आसानी के लिए तुम उसे कुत्ता कह सकते हो

इसलिए ब्लॉग लेखन में भाषा में भदेस के नाम पर धड़ल्ले से गालियों का इस्तेमाल करनेवालों से मेरी गुजारिश है कि आप में आग है, आप युवा हो, संवेदनशील हो, समय और समाज के सरोकार समझते हो तो अपनी ऊर्जा को दिशाबद्ध करो। जहां-तहां पिच-पिच कर थूकने से न तो आपका भला होगा, न ही समाज को कुछ मिलेगा। फिर भी आप अवसरवादी दुनियादार बुद्धिजीवियों से तो अच्छे हो। तो, इसी बात पर धूमिल की एक कविता पेश है....
उसकी सारी शख्सियत नखों और दांतो की वसीयत है
दूसरों के लिए वह एक शानदार छलांग है
अंधेरी रातों का जागरण है
नींद के खिलाफ नीली गुर्राहट है
अपनी आसानी के लिए तुम उसे कुत्ता कह सकते हो
उस लपलपाती हुई जीभ और हिलती हुई दुम के बीच
भूख का पालतूपन हरकत कर रहा है
उसे तुम्हारी शराफत से कोई वास्ता नहीं है
उसकी नज़र न कल पर थी, न आज पर है
सारी बहसों से अलग वह हड्डी के एक टुकड़े और
कौर-भर (सीझे हुए) अनाज पर है
साल में सिर्फ एक बार अपने खून में जहरमोहरा
तलाशती हुई मादा को बाहर निकालने के लिए
वह तुम्हारी जंजीरों से शिकायत करता है
अन्यथा पूरा का पूरा वर्ष उसके लिए घास है
उसकी सही जगह तुम्हारे पैरों के पास है
मगर तुम्हारे जूतों में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं है
उसकी नज़र जूते की बनावट नहीं देखती
और न उसका दाम देखती है
वहां, वह सिर्फ बित्ता भर मरा हुआ चाम देखती है
और तुम्हारे पैरों से बाहर आने तक
उसका इंतज़ार करती है (पूरी आत्मीयता से)
उसके दांतों और जीभ के बीच लालच की तमीज़ है जो
तुम्हें जायकेदार हड्डी के टुकड़े की तरह प्यार करती है
और वहां, हद दर्जे की लचक है, लोच है, नर्मी है
मगर मत भूलो कि इन सबसे बड़ी चीज़ वह बेशर्मी है
जो अंत में तुम्हें भी उसी रास्ते पर लाती है
जहां भूख उस वहशी को पालतू बनाती है।।
फोटो सौजन्य: Dyche
Comments
पाश को ज्यादा पढ़ने का मौका तो नही मिला है अब तक!!