अलावा शिवसेना के सांसद तुकाराम रेंगे पार्टी के आदेश के बावजूद लोकसभा नहीं पहुंचे। शिवसेना ने इनसे अपने खास अंदाज में निपटने का ऐलान किया है। इसके अलावा टीआरएस के ए नरेंद्र और एनएलपी के बालेश्वर यादव ने भी विपक्ष में रहने के बावजूद सरकार का साथ दिया है।

आडवाणी सही कहते हैं कि अगर इन सभी ने पार्टी अनुशासन की कद्र करते हुए विपक्ष का साथ दिया होता तो सरकार विश्वास मत कतई नहीं जीत पाती। विश्वास मत के पक्ष में गिरते 261 वोट और उसके खिलाफ जाते 277 वोट। यानी समाजवादी पार्टी के छह और कांग्रेस का एक बागी सांसद भी सरकार के साथ रहता तब भी मन्नू सरदार की सरकार नहीं बच पाती और कोई नहीं कह पाता कि सिंह इज़ किंग...

इस प्रकरण से एक बात तो साफ है कि एनडीए या खासतौर पर कहें तो बीजेपी के सांसदों में कोई नैतिकता नहीं रह गई है। उनके लिए विचारधारा का कोई मतलब नहीं है। उन्हें बस सत्ता चाहिए, किसी भी कीमत पर। लोकसभा क्षेत्रों के परिसीमन में कुछ का इलाका गया तो सत्ता की बेचैनी ने उन्हें अपना ज़मीर बेचने पर मजबूर कर दिया। इससे ये भी संकेत मिलता है कि बीजेपी के सांसदों को पार्टी के सत्ता में आने का भरोसा नहीं है। दूसरी तरफ बीएसपी के सांसदों को कहीं न कहीं अंदर से यकीन है कि वे सत्ता में ज़रूर आएंगे। यही वजह है कि उनके सांसद दबाव और नोटों के बंडल के आगे भी बहनजी से दूर नहीं हुए। लेफ्ट की तो बात ही अलग है। उसके सांसद तो विचारधारा और नैतिकता के बोझ तले इतने दबे रहते हैं कि इधर-उधर झांक ही नहीं सकते।

Comments

नरसिंह राव के समय कांग्रेस के लोगों को तोड़ भाजपा में शामिल किया जा रहा था क्योंकि नरसिंह राव राजीव गांधी और इंदिरा गांधी की तरह पार्टी को नेतृत्व नहीं दे पा रहे थे। उसी प्रकार भाजपा में अटल बिहारी वाजपेयी के सक्रिय न रहने से भाजपा की स्थिति कमजोर होती जा रही है। जिन्हें डर लग रहा है कि वे भाजपा के टिकट पर चुनाव नहीं जीत सकते वे भाजपा छोड दूसरी पार्टी की ओर जाने का रास्ता बना रहे हैं। और दूसरी पार्टियों को मदद कर अपने राह आसान करने का इससे बढिया मौका उनके पास नहीं होगा। इसलिये वे छोड़ चले गये।
सही बात है, भाजपा सांसदों में कोई नैतिकता नहीं बची है. अब खिसियानी बिल्ली (आडवाणी जी) खम्भा नोच रही है कि विश्वासमत 'अनैतिक' था. घर संभाले नहीं संभलता और लगे दूसरे को 'चोर' कहने!
आपने बिलकुल पते की बात कह दी। नैतिक पतन पार्टी निरपेक्ष है…। बस समय बदलता है। सभी सत्ता के दलाल हैं…
Asha Joglekar said…
sahi kaha hai par ek bat to achchi huee chunav ka boz janata ke upar se kuch der ke liye tal gaya. Aurr agar ye deal par lag jati hai to bijali pani ka sankat aane wale 5-7 salon men tal jayega.
आज कल आप की लेखनी बहुत सहजता से चल रही है। काँग्रेस तो कब से पतनशील हो चुकी थी। भाजपा पतनशील काँग्रेस की ऊँचाई नहीं छू पाई। उस की विचारधारा कोई है ही नहीं, जिस पर कोई टिके। सीपीएम और सीपीआई भी ऐतिहासिक भूमिकाएँ अदा कर चुकी हैं। वे भी जहाँ वामपंथी आंदोलनों के बोए बीजों की फसलें काट रही हैं। नए आंन्दोलन भी नहीं हैं और नयी फसलें भी। राजनैतिक परिदृश्य को जनता का कोई बड़ा आंदोलन ही परिवर्तित कर सकता है।
अभी तो असफल हो रहे थैलीशाहों को जीवनदान मिल गया है।
विचारधारा और नैतिकता के बोझ तले इतने दबे रहते हैं कि इधर-उधर झांक ही नहीं सकते।
और जो झांकते है वे सोमनाथ हो जाते है.
vikas pandey said…
Hello Anilji,

How have you been? I was busy on a assignment and really missed reading your blog. Today, I manged to pick sometime to read. Every article was good and well written, as always.

Vikas

Popular posts from this blog

मोदी, भाजपा व संघ को भारत से इतनी दुश्मनी क्यों?

चेला झोली भरके लाना, हो चेला...

घोषणाएं लुभाती हैं, सच रुलाता है