परनाना टांय-टांय फिस्स, तो परनाती से क्या उम्मीद
जवाहर लाल नेहरू जैसा विद्वान, जिसने भारत एक खोज जैसी किताब लिखी। जो भारत के इतिहास, भूगोल और संस्कृति की रग-रग से वाकिफ था। मोहनदास कर्मचंद गांधी जैसा आदर्शवादी नेता जो किसी भी दबाव में नहीं झुकता था। सत्य-अहिंसा का पुजारी। जो इतना सत्यवादी था कि पहले विश्वयुद्ध में अंग्रेज़ों के लिए सैनिकों की भर्ती कराने के लिए भागदौड़ की तो उसे अपनी किताब में बेहिचक दर्ज कर लिया। साथ में पटेल जैसा दृढ़ इच्छा शक्ति वाला ज़मीन से जुड़ा देशभक्त नेता। भीमराव अंबेडकर जैसा शख्स जिसमें देश के दबे-कुचले तबकों की आत्मा सांस लेती थी। किसी भी देश के लिए इतने सारे शानदार नेताओं का एक साथ मिल जाना गजब का संयोग और सौभाग्य है। लेकिन इन सभी समर्पित और दिग्गज नेताओं के होने के बावजूद आखिरकार हुआ क्या?
दस साल के भीतर ही मोहभंग शुरू हो गया। देश को बहुत बारीकी से झांकनेवाले नेहरू जी ही खुद अगल-बगल झांकने लगे। धीरे-धीरे नेहरू की नीतियों के बीच से इंदिरा गांधी का अधिनायकवाद पैदा हुआ। राजीव गांधी की दलाली पैदा हुई। देश चंद्रशेखर के जमाने के हश्र तक जा पहुंचा जब हमें अपना सोना तक विदेश में गिरवी रखना पड़ा। भजनलाल जैसे चाटुकार पैदा हुए। आयाराम, गयाराम की राजनीतिक संस्कृति पैदा हुई। लोगबाग राजनीति से नफरत करने लगे। नेता शब्द एक गाली बन गया।
ऐसा क्यों हुआ? क्या देश 15 अगस्त 1947 को जिस घड़ी में आज़ाद हुआ था, उस वक्त योग ही ऐसा बना था? देश की कुंडली और कर्मगति ऐसी ही है? हो सकता है कि आज भी कोई तुलसीदास की तरह कहने लगे कि करम गति टारे नांहि टरी, गुरु वशिष्ठ से पंडित ज्ञानी सोचि कै लगन धरी, सीताहरण मरण दशरथ को वन में विपति परी। जब वशिष्ठ जैसे मुनि के विधि-विधान के बावजूद राम के पूरे वंश के साथ ऐसा हुआ तो औरों की बात ही मत कीजिए। यकीन मानिए, अभी भी ऐसे तमाम लोग मिल जाएंगे जो नेहरू, गांधी, पटेल व अंबेडकर की महानता का बखान करते हुए देश की दुर्दशा की ऐसी ही व्याख्या करेंगे।
असल में किसी भी नेता की सोच और करिश्मे से नहीं तय होता कि उसका समाज पर अंतिम रूप से क्या असर पड़ेगा। सामाजिक शक्तियों का संतुलन ही तय करता है कि चीज़ें अंतिम रूप से क्या शक्ल अख्तियार करेंगी। समाज में सक्रिय शक्तियां किसी नेता में अपना एक्सटेंशन देखती हैं, तभी वह स्वीकार्य बनता है। जो ताकतें प्रभुत्व में होती हैं वो अपने प्रतिनिधि खोज लेती हैं। गोवा के गृहमंत्री रवि नायक व्यक्तिगत रूप से कुछ भी हों, लेकिन आज वे ड्रग माफिया के सरकारी एक्सटेंशन हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है। वरना, कोई मंत्री इतना बेवकूफ नहीं हो सकता कि वह अपनी बेटी गंवा चुकी पराए मुल्क की किसी मां को धमकी दे कि वह उसका वीसा नहीं बनने देगा।
