डील के 1-2-3 विज्ञापन के दो नंबर में ही है दम
कल देश के तमाम अखबारों में पेट्रोलियम मंत्रालय की तरफ से एक विज्ञापन छपवाया गया जिसका शीर्षक है The 1-2-3 of the Nuclear Deal...ऊपर सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह हाथ हिला रहे हैं और नीचे 1-2-3 क्रमांक पर तीन बातें कही गई हैं। पहली और आखिरी बात तो बेहूदा है। हां, दो नबंर के तर्क में थोड़ा दम लगता है।
इसमें कहा गया है कि “The nuclear deal ends the technological isolation we have suffered since Pokharan. It will lift the world’s sanctions against us, allow our scientists to take their honoured place in the international community and grant us the status of a recognized nuclear power that will not sign the NPT but is respected as a non-proliferator. The deal restores our sovereign honour.”
सच बात है कि न्यूक्लियर डील 1974 में हुए पहले पोखरन परीक्षण के बाद भारत पर लगी बंदिशों को अंतिम तौर पर खत्म करने में मददगार हो सकती है। न्यूक्लियर तकनीक में अलग-थलग पड़ा देश दुनिया की मुख्यधारा में आ सकता है। विदेशों से न्यूक्लियर तकनीक ही नहीं, यूरेनियम भी आयात करने में सहूलियत हो जाएगी। कहा जा रहा है कि हमारे तमाम परमाणु ऊर्जा संयंत्र 40 फीसदी क्षमता पर काम कर रहे हैं क्योंकि उन्हें पर्याप्त यूरेनियम नहीं मिल पाता। ऐसा नहीं है कि हमारे पास यूरेनियम के भंडार नहीं हैं, लेकिन वो सतह के नीचे दबे पड़े है। मेघालय में यूरेनियम का भंडार है, लेकिन जिस जमीन के यह दबा है, उसे वहां बसे आदिवासी छोड़ने को तैयार नहीं हैं। यही हाल कर्नाटक और झारखंड के यूरेनियम भंडारों का है। इन हालात में देश से पर्याप्त यूरेनियम निकालने में हमें सालों लग जाएंगे। तब तक क्या होगा?
न्यूक्लियर डील से जुड़ी एक और अहम बात पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्रा से उठाई है। उनका कहना है कि इससे भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता हासिल करने में मदद मिल सकती है। अगर यह डील बीच में ही अटक गई तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय कहेगा कि भारत सरकार ने आश्वासन दिए, अमेरिका से संधि पर दस्तखत किए और फिर पीछे हट गया। ऐसे देश पर कैसे भरोसा किया जा सकता है कि वो सुरक्षा परिषद का सदस्य बन पाएगा?
ब्रजेश मिश्रा एनडीए सरकार में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार थे और तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के खासमखास माने जाते हैं। आज बीजेपी न्यूक्लियर डील के खिलाफ खड़ी है। लेकिन ब्रजेश मिश्रा डील के होने के नए-नए फायदे बता रहे हैं। वो डील के मसले पर पूरी तरह यूपीए सरकार के साथ खड़े नज़र आ रहे हैं। ऐसे ही लोगों की बदौलत पेट्रोलियम मंत्रालय के विज्ञापन के अंत में कहा गया है कि, “यह डील भारत के ऊर्जा स्वातंत्र्य, संप्रभुता और स्वायत्तता को मजबूत करती है। यह उन प्रतिबंधों का अंत करती है जिसमें हमारे न्यूक्लियर प्रयासों को पंगु कर रखा है। यह भारत के भविष्य में निवेश करती है।”
काश, हमारे नेताओं का सरोकार वाकई भारत के भविष्य से होता तो कोई समस्या ही नहीं होती। क्या करें, हम तो बस बातें ही कर सकते हैं। जो समझ में आ जाए, उसे लिख सकते हैं। असली फैसला तो उन लोगों को करना है जिन्हें करोड़ों भारतीयों ने अपना नुमाइंदा चुना है। अब ये अलग बात है कि मनमोहन सिंह छंटे हुए ब्यूरोक्रेट हैं और शहाबुद्दीन, सूरजभान, अतीक अहमद जैसे सांसद छंटे हुए क्रिमिनल। ऐसे में देश और उसके भविष्य को बचाने के लिए हम कर ही क्या सकते हैं?
