गरल सरकार के गले, अमृत तो मिलेगा अवाम को
मंथन कैसा भी हो, होता है बड़े काम का, क्योंकि यह परत-परत लहरों के पीछे छिपे अमृत और ज़हर को अलगा कर सामने ला देता है। हफ्ते-दस दिन से हमारी राजनीति में मचे मंथन से भी यही हो रहा है। सोचिए! लिख लोढ़ा, पढ पत्थर टाइप हमारे तमाम सांसदों को तय करना पड़ रहा है कि वे अमेरिका के साथ परमाणु संधि के साथ हैं या नहीं। उन्हें समझना पड़ रहा है कि यूरेनियम के विखंडन से कितनी बिजली बन सकती है और उससे अगले 25-30 सालों में हमारी बिजली ज़रूरत का कितना हिस्सा पूरा हो पाएगा। हमें लेफ्ट का शुक्रगुजार होना चाहिए कि जिस अहम दस्तावेज को सरदार मनमोहन सिंह जबरिया गोपनीय बनाने में जुटे हुए थे, उसे अब सारी दुनिया के सामने लाना पड़ा है।
दस्तावेज उपलब्ध हो जाने के बाद पढ़ा-लिखा मध्यवर्ग आज एक इनफॉर्म्ड बहस कर पा रहा है तो यह कांग्रेस या बीजेपी के चलते नहीं, बल्कि लेफ्ट के ही चलते संभव हो पाया है। इसलिए शहरों-कस्बों में औसत ज़िंदगी जी रहे मध्यवर्ग को समझना चाहिए कि लेफ्ट जड़सूत्रवादी हो सकता है, लेकिन लोक, लोकतंत्र और राष्ट्रविरोधी नहीं। जो लोग उसकी नीयत पर शक करते हैं, असल में वही लोग हैं जो 1942 से लेकर आज तक राष्ट्र की थाली में छेद करते रहे हैं। ये लोग इतने कायर है कि ताकतवर के आगे दुम हिलाते हैं और शमशीरन की मार पड़ते ही कह बैठते हैं – महाराज मैं नाई हूं। माफी मांगकर जेल से छूट जाते हैं, ऐश करते हैं, मंत्री और प्रधानमंत्री तक बन जाते हैं।
मौजूदा मंथन से एक बेहद शानदार बात ये हुई है कि लेफ्ट और मायावती ने पहली बार हाथ मिलाया है। गौर करें, दोनों का आधार एक ही है। दोनों ही समाज के दलित और पिछड़े अवाम का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेफ्ट पार्टियां उत्तर प्रदेश में भले ही अपना राजनीतिक आधार नहीं बना पाई हों, लेकिन इनके नेता-कार्यकर्ता हमेशा से दलितों और पिछड़ों की लड़ाई लड़ते रहे हैं। बातें किताबी करते थे तो दलित लोग इन्हें ठौर-ठिकाना ज़रूर देते थे, लेकिन विद्वान और त्यागी समझकर छोड़ देते थे। बीएसपी ने कांशीराम और मायावती की अगुआई में इन दलितों की राजनीतिक चाहतों को पंख लगा दिए और आज वो हर सूरत में मायावती के साथ हैं।
सीबीआई ने मायावती के खिलाफ आय से ज्यादा संपत्ति का मामला भले ही खोल दिया हो, लेकिन इससे बहन जी के दलित आधार पर कोई फर्क नहीं पड़ता। उनका तर्क है कि जहां दूसरे नेता साल भर में 100-200 करोड़ कमा ले रहे हों, वहां अगर दलित की बेटी मायावती ने बीस सालों की राजनीति में 100 करोड़ बना लिए तो कौन-सा गुनाह कर दिया। दलित तबकों को खुशी होती है कि आज मायावती की बदौलत थाने के दारोगा से लेकर जिले का डीएम तक उनकी बात सुनता है। तमाम बाभन-ठाकुरों को आज एक दलित महिला के कदमों में बैठता पड़ता है, ये किसी क्रांति से कम है क्या!
