संत कबीर का यह दुर्लभ पद पेश कर रहा हूं। मुझे यह न तो किताबों में दिखा और न ही इंटरनेट पर। मेरी पत्नी बताती हैं कि वे जब छोटी थीं तो उनकी मां इसे घर के झूले पर बैठे गा-गाकर सुनाती थी। उन्हीं की मां की डायरी में ये पद लिखा हुआ मिल गया तो मैंने सोचा क्यों न आप सभी से बांट लिया जाए। पद में कबीर की उलटबांसियों जैसी बातें कही गई हैं। मैं हर पद पर चौंक कर कहता रहा – अरे, ये कैसे संभव है। तो आप भी चौंकिए और चमत्कृत होइए। हां, इसमें कोई अशुद्धि हो तो ज़रूर बताइएगा। गुरु ने मंगाई भिक्षा, चेला झोली भरके लाना हो चेला झोली भरके लाना... पहली भिक्षा आटा लाना, गांव बस्ती के बीच न जाना नगर द्वार को छोडके चेला, दौरी भरके आना हो चेला झोली भरके लाना... दूसरी भिक्षा पानी लाना, नदी तलाब के पास न जाना कुआं-वाव को छोड़के चेला, तुम्बा भरके लाना हो चेला झोली भरके लाना... तीसरी भिक्षा लकड़ी लाना, जंगल-झाड़ के पास न जाना गीली-सूखी छोड़के चेला, भारी लेके आना हो चेला झोली भरके लाना.... चौथी भिक्षा अग्नि लाना, लोह-चकमक के पास न जाना धुनी-चिता को छोड़के चेला, धगधगती ले आना हो चेला झोली भरके लाना... कहत कबीर सुनो भई
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