इसमें कहा गया है कि “The nuclear deal ends the technological isolation we have suffered since Pokharan. It will lift the world’s sanctions against us, allow our scientists to take their honoured place in the international community and grant us the status of a recognized nuclear power that will not sign the NPT but is respected as a non-proliferator. The deal restores our sovereign honour.”
सच बात है कि न्यूक्लियर डील 1974 में हुए पहले पोखरन परीक्षण के बाद भारत पर लगी बंदिशों को अंतिम तौर पर खत्म करने में मददगार हो सकती है। न्यूक्लियर तकनीक में अलग-थलग पड़ा देश दुनिया की मुख्यधारा में आ सकता है। विदेशों से न्यूक्लियर तकनीक ही नहीं, यूरेनियम भी आयात करने में सहूलियत हो जाएगी। कहा जा रहा है कि हमारे तमाम परमाणु ऊर्जा संयंत्र 40 फीसदी क्षमता पर काम कर रहे हैं क्योंकि उन्हें पर्याप्त यूरेनियम नहीं मिल पाता। ऐसा नहीं है कि हमारे पास यूरेनियम के भंडार नहीं हैं, लेकिन वो सतह के नीचे दबे पड़े है। मेघालय में यूरेनियम का भंडार है, लेकिन जिस जमीन के यह दबा है, उसे वहां बसे आदिवासी छोड़ने को तैयार नहीं हैं। यही हाल कर्नाटक और झारखंड के यूरेनियम भंडारों का है। इन हालात में देश से पर्याप्त यूरेनियम निकालने में हमें सालों लग जाएंगे। तब तक क्या होगा?
न्यूक्लियर डील से जुड़ी एक और अहम बात पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्रा से उठाई है। उनका कहना है कि इससे भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता हासिल करने में मदद मिल सकती है। अगर यह डील बीच में ही अटक गई तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय कहेगा कि भारत सरकार ने आश्वासन दिए, अमेरिका से संधि पर दस्तखत किए और फिर पीछे हट गया। ऐसे देश पर कैसे भरोसा किया जा सकता है कि वो सुरक्षा परिषद का सदस्य बन पाएगा?
ब्रजेश मिश्रा एनडीए सरकार में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार थे और तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के खासमखास माने जाते हैं। आज बीजेपी न्यूक्लियर डील के खिलाफ खड़ी है। लेकिन ब्रजेश मिश्रा डील के होने के नए-नए फायदे बता रहे हैं। वो डील के मसले पर पूरी तरह यूपीए सरकार के साथ खड़े नज़र आ रहे हैं। ऐसे ही लोगों की बदौलत पेट्रोलियम मंत्रालय के विज्ञापन के अंत में कहा गया है कि, “यह डील भारत के ऊर्जा स्वातंत्र्य, संप्रभुता और स्वायत्तता को मजबूत करती है। यह उन प्रतिबंधों का अंत करती है जिसमें हमारे न्यूक्लियर प्रयासों को पंगु कर रखा है। यह भारत के भविष्य में निवेश करती है।”
काश, हमारे नेताओं का सरोकार वाकई भारत के भविष्य से होता तो कोई समस्या ही नहीं होती। क्या करें, हम तो बस बातें ही कर सकते हैं। जो समझ में आ जाए, उसे लिख सकते हैं। असली फैसला तो उन लोगों को करना है जिन्हें करोड़ों भारतीयों ने अपना नुमाइंदा चुना है। अब ये अलग बात है कि मनमोहन सिंह छंटे हुए ब्यूरोक्रेट हैं और शहाबुद्दीन, सूरजभान, अतीक अहमद जैसे सांसद छंटे हुए क्रिमिनल। ऐसे में देश और उसके भविष्य को बचाने के लिए हम कर ही क्या सकते हैं?
Comments
इस समय
दुनिया अपनी कुछ ऊर्जा जरूरतों का महज छह प्रतिशत नाभिकीय ऊर्जा से प्राप्त करता है.
सरकारी आंकड़ो पर ही भरोसा करें तो करार हो जाने के बाद भी हम अपनी जरूरत की महज छह से सात प्रतिशत ऊर्जा ही परमाणु से प्राप्त कर सकेंगे.
इस छह प्रतिशत ऊर्जा के लिए हम कितना खर्च कर रहे हैं जरा पता करिए.
