1857 का अनकहा सच: अमरेश तब और अब
अमरेश की इस किताब का विमोचन कल, 7 मार्च 2008 को राजधानी दिल्ली में उप-राष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी ने किया। वैसे अमरेश की इस किताब की समीक्षा देश और विदेश के तमाम नामी अखबारों में छप चुकी है। वे आज एक जानेमाने इतिहासकार हैं। कई किताबें उन्होंने लिखी हैं। पत्र-पत्रिकाओं में सैकड़ों लेख लिखे हैं। लेकिन उनका एक परिचय और है कि वे कभी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक जोशीले छात्र संगठन पीएसओ (अब आइसा) और दस्ता नाट्य मंच के सक्रिय सदस्य हुआ करते थे। उस दौर की इस तस्वीर की पिछली पंक्ति के बीच में खड़े अमरेश को आप आसानी से पहचान सकते हैं। तस्वीर में मुंबई के तीन हिंदी ब्लॉगर भी हैं। अमरेश का दाहिना हाथ जिन पर पड़ा है, वे हैं ठुमरी वाले विमल। अगली पंक्ति में बीच में बड़े-बड़ों को अपने लिखे से चकरघिन्नी बना देनेवाले अज़दक के प्रमोद हैं और उनके बाएं बाजू पर दिख रहा शख्स यह नाचीज़ है। हम सभी दोस्तों की तरफ से अमरेश की रचनाशीलता को और प्रखर बनाने के लिए ढेर सारी शुभकामनाएं।
एक बात और। अमरेश भी मुंबई में रहते हैं और हम लोग भी। लेकिन उनसे मिलना नहीं हो पाता क्योंकि वे लेखक हैं और हम ब्लॉगर। हां, उनकी पत्नी प्रगति ने उनकी नई किताब पर पूरा एक ब्लॉग ज़रूर बना दिया है।
Comments
1857 के 150 वर्ष पूरे होने के बाद यह किताब उन तथ्यों को उजागर करती है, जिन्हें आज तक शायद जानबूझकर दबाया-छिपाया ही जाता रहा है। मसलन, विद्रोह को कुचलने के लिए अंग्रेजों द्वारा किए गए नरसंहार की व्यापकता और भयावहता पर इतने प्रामाणिक आंकड़े और विवरण पहले इतिहास की किताबों में नहीं दिए जाते थे। दूसरा, विद्रोह को कुचलने के लिए अंग्रेजों को भारतीय जमींदारों और राजे-रजवाड़ों द्वारा सौदेबाजी के तहत जो सहयोग किया गया, उसके बारे में भी इतिहास में अब तक बहुत कुछ छिपाया जाता रहा है। यह जानना दिलचस्प होगा कि भारत की आजादी की पहली लड़ाई को बर्बरता से कुचलने में जिन राजे-रजवाड़ों और जमींदारों ने अंग्रेजों का सहयोग किया, उन्हीं के वंशज बाद में आजादी के बाद राजनीतिक दलों में शामिल होकर सत्ता में आ गए और आज भी शासन कर रहे हैं।