सावधान! सत्ता के शिखर-पुरुष कहते हैं कानून तोड़ो
पहले कृषि मंत्री शरद पवार ने सारे देश के किसानों से कहा कि वे साहूकारों को कर्ज का एक पैसा भी न लौटाएं। उन्होंने राज्य सरकारों से साहूकारों के चंगुल में फंसे किसानों की मदद करने को कहा। कहा कि पुलिस या राजस्व विभाग ब्लॉक स्तर पर ऐसी व्यवस्था करें ताकि किसानों को सता रहे साहूकारों के खिलाफ कार्रवाई की जा सके। करीब दो साल पहले पवार की ही पार्टी के नेता और महाराष्ट्र के उप-मुख्यमंत्री आर आर पाटिल ऐसे साहूकारों की चमड़ी उधेड़ने का आवाहन कर चुके हैं।
अब पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम किसानों का आवाहन कर रहे हैं कि, “अपनी उपजाऊ जमीन विशेष आर्थिक ज़ोन (एसईज़ेड) या किसी दूसरे आर्थिक गतिविधि के लिए मत बेचो।” कलाम ने तीन दिन पहले दिल्ली में इंदिरा गांधी खुला विश्वविद्यालय में संबोधन के दौरान यह बात कही। उन्होंने कहा, “मैं किसी किसान को भूमिहीन नहीं देखना चाहता। मैं इसका मतलब समझता हूं क्योंकि मैं खुद एक किसान परिवार से आया हूं।” कलाम ने यह बात बहुत सोच-समझकर कही और शायद यह उनके लिखित भाषण का हिस्सा है क्योंकि ठीक यही बात उन्होंने करीब तीन महीने पहले 16 दिसंबर को पुणे में एक समारोह के दौरान कही थी।
केंद्रीय मंत्री, राज्य के उप-मुख्यमंत्री और पूर्व राष्ट्रपति के इन बयानों का क्या मतलब निकाला जाए? अमूमन होता यह है कि जब सत्ता प्रतिष्ठान के अंतर्विरोध हद से ज्यादा बढ़ जाते हैं तो उसके भीतर से ही कानून को तोड़ने की आवाज़ें उठनी शुरू हो जाती हैं। यह तो स्पष्ट है कि देश में किसानों की समस्या इतनी विकराल रूप लेती जा रही है कि उसे हल करना आज सरकार की मजबूरी हो गई है। इसी क्रम में वित्त मंत्री ने किसानों के 60,000 करोड़ रुपए के कर्ज माफ करने का ऐलान किया है। लेकिन कहा जा रहा है कि इससे किसानों पर कर्ज़ का बोझ खत्म नहीं होगा क्योंकि उन्होंने तकरीबन आधा कर्ज़ तो स्थानीय साहूकारों से ले रखा है।
खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी यह बात स्वीकार करते हैं कि बहुत सारे किसानों ने निजी एजेंसियों से कर्ज़ ले रखा है और सरकार उन्हें इनके चंगुल से निकालने के लिए हर किसान को बैंक खाता खोलने के लिए प्रोत्साहित करेगी। कृषि मंत्री शरद पवार भी अच्छी तरह जानते हैं कि किसान किस मजबूरी में साहूकारों से कर्ज लेते हैं। उन्होंने 18 मई 2006 को राज्यसभा में बताया था कि 1993 से 2003 के बीच के दस सालों में देश को 1,00,248 किसानों से खुदकुशी है जिसका सबसे अहम कारण रहा है कर्ज। किसान के पास कोई चारा नहीं होता, तभी वे साहूकारों से 25 से 40 फीसदी ब्याज़ पर कर्ज लेते हैं।
असल में सरकार फंस गई है। किसानों को कर्ज़ के जाल से बाहर न निकाले तो सारा आर्थिक सुधार कार्यक्रम मिट्टी में मिल सकता है। लेकिन इसके लिए ज़मीनी कोशिश करे तो खुद उसका राजनीतिक आधार खतरे में पड़ सकता है। किसानों की आत्महत्या के लिए ‘बदनाम’ विदर्भ इलाके का सबसे बड़ा और खूंखार साहूकार कांग्रेस का एक विधायक दिलीप सानंदा है। सानंदा के पिता के खिलाफ अपहरण, डकैती और जबरन ज़मीन कब्ज़ाने के आपराधिक मामले दर्ज़ हैं। लेकिन प्रशासन जब उसके खिलाफ कार्रवाई करने लगा तो महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने फोन करके रोक दिया। साफ है कि किसानों की समस्या सरकार के गले की हड्डे बन गई है जिसे वह न तो निगल पा रही है और न ही उगल पा रही है।
फोटो साभार: FrancesDre
