महत्वाकांक्षा, तू इतनी क्यों मर गई है मुई!!
हर ज़माने के उसूल अलग होते है, नीति-वाक्य अलग होते हैं। जैसे, आज के ज़माने में करियर और धंधे में आगे बढ़ने के लिए महत्वाकांक्षा का होना बहुत ज़रूरी है। इस दौर में अगर किसी की महत्वाकांक्षा ही एक सिरे से मर जाए तो उसका एक इंच भी आगे बढ़ पाना संभव नहीं होगा। लेकिन, हमारे मानस की हालत ऐसी ही है। बीस साल पहले सांगठनिक घुटन और जड़ता से परेशान होकर उसने होलटाइमरी क्या छोड़ी, जीवन निस्सार हो गया। पहले कहां लोगों के दिलों से लेकर देश पर राज करने का सपना देखता था, लेकिन अब उसका अपने पर ही कोई राज नहीं रहा। ऊर्जा से लबलबाता नौजवान आज सूखे पत्ते की तरह बेजान पड़ा है। लहरें जहां भी ले जाएं। हवाएं जहां ले जाकर पटक दें। धड़कनों के चलने के तर्क से जिए जा रहा है। वरना आज इसी पल मर जाए तब भी कोई गम नहीं होगा।
लेकिन एनिस्थीसिया लगे अंग को दर्द भले ही न महसूस हो, पता तो चलता ही है कि कुछ चुभोया जा रहा है, कुछ काटा जा रहा है। दिख तो रहा ही है कि साथ वाले लोग बढ़ने के प्रयास कर रहे हैं, अपने हुनर दिखा रहे हैं तो बढ़े जा रहे हैं। लेकिन सब चलता है, क्या फर्क पड़ता है के भाव के साथ मानस जहां पड़ जाता है, वहां देर तक पड़ा रहता है। किसी की नज़र पड़ जाए और वह उसे उठाकर कहीं और बैठा दे तो चला जाता है। उसे रह-रहकर कचोट होती है कि उसकी काबिलियत कोई समझ नहीं रहा। उसमें संगठन बनाने का हुनर है। जटिल से जटिल चीजों को समझने का कौशल है। बिगड़ी हुई बात को बनाने का सलीका उसे आता है।
यह सच है कि बहुत सारी बातें वह भूल चुका है, लेकिन किसी ज़माने का ग्रुप-लीडर आज भी टीम बनाने की दक्षता और धैर्य रखता है। उसमें टीम को लीड करने की क्षमता अब भी है। लेकिन यहां तो जिसे ऊपर से आरोपित कर दिया जाए, लोग उसी को लीडर मानते हैं। नीचे से, लोगों के बीच से नेतृत्व विकसित करने में किसी का यकीन ही नहीं है। न राजनीति में ऐसा है, न कॉरपोरेट सेक्टर में, न पब्लिक सेक्टर में, न सरकार में और न ही मीडिया में। हर जगह नेता को ऊपर से थोपा जाता है।
आप कह सकते हैं कि उसकी यह हालत उसकी अपनी वजह, अपनी सोच से हुई है। किसी पार्टी या राजनीतिक विचारधारा ने अपने से जुड़नेवाले हर कार्यकर्ता का ठेका तो ले नहीं रखा है?!? बिलकुल सही बात है। मानस पार्टी से जुड़नेवाला एक अदना कार्यकर्ता ही था। लेकिन पार्टी उसके लिए सब कुछ थी। वह एक ऐसी महत्वाकांक्षा थी, जिसके लिए उसने अपना करियर, अपना घर, यहां तक कि अपना प्यार तक छोड़ दिया था। आज के नौजवान शायद इसकी कल्पना भी न कर सकें। लेकिन यह तो कल्पना कर ही सकते हैं कि इन चीज़ों को त्यागने में कितनी तकलीफ होती है। मानस ने एक संसार को छोड़कर दूसरे संसार को अपनाया था। इसलिए जब दूसरे संसार से उसकी बेदखली हुई तो उसका सब कुछ लुट गया। हालत न खुदा ही मिला, न बिसाले सनम की हो गई। उसकी सारी दुनिया ही उजड़ गई।
