Friday 30 November, 2007

एक भ्रम जिसे पीएम ने चूर-चूर कर दिया

लोग यह नहीं समझते कि प्रति व्यक्ति आधार पर हम (भारत) प्राकृतिक संसाधनों के मामले में अच्छी स्थिति में नहीं हैं। और अगर हमें इस कमी को दूर करना है तो हमें दुनिया का एक प्रमुख व्यापारिक देश बनना होगा, जिसके लिए हमें विश्व का एक प्रमुख मैन्यूफैक्चरिंग देश भी बनना होगा।
देश में प्राकृतिक संसाधनों का यह आकलन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का है। उन्होंने कल वाणिज्य मंत्री कमलनाथ की किताब - India’s century: The Age of Entrepreneurship in the world’s biggest democracy के विमोचन के मौके पर यह आकलन पेश किया। आज सुबह इस खबर को पढ़ने के बाद ही मैं बड़ा कन्फ्यूज़ हो गया हूं क्योंकि अभी तक मैं तो यही मान रहा था कि प्रकृति हमारे देश पर बड़ी मेहरबान रही है। उपजाऊ ज़मीन से लेकर खनिज़ों और जलवायु की विविधता के बारे में हम पूरी दुनिया में काफी बेहतर स्थिति में हैं। लेकिन जब मनमोहन सिंह जैसे अर्थशास्त्री ने यह बात कही है तो यकीनन इसे सच ही होना चाहिए। मैं अभी तक की अपनी जानकारी पर पछता रहा हूं। आपकी क्या हालत है? मनमोहन सिंह की काट के लिए आपके पास तथ्य हों तो ज़रूर पेश करें। मैं भी खोज में लगा हूं।

Thursday 29 November, 2007

तुष्टीकरण मुस्लिम अल्पमत का या बहुमत का?

तसलीमा नसरीन का नंदीग्राम से कोई लेनादेना नहीं है, लेकिन कुछ बेतुकी वजहों से उन्हें कई महीनों से नंदीग्राम में चल रहे विरोध की काट के लिए कोलकाता से बाहर भेज दिया गया। आज़ादी के बाद से ही भारत में चल रही तुष्टीकरण की राजनीति का यह एक ताज़ा उदाहरण है। तसलीमा को बाहर भेजकर पश्चिम बंगाल की सरकार ने लगता है कि मुसलमानों की मांगों के आगे ‘घुटने टेक’ दिए, लेकिन उसने एक ऐसे मसले पर कार्रवाई करने का फैसला किया जिसकी कोई सामाजिक-आर्थिक प्रासंगिकता मुसलमानों के बहुमत के लिए नहीं है।

उसका यह कदम औसत मुसलमान से कहीं ज्यादा मुस्लिम-विरोधी पार्टियों को खुश करता है। यह उन मुसलमान नेताओं और संगठनों को भी खुश कर सकता है, जो अपने निहित राजनीतिक मकसद के लिए तसलीमा के खिलाफ अभियान चला रहे हैं। ये मुस्लिम नेता अब अपनी जीत का दावा कर सकते हैं और हो सकता है कि वे अब इसी तरह के किसी और सांकेतिक मु्द्दे की तलाश में जुट गए हों।

कोलकाता में जो हिंसा तसलीमा नसरीन को निकाले जाने का सबब बन गई, वह हुई थी बुधवार 21 नवंबर को अखिल भारतीय अल्पसंख्यक फोरम (एआईएमएफ) नाम के छोटे से संगठन के विरोध प्रदर्शन के दौरान। इसके नाम में भले ही अखिल भारतीय लगा हो, लेकिन न तो इसका देश भर में कोई आधार है और न ही यह सभी अल्पसंख्यकों की नुमाइंदगी करता है। इसके अध्यक्ष इदरिस अली भावनात्मक मुद्दों को उठाने के लिए जाने जाते हैं। वे हाईकोर्ट की अवमानना के दोषी भी करार दिए जा चुके हैं।
राज्य सरकार एक छोटे-से अनजान संगठन और कुछ हिंसक मुस्लिम युवाओं के आगे क्यों झुक गई, जबकि उसने एक लाख मुसलमानों और स्थापित व सम्मानित मुस्लिम संगठन की आवाज़ को अनसुनी कर दिया?

पिछले हफ्ते एआईएमएफ के विरोध प्रदर्शन में महज कुछ हज़ार लोगों ने ही शिरकत की थी और कुछ अनजान वजहों से वे पुलिसवालों से भिड़ गए। अचंभे की बात है कि हर तरह के प्रदर्शन से निपटने में माहिर कोलकाता पुलिस हिंसा फैलाते इन मुठ्ठी भर लोगों से निपटने के लिए तैयार नहीं थी। इसके पांच दिन पहले ही कोलकाता में करीब एक लाख मुसलमानों ने नंदीग्राम की हिंसा के खिलाफ शांतिपूर्ण रैली निकाली थी। इसका आयोजन मिल्ली इत्तेहाद परिषद ने किया था, जिसमें जमायत उलेमा-ए-हिंद, जमायते इस्लामी मिल्ली काउंसिल, और मजलिस-ए-मुशावरात जैसे तमाम मुस्लिम संगठन शामिल हैं। अगर पश्चिम बंगाल के मुसलमान हिंसा ही करना चाहते थे तो उन्होंने शुक्रवार की रैली के बजाय बुधवार के प्रदर्शन का मौका क्यों चुना?

