यूपीए सरकार को सांसत से बचाएगा लेफ्ट?

लेफ्ट ने यूपीए सरकार से भले ही समर्थन वापस ले लिया हो, लेकिन वह कभी भी यूपीए सरकार को गिराकर एनडीए के आने का रास्ता साफ करने की तोहमत नहीं मोल ले सकता। इसलिए सूत्रों के मुताबिक पूरी उम्मीद है कि वह 21-22 जुलाई को बुलाए गए लोकसभा के विशेष सत्र की बहस में तो जमकर हिस्सा लेगा, लेकिन विश्वास मत पर वोटिंग से पहले बहिष्कार कर देगा और मतदान में हिस्सा नहीं लेगा। लेफ्ट के 59 और उनके सहयोगी केरल कांग्रेस (थॉमस) के दो सांसदों के बहिष्कार से लोकसभा में मतदान के लिए मौजूद सांसदों की संख्या घटकर 482 रह जाएगी। ऐसी सूरत में यूपीए अपने 224 सांसदों और समाजवादी पार्टी के 39 सदस्यों में से 36 का समर्थन हासिल करके 260 का आंकड़ा हासिल कर लेगी, जबकि 482 सांसदों में बहुमत के लिए उसे 242 सांसद ही चाहिए।

सूत्रों का कहना है कि अगर किसी सूरत में सरकार गिर गई तो लोकसभा चुनाव समय से पहले हो जाएंगे और आज महंगाई वगैरह के चलते जिस तरह यूपीए सरकार की साख गिरी हुई है, उसमें एनडीए के सत्ता में आने की राह आसान हो जाएगी। इसी के मद्देनज़र लेफ्ट ज़रा-सा भी जोखिम नहीं लेना चाहता। शायद लेफ्ट की इसी मजबूरी को ध्यान में रखते हुए विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी अभी भी लेफ्ट के खिलाफ कठोर वक्तव्य देने से बच रहे हैं। लेफ्ट के रणनीतिकारों का मानना है कि वे सेफ्टगार्ड्स की गोपनीयता का मुद्दा उछालकर अपनी समर्थन-वापसी को जायज़ ठहरा लेंगे। साथ ही, महंगाई के मुद्दे को उछालकर सवा चार साल तक यूपीए सरकार का साथ देने का पाप भी धो डालेंगे

वैसे, अगर लेफ्ट विश्वास मत के खिलाफ वोटिंग में हिस्सा लेता भी है, तब भी सांसदों के मौजूदा गणित से सरकार के बचने की भरपूर गुंजाइश है। लोकसभा के मौजूदा 543 सांसदों (दो सीटें रिक्त हैं) में से 224 यूपीए के साथ हैं। समाजवादी पार्टी के 39 में से 36 सांसदों ने भी विश्वास मत के पक्ष में वोट किया तो सरकार के साथ 260 सांसद हो जाएंगे। सामान्य बहुमत के लिए सरकार को 272 सांसदों के साथ की ज़रूरत है। बाकी 12 सांसदों में 9 सांसद तो उसे देवेगौड़ा के जेडी-एस, अजित सिंह के आरएलडी और तेलगांना राष्ट्र समिति से मिल जाएंगे। इसके अलावा फारूख अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस ने भी एटमी करार के पक्ष में राय जाहिर की है। इस तरह उसके दो सांसद विश्वास मत के पक्ष में वोट देंगे। बाकी एक मत सरकार आसानी से 6 निर्दलीय सांसदों में से हासिल कर सकती है।

असल में लेफ्ट पार्टियां इस प्रकरण से ज्यादा से ज्यादा राजनीतिक माइलेज़ हासिल करना चाहती हैं। अगर खुदा-न-खास्ता उनके कदम से सांप्रदायिक ताकतों (बीजेपी) का फायदा हो गया तो माइलेज़ के बजाय उनका राजनीतिक नुकसान हो जाएगा। वैसे, राजनीतिक प्रेक्षकों का कहना है कि लेफ्ट की हालत पश्चिम बंगाल से लेकर केरल तक में खराब चल रही है। इसलिए वे कुछ भी कर लें, अगली लोकसभा में उनकी ताकत बढ़ने के बजाय घटने ही वाली है।

Comments

Sandeep Singh said…
सर, आपने अच्छा आंकड़ा प्रस्तुत किया है। कमोवेश यही हर किसी का अंदाजा है। लेफ्ट साथ था तो भी बीच-बीच में उसका दोगलापन उजागर होता रहता था...और अब अलग है तो भी चरित्र वही है। हां वो इस वास्ते खुशफहमी जरूर पाल सकते हैं कि बदलते वक्त से साथ कम से कम उन्होंने अपना दोगला चरित्र नहीं बदला। रही बात सांप्रदायिक ताकतों को फायदा पहुंचने की तो यहां अगर एक बार फिर सांप्रदायिक शब्द तो ब्रेकेट में (बीजेपी)लिखकर बेहद सीमत न किया जाता...शायद ज्यादा अच्छा होता।
गणित तो हम भी यही सोचे बैठे हैं। मगर ये लेफ्ट फ्रंट की पार्टियों के अपने अपने कार्यक्रम भी हैं। जिन में देश में क्रांति का स्तर तय करते हुए अपने कार्यभारों का आकलन भी किया गया है। विगत चार वर्षों में सरकार का टेका बने हुए उन में से कितने कार्यभार पूरे किये गए और अपनी अपनी क्रांति को कितना आगे बढ़ाया इस की जानकारी फ्रंट की प्रत्येक पार्टी को देना चाहिए। ऐसा तो नहीं कि इस संसदीय दलदल में पैर इतने गहरे पैठ गए हैं कि क्रांतियाँ भुला दी गई हैं।
Abhishek Ojha said…
पुरा आंकडा ही मिल गया यहाँ तो ... अगले चुनाव में क्या होगा ये तो समय ही बतायेगा.
सही आकलन है कि विश्वासमत के दौरान वामपंथी पार्टियां हीं यूपीए सरकार के लिये वरदान सिद्ध हो सकती है। वे सदन का बहिष्कार भी कर सकते हैं। क्योंकि सरकार गिरने और चुनाव की स्थिति में एनडीए को लाभ हो सकता है। और यह वामपंथी पार्टियां कभी नहीं चाहेगी।
PD said…
bahut badhiya aankalan kiye hain sir ji.. :)
रंगमंच सज गया है। सत्य का वध होगा और फन्तासियां जन्म लेंगीं। अगले चुनाव तक यह नाटक खेला जायेगा।
अच्छा विश्लेषण। टिप्पणी करने की आवश्यकता नहीं है…

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