मुंबई के तीन नए ब्लॉगरों के आगे मैं पिद्दी बन गया
नेट पर बैठ जाओ तो पूरा चेन रिएक्शन शुरू हो जाता है। यहां से वहां, वहां से वहां। कल दिन में नेट पर ऐसी ही तफरी कर रहा था कि मुंबई के तीन नए ब्लॉगरों से पाला पड़ गया। और, यकीन मानिए, इनका लिखा मैंने पढ़ा तो कॉम्प्लेक्स से भर गया। मुझे लगा कि साढ़े पांच सौ किलो का जो वजन उठाने का मंसूबा मैं बांध रहा था, उसे तो ये लोग अभी से बड़ी आसानी से उठा रहे हैं। मैं पहले पहुंचा मानव कौल के ब्लॉग पर। मानव की उम्र महज 33 साल है। वे अक्सर ‘अपने से’ बात करते हैं।
इसी बातचीत में वे एक जगह कहते हैं, “कुछ अलग कर दिखाने की उम्र, हम सबने जी है, जी रहे हैं, या अभी जीएंगे। मुझे हमेशा लगता है, ये ही वो उम्र होती है... जब हम सामान्य से अलग दिखने की कोशिश में, खुद को पूरा का पूरा बदल देते हैं।... कुछ अलग कर दिखाने की होड़, हमें किस सामान्यता पर लाकर छोड़ती है, ये शायद हमें जब तक पता चलता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। फिर हम शायद अपने किए की निरन्तरता में अपने होने की निरन्तरता पा चुके होते हैं।”
मानव ने एक अन्य पोस्ट में हार-जीत के बारे में लिखा है, “मैं हार क्यों नहीं सकता... या मुझे हारने क्यों नहीं दिया जा रहा है। मुझे हमेशा उन गुरुओं, अभिभावकों से ये गुस्सा रहा है जिन्होंने हमें हमेशा हारने से बचाया है। वो हमें हमारी हार भी पूरी तरह से जीने नहीं देते।...मेरे हिसाब से बात बस रमने की है, खुद अपनी जगह तलाशने की है, जहां से खड़े होकर आपको दुनिया देखना है।” इस पर आई टिप्पणी देखी तो अभिभूत रह गया। वहां से टिप्पणीकार मलय मांगलिक के प्रोफाइल में गया तो पता चला कि उनका अलग ब्लॉग है। मलय मार्केटिंग से जुड़े हैं, मुंबई में ही रहते हैं, गहरे मनोभाव की कविताएं लिखते हैं।
मलय अपनी टिप्पणी में ऐसी बातचीत करते हैं जैसी हम पुराने ब्लॉगरों के बीच नजर नहीं आती। मलय का जवाब यूं है, “इस जीवन में, इस समाज में रहते हुए हम कम से कम उसे तो बिलकुल अनदेखा नहीं कर सकते जो प्राकृतिक मानवीय व्यवहार है। जीतना, हमेशा जीतना, यह मनुष्य मात्र की सबसे मूलभूत इच्छा होती है। समय व स्थान की सीमाओं से मुक्त... सुप्त ही सही, ये भावना प्रत्येक (बिना किसी अपवाद के) मनुष्य में होती है... और कुछ में तो इतनी प्रबल कि हार के कुछ झटके ही उनकी जीने की या प्रगति करने की इच्छा को पूरी तरह से मार सकते हैं।....कई बार हार जीत के अंतर का मिटा दिया जाना उस दबे-छुपे डर पर भी आश्रित होता है कि अगर एक हार हुई और उसकी वजह से लोग पिछली सारी जीतों को भूल गए तो??कहीं एक हार की वजह से रेस में दोबारा स्टार्ट-लाइन पर खड़े कर दिए गए तो?? चलो इससे अच्छा तो पहले से ही बोल दिया जाए कि हार या जीत, कोई फर्क नहीं... गौर से देखें तो यह सब बेसिक सरवाइवल की इच्छा का ही एक्सटेंशन है... दूसरे शब्दों में दबी-छुपी जीत की इच्छा।....
हार या जीत का अंतर न रखना वास्तव में तब उचित है जब बात एक्सेप्टेंस की हो, किसी व्यक्ति विशेष की, उसके समाज में/ उसके परिवेश द्वारा। पर यह व्यक्ति का नहीं, बल्कि उसके समाज का कर्तव्य है... किसी भी समाज को इतना आचारित/ उदार अवश्य होना चाहिए कि वो एक व्यक्ति के संपूर्ण अस्तित्व को मात्र एक हार-जीत से न तौले, बल्कि उसे उसकी संपूर्णता में देखे व स्वीकार करे। दुख है कि कई बार ऐसा नहीं होता... महान से महान (?) समाजों द्वारा भी नहीं..."