उसने मरने की भी कोशिश की, लेकिन बच गया तो जीवन बायोलॉजिकल फैक्ट बन गया। वह मरा-मरा जीने लगा, लेकिन जिनसे रिश्तों की डोर बंधी, वो सभी पूरी तरह सही-सलामत थे। उन्होंने उसके ‘कोमा’ में रहने का भरपूर फायदा उठाया। उसके स्वार्थ से ऊपर उठ जाने का पूरा दोहन किया। दफ्तर में बॉस ने यही किया और घर में बीवी ने यही किया। फिर ऐसा कुछ हुआ कि दोनों ही एक्सपोज़ होने की हालत में आ गए तो उन्होंने इसे निकाल फेंकना ही उचित समझा। लेकिन कहते हैं न कि ऊपर वाले की लाठी में आवाज़ नहीं होती। आज बॉस की हालत खस्ता है। और, पत्नी तो अपने ही बुने जाल में ऐसी उलझी कि वही जाल एक दिन उसके गले में चुनरी की तरह लिपट गया और वह कई-कई बार झूल गई।
इन झंझावातों में मानस की चेतना और ज्यादा डूबती गई। वह जगते हुए भी सोता रहा। संज्ञाशून्य हो गया। ऐसी हालत में वह जमाने के दस्तूर के हिसाब से महत्वाकांक्षा लाए तो कहां से? इस बीच उसने की नहीं, लेकिन उसकी दूसरी शादी हो गई। नई पत्नी भली है। कहती है कि इस तरह नहीं चलेगा, तुम्हें किसी अच्छे साइकोलॉजिस्ट को दिखाना चाहिए। वह कहता है, “साइकोलॉजिस्ट को दिखाओ या सोसियालॉजिस्ट हो, मेरी समस्या का हल किसी के पास नहीं है। अगर इसका कोई हल है तो मैं ही निकाल सकता हूं, कोई दूसरा नहीं।”
मानस की कथा की पिछली कड़ी : जीवन बायोलॉजिकल फैक्ट नहीं तो और क्या है? कहानी की सारी कड़ियां आप जिंदगी का यू-टर्न लेबल पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं।
लेकिन एनिस्थीसिया लगे अंग को दर्द भले ही न महसूस हो, पता तो चलता ही है कि कुछ चुभोया जा रहा है, कुछ काटा जा रहा है। दिख तो रहा ही है कि साथ वाले लोग बढ़ने के प्रयास कर रहे हैं, अपने हुनर दिखा रहे हैं तो बढ़े जा रहे हैं। लेकिन सब चलता है, क्या फर्क पड़ता है के भाव के साथ मानस जहां पड़ जाता है, वहां देर तक पड़ा रहता है। किसी की नज़र पड़ जाए और वह उसे उठाकर कहीं और बैठा दे तो चला जाता है। उसे रह-रहकर कचोट होती है कि उसकी काबिलियत कोई समझ नहीं रहा। उसमें संगठन बनाने का हुनर है। जटिल से जटिल चीजों को समझने का कौशल है। बिगड़ी हुई बात को बनाने का सलीका उसे आता है।
नीचे से, लोगों के बीच से नेतृत्व विकसित करने में किसी का यकीन ही नहीं है। न राजनीति में ऐसा है, न कॉरपोरेट सेक्टर में, न पब्लिक सेक्टर में, न सरकार में और न ही मीडिया में। हर जगह नेता को ऊपर से थोपा जाता है।
यह सच है कि बहुत सारी बातें वह भूल चुका है, लेकिन किसी ज़माने का ग्रुप-लीडर आज भी टीम बनाने की दक्षता और धैर्य रखता है। उसमें टीम को लीड करने की क्षमता अब भी है। लेकिन यहां तो जिसे ऊपर से आरोपित कर दिया जाए, लोग उसी को लीडर मानते हैं। नीचे से, लोगों के बीच से नेतृत्व विकसित करने में किसी का यकीन ही नहीं है। न राजनीति में ऐसा है, न कॉरपोरेट सेक्टर में, न पब्लिक सेक्टर में, न सरकार में और न ही मीडिया में। हर जगह नेता को ऊपर से थोपा जाता है।