अब पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम किसानों का आवाहन कर रहे हैं कि, “अपनी उपजाऊ जमीन विशेष आर्थिक ज़ोन (एसईज़ेड) या किसी दूसरे आर्थिक गतिविधि के लिए मत बेचो।” कलाम ने तीन दिन पहले दिल्ली में इंदिरा गांधी खुला विश्वविद्यालय में संबोधन के दौरान यह बात कही। उन्होंने कहा, “मैं किसी किसान को भूमिहीन नहीं देखना चाहता। मैं इसका मतलब समझता हूं क्योंकि मैं खुद एक किसान परिवार से आया हूं।” कलाम ने यह बात बहुत सोच-समझकर कही और शायद यह उनके लिखित भाषण का हिस्सा है क्योंकि ठीक यही बात उन्होंने करीब तीन महीने पहले 16 दिसंबर को पुणे में एक समारोह के दौरान कही थी।
केंद्रीय मंत्री, राज्य के उप-मुख्यमंत्री और पूर्व राष्ट्रपति के इन बयानों का क्या मतलब निकाला जाए? अमूमन होता यह है कि जब सत्ता प्रतिष्ठान के अंतर्विरोध हद से ज्यादा बढ़ जाते हैं तो उसके भीतर से ही कानून को तोड़ने की आवाज़ें उठनी शुरू हो जाती हैं। यह तो स्पष्ट है कि देश में किसानों की समस्या इतनी विकराल रूप लेती जा रही है कि उसे हल करना आज सरकार की मजबूरी हो गई है। इसी क्रम में वित्त मंत्री ने किसानों के 60,000 करोड़ रुपए के कर्ज माफ करने का ऐलान किया है। लेकिन कहा जा रहा है कि इससे किसानों पर कर्ज़ का बोझ खत्म नहीं होगा क्योंकि उन्होंने तकरीबन आधा कर्ज़ तो स्थानीय साहूकारों से ले रखा है।
खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी यह बात स्वीकार करते हैं कि बहुत सारे किसानों ने निजी एजेंसियों से कर्ज़ ले रखा है और सरकार उन्हें इनके चंगुल से निकालने के लिए हर किसान को बैंक खाता खोलने के लिए प्रोत्साहित करेगी। कृषि मंत्री शरद पवार भी अच्छी तरह जानते हैं कि किसान किस मजबूरी में साहूकारों से कर्ज लेते हैं। उन्होंने 18 मई 2006 को राज्यसभा में बताया था कि 1993 से 2003 के बीच के दस सालों में देश को 1,00,248 किसानों से खुदकुशी है जिसका सबसे अहम कारण रहा है कर्ज। किसान के पास कोई चारा नहीं होता, तभी वे साहूकारों से 25 से 40 फीसदी ब्याज़ पर कर्ज लेते हैं।
असल में सरकार फंस गई है। किसानों को कर्ज़ के जाल से बाहर न निकाले तो सारा आर्थिक सुधार कार्यक्रम मिट्टी में मिल सकता है। लेकिन इसके लिए ज़मीनी कोशिश करे तो खुद उसका राजनीतिक आधार खतरे में पड़ सकता है। किसानों की आत्महत्या के लिए ‘बदनाम’ विदर्भ इलाके का सबसे बड़ा और खूंखार साहूकार कांग्रेस का एक विधायक दिलीप सानंदा है। सानंदा के पिता के खिलाफ अपहरण, डकैती और जबरन ज़मीन कब्ज़ाने के आपराधिक मामले दर्ज़ हैं। लेकिन प्रशासन जब उसके खिलाफ कार्रवाई करने लगा तो महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने फोन करके रोक दिया। साफ है कि किसानों की समस्या सरकार के गले की हड्डे बन गई है जिसे वह न तो निगल पा रही है और न ही उगल पा रही है।
फोटो साभार: FrancesDre
Comments
सिर्फ शरद पंवार ही क्यों, दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी एसे ही मार पिटाई के लिये बोल चुकी हैं.
रहमदिल दिखने का मौका है, ये लपके क्यों न लपकैंगे?
पहला है : जब आप स्वयं सारे प्रयास करके हार मान लेते हैं कि ज़ायज तरीके से /कानून का पालन करते हुये कुछ भी नहीं हो सकता क्यों कि व्यवस्था इसे अनुमति नही देती या लाल्फीताशाही या भ्रष्टाचार रोडा बनता है. कुंठा / फ्रस्ट्रेशन के कारण आप सोचने लगते हैं ,कि बस कानून तोडना ही एकमात्र रास्ता है.
दूसरा : जब आप कानून तोडने की शिफारिश करते समय सिर्फ अपना राजनैतिक स्वार्थ देखते हैं, भली प्रकार यह जानते/ समझते हुए, कि मेरा क्या बिगडने वाला है, सिर्फ भला ही भला ( राजनैतिक) होगा. हां जिसको आप उकसा रहे हैं ,वो क्या क्या भुगतने वाला है, आप उसकी परवाह नहीं करते.