टिप्पणी और भी बड़ी है। लेकिन इतने हिस्से से आप मलय के चिंतन की ईमानदारी और गहराई समझ सकते हैं। अब मलय के ब्लॉग से मैं जा पहुंचा मुंबई के तीसरे नए ब्लॉगर अतुल मोंगिया के ठिकाने पर। अतुल अभी 29 साल के हैं। कहीं आरे कॉलोनी की हरी वादियों में रहते हैं। वो अंग्रेजी से हिंदी में आए हैं, कैसे आप उन्हीं के मुंह से सुन लीजिए: यूँ तो हिन्दी मेरी मातृभाषा है पर कुछ ग्लोबलाइज्ड भारत के दोष पर और कुछ अंग्रेज़ी भाषित साहित्य के आत्मसात होने पर, अंग्रेज़ी एक तरह से मेरी पहली भाषा बन गई। मेरा अधिकतम सोचना, बातचीत करना इसी भाषा के संयोग से हुआ। पर विचित्र यह कि एक साल पहले जब कलम को कागज़ पे चलाया तो उसने हिन्दुस्तानी भाषा को अपना माध्यम चुना। मुझे बहुत अच्छा लगा। एक अपनापन भी महसूस हुआ। कुछ भावों और एहसासों को माँ की बोली ही परिणाम दे सकती है, यह ज्ञात हुआ।
अंत में बस इतना ही कि मैं इन तीनों संभावनामय युवा ब्लॉगरों का मुरीद हो गया हूं। ये तीनों ही आपस में एक दूसरे के एक्सटेंशन हैं। और इस एक्टेंशन में अभी विस्तार की बहुत गुंजाइश है।
इसी बातचीत में वे एक जगह कहते हैं, “कुछ अलग कर दिखाने की उम्र, हम सबने जी है, जी रहे हैं, या अभी जीएंगे। मुझे हमेशा लगता है, ये ही वो उम्र होती है... जब हम सामान्य से अलग दिखने की कोशिश में, खुद को पूरा का पूरा बदल देते हैं।... कुछ अलग कर दिखाने की होड़, हमें किस सामान्यता पर लाकर छोड़ती है, ये शायद हमें जब तक पता चलता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। फिर हम शायद अपने किए की निरन्तरता में अपने होने की निरन्तरता पा चुके होते हैं।”
मानव ने एक अन्य पोस्ट में हार-जीत के बारे में लिखा है, “मैं हार क्यों नहीं सकता... या मुझे हारने क्यों नहीं दिया जा रहा है। मुझे हमेशा उन गुरुओं, अभिभावकों से ये गुस्सा रहा है जिन्होंने हमें हमेशा हारने से बचाया है। वो हमें हमारी हार भी पूरी तरह से जीने नहीं देते।...मेरे हिसाब से बात बस रमने की है, खुद अपनी जगह तलाशने की है, जहां से खड़े होकर आपको दुनिया देखना है।” इस पर आई टिप्पणी देखी तो अभिभूत रह गया। वहां से टिप्पणीकार मलय मांगलिक के प्रोफाइल में गया तो पता चला कि उनका अलग ब्लॉग है। मलय मार्केटिंग से जुड़े हैं, मुंबई में ही रहते हैं, गहरे मनोभाव की कविताएं लिखते हैं।
मलय अपनी टिप्पणी में ऐसी बातचीत करते हैं जैसी हम पुराने ब्लॉगरों के बीच नजर नहीं आती। मलय का जवाब यूं है, “इस जीवन में, इस समाज में रहते हुए हम कम से कम उसे तो बिलकुल अनदेखा नहीं कर सकते जो प्राकृतिक मानवीय व्यवहार है। जीतना, हमेशा जीतना, यह मनुष्य मात्र की सबसे मूलभूत इच्छा होती है। समय व स्थान की सीमाओं से मुक्त... सुप्त ही सही, ये भावना प्रत्येक (बिना किसी अपवाद के) मनुष्य में होती है... और कुछ में तो इतनी प्रबल कि हार के कुछ झटके ही उनकी जीने की या प्रगति करने की इच्छा को पूरी तरह से मार सकते हैं।....कई बार हार जीत के अंतर का मिटा दिया जाना उस दबे-छुपे डर पर भी आश्रित होता है कि अगर एक हार हुई और उसकी वजह से लोग पिछली सारी जीतों को भूल गए तो??कहीं एक हार की वजह से रेस में दोबारा स्टार्ट-लाइन पर खड़े कर दिए गए तो?? चलो इससे अच्छा तो पहले से ही बोल दिया जाए कि हार या जीत, कोई फर्क नहीं... गौर से देखें तो यह सब बेसिक सरवाइवल की इच्छा का ही एक्सटेंशन है... दूसरे शब्दों में दबी-छुपी जीत की इच्छा।....