असल में समान आधार होने के कारण लेफ्ट और बीएसपी ही एक दूसरे के स्वाभाविक सहयोगी हैं। बीएसपी की व्यावहारिकता को अगर लेफ्ट का नजरिया और बौद्धिकता मिल जाए तो वे साथ मिलकर कांग्रेस और बीजेपी से लेकर मुलायम सिंह को पैदल करने की कुव्वत रखते हैं। लेकिन अभी तो यह तात्कालिक सहयोग की ही स्थिति में है और किसी दूरगामी गठबंधन तक इसके पहुंचने के आसार नहीं हैं क्योंकि लेफ्ट बीएसपी की राजनीति को जातिवादी बताता रहेगा और मायावती अपने जनाधार को लेफ्ट की सेंध से बचाना चाहेंगी। लेकिन अगर मंथन से उभरे चक्रवात के थमने के बाद ऐसा हो गया तो उत्तर भारत में लेफ्ट का खाता खुल सकता है और वो भी जबरदस्त तरीके से।
दस्तावेज उपलब्ध हो जाने के बाद पढ़ा-लिखा मध्यवर्ग आज एक इनफॉर्म्ड बहस कर पा रहा है तो यह कांग्रेस या बीजेपी के चलते नहीं, बल्कि लेफ्ट के ही चलते संभव हो पाया है। इसलिए शहरों-कस्बों में औसत ज़िंदगी जी रहे मध्यवर्ग को समझना चाहिए कि लेफ्ट जड़सूत्रवादी हो सकता है, लेकिन लोक, लोकतंत्र और राष्ट्रविरोधी नहीं। जो लोग उसकी नीयत पर शक करते हैं, असल में वही लोग हैं जो 1942 से लेकर आज तक राष्ट्र की थाली में छेद करते रहे हैं। ये लोग इतने कायर है कि ताकतवर के आगे दुम हिलाते हैं और शमशीरन की मार पड़ते ही कह बैठते हैं – महाराज मैं नाई हूं। माफी मांगकर जेल से छूट जाते हैं, ऐश करते हैं, मंत्री और प्रधानमंत्री तक बन जाते हैं।
मौजूदा मंथन से एक बेहद शानदार बात ये हुई है कि लेफ्ट और मायावती ने पहली बार हाथ मिलाया है। गौर करें, दोनों का आधार एक ही है। दोनों ही समाज के दलित और पिछड़े अवाम का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेफ्ट पार्टियां उत्तर प्रदेश में भले ही अपना राजनीतिक आधार नहीं बना पाई हों, लेकिन इनके नेता-कार्यकर्ता हमेशा से दलितों और पिछड़ों की लड़ाई लड़ते रहे हैं। बातें किताबी करते थे तो दलित लोग इन्हें ठौर-ठिकाना ज़रूर देते थे, लेकिन विद्वान और त्यागी समझकर छोड़ देते थे। बीएसपी ने कांशीराम और मायावती की अगुआई में इन दलितों की राजनीतिक चाहतों को पंख लगा दिए और आज वो हर सूरत में मायावती के साथ हैं।
सीबीआई ने मायावती के खिलाफ आय से ज्यादा संपत्ति का मामला भले ही खोल दिया हो, लेकिन इससे बहन जी के दलित आधार पर कोई फर्क नहीं पड़ता। उनका तर्क है कि जहां दूसरे नेता साल भर में 100-200 करोड़ कमा ले रहे हों, वहां अगर दलित की बेटी मायावती ने बीस सालों की राजनीति में 100 करोड़ बना लिए तो कौन-सा गुनाह कर दिया। दलित तबकों को खुशी होती है कि आज मायावती की बदौलत थाने के दारोगा से लेकर जिले का डीएम तक उनकी बात सुनता है। तमाम बाभन-ठाकुरों को आज एक दलित महिला के कदमों में बैठता पड़ता है, ये किसी क्रांति से कम है क्या!
असल में समान आधार होने के कारण लेफ्ट और बीएसपी ही एक दूसरे के स्वाभाविक सहयोगी हैं। बीएसपी की व्यावहारिकता को अगर लेफ्ट का नजरिया और बौद्धिकता मिल जाए तो वे साथ मिलकर कांग्रेस और बीजेपी से लेकर मुलायम सिंह को पैदल करने की कुव्वत रखते हैं। लेकिन अभी तो यह तात्कालिक सहयोग की ही स्थिति में है और किसी दूरगामी गठबंधन तक इसके पहुंचने के आसार नहीं हैं क्योंकि लेफ्ट बीएसपी की राजनीति को जातिवादी बताता रहेगा और मायावती अपने जनाधार को लेफ्ट की सेंध से बचाना चाहेंगी। लेकिन अगर मंथन से उभरे चक्रवात के थमने के बाद ऐसा हो गया तो उत्तर भारत में लेफ्ट का खाता खुल सकता है और वो भी जबरदस्त तरीके से।
Comments
वैसे आप की आजीविका का साधन क्या है?
इसके अलावा जहां तक भ्रष्टाचार का सवाल है तो सबसे देश के बड़े शहरो में सर्वे करा ले कि कितने लोगो के मकान है तो मालुम चल जायेगा कि 80 प्रतिशत लोग भ्रष्टाचार में लिप्त हो कर महल खडा किया है। इसमें राजनेता-अधिकारी-व्यापारी सभी शामिल हैं।