नेहरू-गांधी ने बातें अच्छी-अच्छी कीं, आकर्षक नीतियां बनाईं, लेकिन ऐसा कोई काम नहीं किया, जिससे भारतीय समाज का शक्ति-संतुलन तहस-नहस हो जाए। नतीजतन धीरे-धीरे यही हुआ कि अंग्रेज़ों के जमाने में सत्तारूढ़ दलाल ताकतें ही दस-बीस साल बाद देश पर फिर से हावी हो गईं। आज भी अगर कोई कृषि भूमि के राष्ट्रीयकरण जैसे उथल-पुथल मचानेवाले कदम से कन्नी काटेगा तो उसकी तरफ से फेंके गए 60,000 करोड़ रुपए भी हवनकुंड में पड़े अक्षत की तरह स्वाहा हो जाएंगे। 65-70 करोड़ देशवासियों को सहारा देनेवाली कृषि की हालत खराब ही रहेगी। नेता बदलते रहेंगे, हालात जस के तस रहेंगे।
कितनी हास्यास्पद बात है कि राहुल गांधी की स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए कांग्रेस उन्हें देश भर में टहला रही है और डंका यह पीटा जा रहा है कि राहुल बाबा भारत की खोज पर निकले हैं। साफ झलक रहा है कि राहुल किसी खोज पर नहीं, बल्कि देश को अपनी हैसियत दिखाने की हसरत लेकर घूम रहे हैं। अपने छवि-प्रबंधकों के कहने पर गुपचुप हल्ला मचवाकर नक्सल-प्रभावित इलाके में गरीब किसानों और आदिवासियों के घर भी चले जाते हैं। मान लीजिए कि ऐसा नहीं है और राहुल सचमुच भारत की खोज पर निकले हैं, तब भी मेरा कहना है कि जब परनाना सचमुच भारत की खोज करने के बावजूद टांय-टांय फिस्स साबित हो गया तो परनाती नाउम्मीद ही करेगा, इसमें किसी शक की गुंजाइश नहीं है।
दस साल के भीतर ही मोहभंग शुरू हो गया। देश को बहुत बारीकी से झांकनेवाले नेहरू जी ही खुद अगल-बगल झांकने लगे। धीरे-धीरे नेहरू की नीतियों के बीच से इंदिरा गांधी का अधिनायकवाद पैदा हुआ। राजीव गांधी की दलाली पैदा हुई। देश चंद्रशेखर के जमाने के हश्र तक जा पहुंचा जब हमें अपना सोना तक विदेश में गिरवी रखना पड़ा। भजनलाल जैसे चाटुकार पैदा हुए। आयाराम, गयाराम की राजनीतिक संस्कृति पैदा हुई। लोगबाग राजनीति से नफरत करने लगे। नेता शब्द एक गाली बन गया।
ऐसा क्यों हुआ? क्या देश 15 अगस्त 1947 को जिस घड़ी में आज़ाद हुआ था, उस वक्त योग ही ऐसा बना था? देश की कुंडली और कर्मगति ऐसी ही है? हो सकता है कि आज भी कोई तुलसीदास की तरह कहने लगे कि करम गति टारे नांहि टरी, गुरु वशिष्ठ से पंडित ज्ञानी सोचि कै लगन धरी, सीताहरण मरण दशरथ को वन में विपति परी। जब वशिष्ठ जैसे मुनि के विधि-विधान के बावजूद राम के पूरे वंश के साथ ऐसा हुआ तो औरों की बात ही मत कीजिए। यकीन मानिए, अभी भी ऐसे तमाम लोग मिल जाएंगे जो नेहरू, गांधी, पटेल व अंबेडकर की महानता का बखान करते हुए देश की दुर्दशा की ऐसी ही व्याख्या करेंगे।