हार या जीत का अंतर न रखना वास्तव में तब उचित है जब बात एक्सेप्टेंस की हो, किसी व्यक्ति विशेष की, उसके समाज में/ उसके परिवेश द्वारा। पर यह व्यक्ति का नहीं, बल्कि उसके समाज का कर्तव्य है... किसी भी समाज को इतना आचारित/ उदार अवश्य होना चाहिए कि वो एक व्यक्ति के संपूर्ण अस्तित्व को मात्र एक हार-जीत से न तौले, बल्कि उसे उसकी संपूर्णता में देखे व स्वीकार करे। दुख है कि कई बार ऐसा नहीं होता... महान से महान (?) समाजों द्वारा भी नहीं..."
टिप्पणी और भी बड़ी है। लेकिन इतने हिस्से से आप मलय के चिंतन की ईमानदारी और गहराई समझ सकते हैं। अब मलय के ब्लॉग से मैं जा पहुंचा मुंबई के तीसरे नए ब्लॉगर अतुल मोंगिया के ठिकाने पर। अतुल अभी 29 साल के हैं। कहीं आरे कॉलोनी की हरी वादियों में रहते हैं। वो अंग्रेजी से हिंदी में आए हैं, कैसे आप उन्हीं के मुंह से सुन लीजिए: यूँ तो हिन्दी मेरी मातृभाषा है पर कुछ ग्लोबलाइज्ड भारत के दोष पर और कुछ अंग्रेज़ी भाषित साहित्य के आत्मसात होने पर, अंग्रेज़ी एक तरह से मेरी पहली भाषा बन गई। मेरा अधिकतम सोचना, बातचीत करना इसी भाषा के संयोग से हुआ। पर विचित्र यह कि एक साल पहले जब कलम को कागज़ पे चलाया तो उसने हिन्दुस्तानी भाषा को अपना माध्यम चुना। मुझे बहुत अच्छा लगा। एक अपनापन भी महसूस हुआ। कुछ भावों और एहसासों को माँ की बोली ही परिणाम दे सकती है, यह ज्ञात हुआ।
अंत में बस इतना ही कि मैं इन तीनों संभावनामय युवा ब्लॉगरों का मुरीद हो गया हूं। ये तीनों ही आपस में एक दूसरे के एक्सटेंशन हैं। और इस एक्टेंशन में अभी विस्तार की बहुत गुंजाइश है।
Comments
मेरा तो बस यही कहना चाहता था कि तमाम चिरांधियां ब्लॉगरों से अलग नए किस्म के ऊर्जावान और संवेदनशील लोग हिंदी में लिखने लगे हैं। यह बहुत ही सुखद विकासक्रम है।
अच्छे को अच्छा कहना , अच्छी से अच्छी बात है .
प्रतिभा के फूल कभी भी ,कहीं भी खिल सकते हैं .
दूसरों की क़ाबिलियत को तहे दिल से तवज़्ज़ो देकर
दरअसल आपने एक बेहद सुलझे हुए और
उदार हृदय का परिचय दिया है .
इससे हमारी नज़र में आपका कद और उँचा हो हो गया है .
काश ! हरेक हिन्दुस्तानी ऐसे ही दिल का मालिक होता !
अतुल और मलय को मिलाने के लिये शुक्रिया
एक नयी दुनिया मिली।
सुनील
धन्यवाद अवगत कराने के लिये.
मोंगिया जी को बतादें कि पाश हिंदी का नहीं पंजाबी का कवि है....
Yahaan Aapka likha padhne ka bhi saubhagya mila ... Khazanaa hai , bahut se ratn mile ... aapko 'book mark' kar liya hai ...
Achha likha hua padhnaa meri kamzori hai ...
सुंदर बातें , सुंदर सोंच बहुत पहले से परोसी जाती रही है ,उसको जीवन मे उतारने वाला का सर्वथा आभाव रहा है . एहन तक कि उसे उसका रूप भी सही ,सहज नही समझा जाता .
उन तीनो का सोच स्वीकार्य हो ,मंगल कामना ! आपको उनकी बातें अच्छी लगी धन्यवाद ! उनकी सोच से अवगत कराने का साधुवाद !!
सुंदर बातें , सुंदर सोंच बहुत पहले से परोसी जाती रही है ,उसको जीवन मे उतारने वाला का सर्वथा आभाव रहा है . एहन तक कि उसे उसका रूप भी सही ,सहज नही समझा जाता .
उन तीनो का सोच स्वीकार्य हो ,मंगल कामना ! आपको उनकी बातें अच्छी लगी धन्यवाद ! उनकी सोच से अवगत कराने का साधुवाद !!
धन्यवाद नहीं कहना चाहता, पर आपके प्रोत्साहन से आगे लिखने का कारवां बढेगा, ऐसी आशा है . जीवन की पहली short story लिख रहा हूँ , हिंदी में.
चाहूँगा आप पढें और टिप्पनी दें. शायद समय लग जाए पर पूरी ज़रूर करूँगा . मलय ने मेरी बात चुरा ली, डॉ. जैन ने अपनी टिप्पनी में पहले ही सब कह दिया है ...