ऊपर-ऊपर की बातें दिखाकर सच छिपा जाते हैं लोग

कल 20 मार्च को इराक पर अमेरिकी हमले के पांच साल पूरे हो जाएंगे। इसमें अब कोई शक नहीं रहा कि इससे न इराक के अवाम को कुछ मिला, न अमेरिका को और न ही दुनिया को। आज इराक पूरी तरह तबाह हो चुका है। बुश प्रशासन का हर आरोप झूठा साबित हो चुका है। न तो सद्दाम के पास जनसंहारक हथियार मिले और न ही अल-कायदा के साथ उसके रिश्तों का कोई सबूत। अलबत्ता अमेरिकी हमले के बाद इराक आतंकवादियों की पनाहगाह बन गया है। रोज़-ब-रोज़ बगदाद और इराक के दूसरे शहरों में ऐसे बम फूटते हैं जैसे पटाखे छूट रहे हों। और, अमेरिका में घर वापस लौटते अपंग सैनिकों की तादाद बढ़ती जा रही है।

अमेरिकी अर्थशास्त्री और 2001 में अर्थशास्त्र के नोबेल पुरस्कार विजेता जोसेफ यूजीन स्टिगलिट्ज़ का आकलन है कि मोटे तौर पर इस युद्ध से अकेले अमेरिका पर तीन ट्रिलियन (3000 अरब) डॉलर का बोझ पड़ा है, जबकि बुश ने दावा किया था कि पूरे युद्ध पर 50 अरब डॉलर खर्च होंगे। सच यह है कि आज अमेरिका के 50 अरब डॉलर तो इराक में तीन महीने में खर्च हो जा रहे हैं। जोसेफ स्टिगलिट्ज़ का पूरा लेख बहुत दिलचस्प है, जिसके अंत में उन्होंने कहा है कि इराक युद्ध से पड़े असर का सीधा रिश्ता अमेरिका के मौजूदा आर्थिक संकट से है। यही वह पेंच है जिसको समझने की ज़रूरत है।

असल में जोसेफ स्टिगलिट्ज़ जैसे प्रतिष्ठित अमेरिकी अर्थशास्त्री युद्ध के भारी बोझ की बात करके अमेरिका के मौजूदा आर्थिक संकट की असली वजहों पर परदा डालना चाहते हैं। लेकिन वहीं डीन बेकर जैसे जनता से जुड़े अर्थशास्त्री भी हैं जो डंके की चोट पर कहते हैं कि इराक युद्ध से अर्थव्यवस्था पर बोझ ज़रूर पड़ा है, लेकिन यह मौजूदा मंदी की मूल वजह नहीं है। मंदी की असली वजह है 8000 अरब डॉलर (प्रति घर 1.10 लाख डॉलर) के हाउसिंग लोन का बुलबुला।

डीन बेकर ने हफ्ते भर पहले एक लेख में बताया है कि इराक युद्ध की सालाना लागत 180 अरब डॉलर है जो अमेरिकी जी़डीपी का 1.2 फीसदी है। (ध्यान दें, बेकर के मुताबिक पांच साल की लागत 900 अरब डॉलर बैठेगी जो स्टिगलिट्ज के आंकड़े के एक तिहाई से भी कम है) यह रकम सामाजिक सुरक्षा पर खर्च की जा सकती थी। जैसे, state children's health insurance program (SCHIP) के प्रस्तावित विस्तार की सालाना लागत 7 अरब डॉलर है, जबकि बुश सरकार इतनी रकम इराक में दो हफ्ते में खर्च कर दे रही है। युद्ध में चार दिन के खर्च से अमेरिका में बच्चों की देखभाल के कार्यक्रम पर दो अरब डॉलर की सब्सिडी दी जा सकती है। इसलिए अमेरिकी अवाम अगर युद्ध का विरोध कर रहा है, तो यह पूरी तरह जायज है।

लेकिन मंदी के असली खलनायक दूसरे हैं। इस सूची में सबसे ऊपर है अमेरिका के केंद्रीय बैंक के पूर्व अध्यक्ष एलन ग्रीनस्पैन, जिन्होंने हाउसिंग सेक्टर के बुलबुले को अनदेखा किया। इस सूची में राज्य और संघ के वो नियंत्रक भी शामिल हैं जिन्होंने बंधक उद्योग में चल रही गड़बड़ियों को चलने दिया। इसके बाद उन राजनेताओं और सामुदायिक नेताओं की लंबी लिस्ट है जिन्होंने निम्न और औसत आय वाले परिवारों को हाउसिंग संकट के लक्षणों के दिखने के बाद भी कर्ज लेकर घर खरीदने को प्रोत्साहित किया। और इसमें ज़ाहिरा तौर पर इसमें वे नाकारा आर्थिक भविष्यवक्ता भी शामिल हैं जिनको 8000 अरब डॉलर का बुलबुला फटता नहीं नज़र आया।