असल में किसी भी नेता की सोच और करिश्मे से नहीं तय होता कि उसका समाज पर अंतिम रूप से क्या असर पड़ेगा। सामाजिक शक्तियों का संतुलन ही तय करता है कि चीज़ें अंतिम रूप से क्या शक्ल अख्तियार करेंगी। समाज में सक्रिय शक्तियां किसी नेता में अपना एक्सटेंशन देखती हैं, तभी वह स्वीकार्य बनता है। जो ताकतें प्रभुत्व में होती हैं वो अपने प्रतिनिधि खोज लेती हैं। गोवा के गृहमंत्री रवि नायक व्यक्तिगत रूप से कुछ भी हों, लेकिन आज वे ड्रग माफिया के सरकारी एक्सटेंशन हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है। वरना, कोई मंत्री इतना बेवकूफ नहीं हो सकता कि वह अपनी बेटी गंवा चुकी पराए मुल्क की किसी मां को धमकी दे कि वह उसका वीसा नहीं बनने देगा।
नेहरू-गांधी ने बातें अच्छी-अच्छी कीं, आकर्षक नीतियां बनाईं, लेकिन ऐसा कोई काम नहीं किया, जिससे भारतीय समाज का शक्ति-संतुलन तहस-नहस हो जाए। नतीजतन धीरे-धीरे यही हुआ कि अंग्रेज़ों के जमाने में सत्तारूढ़ दलाल ताकतें ही दस-बीस साल बाद देश पर फिर से हावी हो गईं। आज भी अगर कोई कृषि भूमि के राष्ट्रीयकरण जैसे उथल-पुथल मचानेवाले कदम से कन्नी काटेगा तो उसकी तरफ से फेंके गए 60,000 करोड़ रुपए भी हवनकुंड में पड़े अक्षत की तरह स्वाहा हो जाएंगे। 65-70 करोड़ देशवासियों को सहारा देनेवाली कृषि की हालत खराब ही रहेगी। नेता बदलते रहेंगे, हालात जस के तस रहेंगे।
कितनी हास्यास्पद बात है कि राहुल गांधी की स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए कांग्रेस उन्हें देश भर में टहला रही है और डंका यह पीटा जा रहा है कि राहुल बाबा भारत की खोज पर निकले हैं। साफ झलक रहा है कि राहुल किसी खोज पर नहीं, बल्कि देश को अपनी हैसियत दिखाने की हसरत लेकर घूम रहे हैं। अपने छवि-प्रबंधकों के कहने पर गुपचुप हल्ला मचवाकर नक्सल-प्रभावित इलाके में गरीब किसानों और आदिवासियों के घर भी चले जाते हैं। मान लीजिए कि ऐसा नहीं है और राहुल सचमुच भारत की खोज पर निकले हैं, तब भी मेरा कहना है कि जब परनाना सचमुच भारत की खोज करने के बावजूद टांय-टांय फिस्स साबित हो गया तो परनाती नाउम्मीद ही करेगा, इसमें किसी शक की गुंजाइश नहीं है।
Comments
--क्या आप बैंक और कोयला खदानों की तरह सारी कृषि भूमि के राष्ट्रीयकरण का सुझाव दे रहे हैं ..... क्या किसान से उसकी भूमि ले कर सरकार खेती करेगी और क्या यह गिल की हॉकी जैसा नही हो जाएगा ?
आपके चिट्ठे का नया पाठक या कहें तो इस हिन्दी इंटरनेट जगत का नया निवासी हूँ ..शायद आपकी बात समझ नही पा रहा
धन्यवाद
अंदर कुछ करने की चाह दिखती है. सत्ता का लोभ तो उन्हे भी है और हर नेता को होता है, तो इसमे ग़लत कुछ नही है. परनाना ने भी देश की बागडोर नाज़ुक मौके पर थामी थी. बस बेटी के प्रेम मे रास्ते से भटक गये. फिर से एक सार्थक पोस्ट के लिए धन्यवाद.
वैसे नेहरू परिवार के वंशवाद से मुझे भी कोई राग नहीं है।
baat to solah aane sach hai.
anil ji aap ke vichar se sahmat hun.
yehan to itna hi kahoonga - yatha praja tatha raaja
ओए की फरक पैंदा ए, दाद्दा होवे कि नाती..
हुण कमरे तों बाहर ते आणा नईं, गल्लाँ करण विच की जाँदा ए ?
http://batangad.blogspot.com/2008/03/blog-post_10.html