आत्मा मर गई, अब तो अंगों में बंटा जीता हूँ
रीतेश को गुजरे हुए आज पूरे एक साल हो गए। लेकिन वह अब भी ज़िदा है। एक साथ दो शरीरों में, जो अलग-अलग जगहों पर, अलग-अलग घरों में। एक घर आज़मगढ़ ज़िले के निज़ामाबाद में है तो दूसरा बिहार के जमालपुर में। एक शरीर तीन साल की बच्ची का है तो दूसरा करीब सत्तर साल की वृद्धा का, जबकि वह मरा था तो बीस साल का था। रीतेश ब्राह्मण था, उपाध्याय। लेकिन आज वह बच्ची के रूप में कुम्हार की संतान है, प्रजापति। और, वृद्धा के रूप में उसकी जाति का पता नहीं। जी हां, रीतेश की एक आंख बच्ची के पास है और एक आंख वृद्धा के पास। इन दोनों के ज़रिए वह आज भी ज़िंदा है, दुनिया देख रहा है। कम से कम रीतेश के पिता सुशील उपाध्याय का तो यही मानना है।
ठीक साल भर पहले बनारस के संकटमोचन मंदिर पर हुए आतंकवादी धमाकों में रीतेश बुरी तरह जख्मी हो गया था। सोलह दिनों तक वह जिंदगी और मौत से जूझता रहा और आखिरकार शरीर के भीतर भारी रक्तस्राव के कारण उसने दम तोड़ दिया। डॉक्टरों ने दो दिन पहले ही सुशील उपाध्याय को बता दिया था कि उनके बेटे के बचने की गुंजाइश न के बराबर है। लेकिन बाप अपने बेटे को ज़िंदा देखना चाहता था तो रीतेश के मरते ही डॉक्टरों से कहकर उसकी आंखें निकलवा लीं, जिसकी बदौलत आज दो लोग बराबर से दुनिया देख पा रहे हैं।
आज सुबह-सुबह मैंने इंडियन एक्सप्रेस में यह खबर पढ़ी तो एक साथ कई बातें दिमाग में दौड़ गईं। सुशील उपाध्याय एक आम भारतीय हैं तो साफ-सी बात है कि उनको आत्मा की अजरता-अमरता में पूरा यकीन होगा। लेकिन वो अपने बेटे को ज़िंदा देखना चाहते थे तो उन्होंने उसकी आंखें दान कर दीं। तीन साल की वो बच्ची और सत्तर के करीब की वो वृद्धा भले ही रीतेश की नज़र से उन्हें देखने के बावजूद पिता न मानें, लेकिन वे तो इन दोनों में अपने बेटे को देखते हैं। आप कहेंगे कि यही मोहमाया का भ्रमजाल है। दूसरी बात रीतेश आज विभक्त होकर जी रहा है। आत्मा है तो वह बंट कैसे गई। एक हिस्सा जाकर बच्ची की बाईं आंख में बैठ गया तो दूसरा वृद्धा की दाईं आंख में। एक निज़ामाबाद में तो दूसरा जमालपुर में। कमाल है!!!
मैं उधेड़बुन में था तो मुझे अमिताभ पांडे का वह लेख फिर याद आ गया जिसे अरविंद शेष ने करीब तीन महीने पहले अपने ब्लॉग पर छापा था। अमिताभ इस लेख में बताते हैं, “ऑक्सीजन की सप्लाई बंद होने पर दिमाग सबसे पहले जवाब दे देता है। अगर ताप कम हो तो दिल, फेफड़े, गुर्दे, जिगर, आंखें और खाल खुछ घंटों तक जीवित रह सकती हैं। अगर इनको किसी जरूरतमंद को प्रत्यारोपित कर दिया जाए तो हम अपने शरीर को कुछ हिस्सों को न सिर्फ अपनी ‘आत्मा’ से बिछड़ने के बाद भी जिंदा रख सकते हैं, बल्कि कुछ पुण्य भी कमा सकते हैं।”
अमिताभ ने एक और दिलचस्प सवाल उठाया है कि, “कोमा की बेहोशी में हमारे दिमाग का सचेत हिस्सा खराब हो जाता है, फिर भी शरीर जिंदा रहता है और इसके उलट पक्षाघात में शरीर तो खराब हो जाता है, पर दिमाग पूरा चुस्त-दुरुस्त रहता है। तो क्या कोमा में आत्मा शरीर में अटकी रहती है और पक्षाघात में दिमाग में?” इसका जवाब भी मुझे बड़ा जबरस्त लगता है: वैज्ञानिक मत से ऐसा है कि मरने पर कोई आत्मा-वात्मा बाहर नहीं निकलती, क्योंकि वह अंदर कभी आई ही नहीं थी। माता के गर्भ में अंडाणु और पिता के शुक्राणु से (जो दोनों ही जीवित हैं) गर्भ बनता है। वह भी जीवित गर्भ से पनपे, हम भी जीवित। तो, फिर हमारी खास आत्मा ने प्रवेश कब किया?