ये सभी वे लोग हैं जिन्हे दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका पर छाई इस सबसे कठोर मंदी का दोषी ठहराया जाना चाहिए। अमेरिकी अवाम का गुस्सा केंद्रीय बैंक, शेयर और प्रॉपर्टी बाज़ार के दल्लों, नियामक संस्थाओं और इस हाउसिंग बुलबुले को पालने के दूसरे दोषियों पर फूटना चाहिए, अकेले युद्ध पर नहीं। युद्ध के चलते बढ़ी तकलीफों से लोग यकीनन इसके खिलाफ हो गए हैं। लेकिन युद्ध की आड़ में असली दोषियों को छिपाने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए।

अगर पांच सालों में अमेरिकी पब्लिक का पैसा सही तरीके से खर्च किया गया होता तो हाउसिंग क्रैश के घातक असर से बचा जा सकता था। कोई इंसान अच्छी खुराक और कसरत से निमोनिया के असर से जल्दी उबर सकता है। लेकिन जिस तरह आलस और खराब खुराक निमोनिया की वजह नहीं हैं, उसी तरह इराक युद्ध भी अमेरिका की मौजूदा मंदी की वजह नहीं है।
फोटो साभार: David Levis-Baker

Comments

इसके लिए बुश प्रशासन की जितनी भी भर्त्सना की जाए ,कम होगी !
आपका चिंतन सारगर्भित है ....!
अमेरिका को बहुत कुछ मिला अनिल जी! खर्च चाहे जो हुआ हो पर इससे दुनिया पर उसका दबदबा नए सिरे से कायम हो गया. अब है कोई मई का लाल जो उसकी तरफ़ आँख उठा कर देखे? यही आतंकवाद का असली चेहरा है. चौधराहट का इससे भयंकर नमूना और क्या होगा की एक ऐसा देश दूसरे देशों को आंतकवादी होने या न होने का प्रमाणपत्र बाँट रहा है जो ख़ुद राजनीतिक-कूटनीतिक आतंकवाद का वास्तविक प्रणेता है. भारत की तरह थोड़े ही की जिसके जी में आए चार लात लगा कर चला जाए और हम अहिंसा का पाठ करते रहे!
Alpana Verma said…
bahut sahi aur satik likha hai aapne.

kitna bhi kahen america wohi rahne wala hai.chahe wah aaj mandi ke daur se gujur raha ho-is ka karan sach mein yudhh nahin hain- sahi likha hai aapne-------kuch bhi ho magar america apni nitiyan kabhi change nahin karega yah to tay hai.

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अनिल जी ,
आपके लेखन का कायल हो गया हूँ मैं !
सन्दर्भ की समझ और समझदार सन्दर्भ का दुर्लभ योग
आपके विचारों को प्रवाह के साथ विश्वसनीय बनाते हुए
आश्वस्त करता है कि
एक हिन्दुस्तानी की डायरी में
सच की जगह बुनियाद में है .
इसीलिए तो ऊपर-ऊपर की बातें दिखाकर सच छुपाने वाले
आपसे बचकर नहीं निकल पाते है !
मौज़ूदा पोस्ट भी इसकी मिसाल है.

और हाँ !
मेरे ब्लॉग की पिचकारी आपको रास आई
मैं तो आपकी बौछारों का कद्रदान हूँ .
होली की बधाई स्वीकार कीजिए .
vikas pandey said…
अपने स्वार्थ के लिए अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन और सद्दाम हुसैन को पैदा किया. एक को ख़तम कर दिया और दूसरे के पीछे पड़े है.
इससे ही अमेरिका की दोहरी नीति का पता चल जाता है. रही बात अमेरिका मे आई आर्थिक मंदी की तो आपका आकलन सही है. मुख्य कारण तो अमेरिकी बैंकों
की घरेलू ब्याज के मामले मे दिखाई गयी दरियादिली ही है. इस आर्थिक उथल पुथल ने एक बात तो साबित कर दी है की अमेरिकी बाज़ार काफ़ी हद तक चीन और जापान जैसे देशों के पास पड़े federal US debt पर निर्भर करता है. और अगर trade deficit इसी तरह बढ़ता रहा तो अमेरिका की आर्थिक स्थिति बेहद कमज़ोर हो जाएगी. डॉलर से ही विश्व के सभी आर्थिक समीकरण बनते और बिगड़ते है. डालर के मज़बूत रहने मे ही सबकी भलाई है.

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