देशी शोध संस्थानों को चलाने और शोधार्थियों को देने के लिए सरकार के पास पैसा नहीं है लेकिन डील हर कीमत पर करना चाहती है.
ये इतना बड़ा घोटाला है जिसे देश बर्दास्त करता रहा है, कर लेगा.
http://sureshchiplunkar.blogspot.com/2008/07/nuclear-deal-india-america-iaea_12.html
(2) रही बात समझौते की… तो "महाशक्ति" वही देश बनते हैं जो समझौते को "अपने पक्ष" और फ़ायदे के लिये "उपयोग" करते हैं, समय आने पर समझौतों को तोड़ते हैं और नये समझौते करते हैं, दुनिया को अपने जूते पर रखते हैं और सिर्फ़ अपनी जनता का लाभ देखते हैं…। समझौते के पालन की चिन्ता भारत जैसे "बकरी" देशों को ही ज्यादा होती है… देश में आज 65% से अधिक युवा हैं, "शेर" बनने का वक्त आ गया है… समझौता हो जाने दीजिये, ऐसा कहाँ लिखा है कि भारत को आजीवन हर समझौते का पालन करना ही होगा? इन बूढ़े, खत्म हो चुके नेताओं के दिन बस लदने ही वाले हैं… और भारत का भविष्य आक्रामक युवाओं के हाथ में होगा, जो सिर्फ़ अपना यानी भारत का फ़ायदा देखेंगे… (नेतृत्व नहीं तो हम लोग कम से कम ऐसे युवाओं का "वोट-बैंक" तो निश्चित ही बना देंगे, जिनकी उपेक्षा करना किसी के लिये सम्भव नहीं होगा)
रहा समझोते की बात तो इस मैं सुरेश जी से सहमात हु
("" रही बात समझौते की… तो "महाशक्ति" वही देश बनते हैं जो समझौते को "अपने पक्ष" और फ़ायदे के लिये "उपयोग" करते हैं, समय आने पर समझौतों को तोड़ते हैं"")
रहे समझोते की बात तो विवाद है ओउर बाद मैं भी विवाद रहेगा चाहे समझोता हो या न हो ......
बहुत अच्छी तरह से बात कही है आपने.
सहमत तो सभी हैं क्या ब्रजेश मिश्र,क्या अटलजी और क्या आडवाणी....असहमति पूरी तरह से पोलिटिकल है.
बदलती दुनिया में हमें ये खेल आज़माना ही होगा.जैसा सुरेशभाई ने कहा तकनीक को तस्लीम किये बिना भारत वैश्विक परिदृष्य से ख़ारिज हो सकता है.
दु:ख इस बात पर होता है कि एक तरफ़ तो परमाणु संधि के ज़रिये देश को आगे बढ़ने की बात हो रही है और दूसरी तरफ़ पार्टियाँ देश को चुनाव की चकल्लस में झोंकने की तैयारी कर रही है.
होना तो ये चाहिये था कि देश के समस्त आइ .आइ .एम. , आइ.आइ.टी , मेडीकल कालेज और इंजीनियरिंग कॉलेज के विद्यार्थियों से एक गुप्त मतदान करवाना था कि वे इस डील के बारे में क्या सोचते हैं क्योंकि जब यह संधि देश के हित में है तो इस बारे में देश के भावी अवाम से भी फ़ीडबैक लिया जाता और ये
काम सुप्रीम कोर्ट आदेश जारी करवा कर चुनाव आयोग से करवाता (अंतरमन से आवाज़ आ रही है कि ये नेता विद्यार्थियों को भी तो अच्छी नौकरियों की लालच देकर अपने पक्ष में मतदान करवा सकते थे)
खैर छोडिये भी ....अब तो परिणाम आने में कुछ ही ओवर बाक़ी हैं...फ़िक्सिंग तो हो ही चुकी है दिल दुखाने से क्या फ़ायदा.
विचारणीय विश्लेषण.
देश की संप्रभुता के घरेलू
खतरों को नज़रन्दाज़ करने वालों को
डील पर नए सिरे से सोचना चाहिए.
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डा.चन्द्रकुमार जैन
ये बात कुछ साफ नहीं हुई. आप डील का समर्थन कर रहे हैं या विरोध? अब तक आपके सभी लेखों से लगा कि आप डील के विरोध में हैं. आज हल्का हल्का लग रहा है कि आप समर्थन में हैं. सच्चाई क्या है थोड़ा साफ करें.