साफ है कि आत्मा की धारणा अंदर-बाहर, आशा-निराशा और जीवन-मृत्यु जैसे एक-दूसरे का निषेध करनेवाले पहलुओं के बीच संतुलन बनाने की दिमागी कसरत है। उसी तरह जैसे हम भयानक तनाव में होते हैं तो कैलाश पर्वत की असीम शीतलता में पहुंचने का सपना देख लेते हैं। बस, इतना ही है आत्मा, इससे ज्यादा नहीं। और हम एक सामाजिक इंसान हैं। आत्मा-वात्मा नहीं। फिर भी आत्मा सच है, उसी तरह जैसे सपने भ्रम होते भी एक हकीकत हैं।
फोटो साभार: Binkacrosstich
ठीक साल भर पहले बनारस के संकटमोचन मंदिर पर हुए आतंकवादी धमाकों में रीतेश बुरी तरह जख्मी हो गया था। सोलह दिनों तक वह जिंदगी और मौत से जूझता रहा और आखिरकार शरीर के भीतर भारी रक्तस्राव के कारण उसने दम तोड़ दिया। डॉक्टरों ने दो दिन पहले ही सुशील उपाध्याय को बता दिया था कि उनके बेटे के बचने की गुंजाइश न के बराबर है। लेकिन बाप अपने बेटे को ज़िंदा देखना चाहता था तो रीतेश के मरते ही डॉक्टरों से कहकर उसकी आंखें निकलवा लीं, जिसकी बदौलत आज दो लोग बराबर से दुनिया देख पा रहे हैं।
आज सुबह-सुबह मैंने इंडियन एक्सप्रेस में यह खबर पढ़ी तो एक साथ कई बातें दिमाग में दौड़ गईं। सुशील उपाध्याय एक आम भारतीय हैं तो साफ-सी बात है कि उनको आत्मा की अजरता-अमरता में पूरा यकीन होगा। लेकिन वो अपने बेटे को ज़िंदा देखना चाहते थे तो उन्होंने उसकी आंखें दान कर दीं। तीन साल की वो बच्ची और सत्तर के करीब की वो वृद्धा भले ही रीतेश की नज़र से उन्हें देखने के बावजूद पिता न मानें, लेकिन वे तो इन दोनों में अपने बेटे को देखते हैं। आप कहेंगे कि यही मोहमाया का भ्रमजाल है। दूसरी बात रीतेश आज विभक्त होकर जी रहा है। आत्मा है तो वह बंट कैसे गई। एक हिस्सा जाकर बच्ची की बाईं आंख में बैठ गया तो दूसरा वृद्धा की दाईं आंख में। एक निज़ामाबाद में तो दूसरा जमालपुर में। कमाल है!!!
मैं उधेड़बुन में था तो मुझे अमिताभ पांडे का वह लेख फिर याद आ गया जिसे अरविंद शेष ने करीब तीन महीने पहले अपने ब्लॉग पर छापा था। अमिताभ इस लेख में बताते हैं, “ऑक्सीजन की सप्लाई बंद होने पर दिमाग सबसे पहले जवाब दे देता है। अगर ताप कम हो तो दिल, फेफड़े, गुर्दे, जिगर, आंखें और खाल खुछ घंटों तक जीवित रह सकती हैं। अगर इनको किसी जरूरतमंद को प्रत्यारोपित कर दिया जाए तो हम अपने शरीर को कुछ हिस्सों को न सिर्फ अपनी ‘आत्मा’ से बिछड़ने के बाद भी जिंदा रख सकते हैं, बल्कि कुछ पुण्य भी कमा सकते हैं।”
अमिताभ ने एक और दिलचस्प सवाल उठाया है कि, “कोमा की बेहोशी में हमारे दिमाग का सचेत हिस्सा खराब हो जाता है, फिर भी शरीर जिंदा रहता है और इसके उलट पक्षाघात में शरीर तो खराब हो जाता है, पर दिमाग पूरा चुस्त-दुरुस्त रहता है। तो क्या कोमा में आत्मा शरीर में अटकी रहती है और पक्षाघात में दिमाग में?” इसका जवाब भी मुझे बड़ा जबरस्त लगता है: वैज्ञानिक मत से ऐसा है कि मरने पर कोई आत्मा-वात्मा बाहर नहीं निकलती, क्योंकि वह अंदर कभी आई ही नहीं थी। माता के गर्भ में अंडाणु और पिता के शुक्राणु से (जो दोनों ही जीवित हैं) गर्भ बनता है। वह भी जीवित गर्भ से पनपे, हम भी जीवित। तो, फिर हमारी खास आत्मा ने प्रवेश कब किया?
साफ है कि आत्मा की धारणा अंदर-बाहर, आशा-निराशा और जीवन-मृत्यु जैसे एक-दूसरे का निषेध करनेवाले पहलुओं के बीच संतुलन बनाने की दिमागी कसरत है। उसी तरह जैसे हम भयानक तनाव में होते हैं तो कैलाश पर्वत की असीम शीतलता में पहुंचने का सपना देख लेते हैं। बस, इतना ही है आत्मा, इससे ज्यादा नहीं। और हम एक सामाजिक इंसान हैं। आत्मा-वात्मा नहीं। फिर भी आत्मा सच है, उसी तरह जैसे सपने भ्रम होते भी एक हकीकत हैं।
फोटो साभार: Binkacrosstich
Comments
मानव शरीर में आप यहां जिसे आत्मा कह रहे हैं, उसे प्राण कहें तो बात अधिक स्पष्ट हो सकेगी। जीवन प्राण पर आधारित है, आत्मा पर नहीं। आत्मा तो केवल प्रतिबिंब है, जैसे सूर्य का प्रतिबिंब हर जलाशय, हर दर्पण में दिखता है, मगर वास्तव में सूर्य अंतरिक्ष में होता है।
कोमा में प्राण तत्व मस्तिष्क में विरल हो जाता है जबकि पक्षाघात में प्राण तत्व शरीर के किसी अंग विशेष में विरल हो जाता है।