आप कह सकते हैं कि उसकी यह हालत उसकी अपनी वजह, अपनी सोच से हुई है। किसी पार्टी या राजनीतिक विचारधारा ने अपने से जुड़नेवाले हर कार्यकर्ता का ठेका तो ले नहीं रखा है?!? बिलकुल सही बात है। मानस पार्टी से जुड़नेवाला एक अदना कार्यकर्ता ही था। लेकिन पार्टी उसके लिए सब कुछ थी। वह एक ऐसी महत्वाकांक्षा थी, जिसके लिए उसने अपना करियर, अपना घर, यहां तक कि अपना प्यार तक छोड़ दिया था। आज के नौजवान शायद इसकी कल्पना भी न कर सकें। लेकिन यह तो कल्पना कर ही सकते हैं कि इन चीज़ों को त्यागने में कितनी तकलीफ होती है। मानस ने एक संसार को छोड़कर दूसरे संसार को अपनाया था। इसलिए जब दूसरे संसार से उसकी बेदखली हुई तो उसका सब कुछ लुट गया। हालत न खुदा ही मिला, न बिसाले सनम की हो गई। उसकी सारी दुनिया ही उजड़ गई।
उसने मरने की भी कोशिश की, लेकिन बच गया तो जीवन बायोलॉजिकल फैक्ट बन गया। वह मरा-मरा जीने लगा, लेकिन जिनसे रिश्तों की डोर बंधी, वो सभी पूरी तरह सही-सलामत थे। उन्होंने उसके ‘कोमा’ में रहने का भरपूर फायदा उठाया। उसके स्वार्थ से ऊपर उठ जाने का पूरा दोहन किया। दफ्तर में बॉस ने यही किया और घर में बीवी ने यही किया। फिर ऐसा कुछ हुआ कि दोनों ही एक्सपोज़ होने की हालत में आ गए तो उन्होंने इसे निकाल फेंकना ही उचित समझा। लेकिन कहते हैं न कि ऊपर वाले की लाठी में आवाज़ नहीं होती। आज बॉस की हालत खस्ता है। और, पत्नी तो अपने ही बुने जाल में ऐसी उलझी कि वही जाल एक दिन उसके गले में चुनरी की तरह लिपट गया और वह कई-कई बार झूल गई।
इन झंझावातों में मानस की चेतना और ज्यादा डूबती गई। वह जगते हुए भी सोता रहा। संज्ञाशून्य हो गया। ऐसी हालत में वह जमाने के दस्तूर के हिसाब से महत्वाकांक्षा लाए तो कहां से? इस बीच उसने की नहीं, लेकिन उसकी दूसरी शादी हो गई। नई पत्नी भली है। कहती है कि इस तरह नहीं चलेगा, तुम्हें किसी अच्छे साइकोलॉजिस्ट को दिखाना चाहिए। वह कहता है, “साइकोलॉजिस्ट को दिखाओ या सोसियालॉजिस्ट हो, मेरी समस्या का हल किसी के पास नहीं है। अगर इसका कोई हल है तो मैं ही निकाल सकता हूं, कोई दूसरा नहीं।”
मानस की कथा की पिछली कड़ी : जीवन बायोलॉजिकल फैक्ट नहीं तो और क्या है? कहानी की सारी कड़ियां आप जिंदगी का यू-टर्न लेबल पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं।
Comments
तिनके का संबल होता है
जो पथ में ठोकर ख़ाता है
अक्सर वही सफल होता है .
मुझे लगता है आपकी पोस्ट के अन्त में
उस आगाज़ की आहट भी तो है जिसके सामने
हर चुनौती को झुकना पड़ता है !
स्वयं से बाहर ,दुनिया में किसी भी समस्या का हल
मुमकिन नहीं !
बहरहाल आज के दौर में
कामयाबी का जो फलसफा.......नहीं ...नहीं.....बाज़ार है
उसका अनावरण भी तो करता है आपका आलेख .
शुक्रिया !