कुछ और भी सवाल हैं। जैसे, राज्य सरकार एक छोटे-से अनजान संगठन और कुछ हिंसक मुस्लिम युवाओं के आगे क्यों झुक गई, जबकि उसने एक लाख मुसलमानों और स्थापित व सम्मानित मुस्लिम संगठन की आवाज़ को अनसुनी कर दिया? क्या हम इससे देश के मुसलमानों को यह संदेश नहीं भेज रहे हैं कि हिंसा ही अपनी आवाज़ को सुनाने का एकमात्र तरीका है? और सरकार नंदीग्राम पर टस से मस होने को क्यों तैयार नहीं है जो एक सामाजिक, आर्थिक और न्यायिक समस्या है? उसने चंद मुसलमानों की धार्मिक भावना से जुड़े सांकेतिक मुद्दे से जुड़ी मांगों को ही क्यों तरजीह दी?

ये सवाल पश्चिम बंगाल सरकार से ही नहीं, सभी राज्यों और केंद्र सरकार से पूछे जाने चाहिए। सरकारी अधिकारियों, नीति-नियामकों, पत्रकारों और व्यवसायियों से लेकर सभी को समझने की जरूरत है कि अगर भारत को अपनी संपूर्ण संभावनाएं हासिल करनी हैं तो उसे मुसलमानों के बहुमत की जायज़ मांगों पर गौर करना होगा। सौभाग्य से न्याय, समानता, गरिमा, सुरक्षा, शिक्षा और रोज़गार जैसी उनकी मांगें हर आम भारतीय से ताल्लुक रखती हैं और उनका धर्म से कोई लेनादेना नहीं है। मुस्लिम समुदाय की बाकी धार्मिक मांगों पर मेरिट के आधार पर विचार किया जाना चाहिए, न कि इन पर तुष्टीकरण की राजनीति खेली जानी चाहिए।

मुठ्ठी भर हिंसक लोगों को यह मत तय करने दीजिए कि भारतीय मुसलमान क्या चाहता है। साथ ही, राजनेताओं को इस हिंसक अल्पमत को खुश करने का मौका मत दीजिए। अगर राजनीतिक पार्टियों को तुष्टीकरण की राजनीति खेलते रहने की इजाज़त मिली रही तो वे भारतीय मुसलमानों को ही नहीं, सारे भारत को हमेशा पिछड़ा बनाए रखेंगी।
- मिंट अखबार में आज छपे काशिफ-उल-हुडा के लेख के संपादित अंश। हुडा एक राजनीतिक विश्लेषक हैं और समाचारों की एक वेबसाइट के संपादक भी हैं।

राम बोलने से बन क्या जाएगा?

लगता है इनका ब्लॉग हथियाना मेरा धर्म बन गया है. लिखना तो इन्हें ही था पर मैं आ गई हूँ मेहमान ब्लॉगर बनकर. इसलिए कि मुझे इस विषय पर ज़ोर-शोर से लिखना है.

'ट्रेन पर सवा धार्मिक आस्था के तीन ताज़ा चेहरे' में जो लिखा गया वह इसलिए कि एक सार्थक बहस हो सके. कि धर्म आज भी कर्म-कांड और नाम-जाप ही है आम आदमी के लिए, यह समझा जा सके. कि ‘ऐसा ही होता आया है’ के इतिहास से निकलकर धर्म आज के सवालों और सही-गलत के संदर्भों में परिभाषित है? कि हम लकीर ही पीटते रहेंगे.

परिवार के एक बुजुर्ग व्यक्ति द्वारा खाने से पहले थाली के चारों ओर पानी छिड़कना (मेरे हिसाब से गोल लकीर खींचना) और खाते वक्त खाने की भरपूर कमियां निकालना- यह आम बात होगी- मेरा निजी अनुभव है. इसलिए कहना चाहती हूं कि इनकी तरह ज्यादातर लोगों को लकीर ही याद रहती है. लकीर खींचना ही इनका धर्म है. लकीर से जुडी कोई प्रार्थना, कोई भावना इन्हें याद नहीं रहती. कृतज्ञता, संतुष्टि और धन्यवाद ज्ञापन कहाँ खो जाते हैं पता नहीं.

आज हिन्दू धर्म की मूल भावना को, इसके लचीलेपन को याद करना चाहती हूं. कि धर्म जड़ न बना रहे.

2-3 साल पहले मेरी दीदी को लत लग गई थी जिससे भी बात करे अंत में समाप्ति करे ‘जय श्री कृष्ण’ कहकर. उसने मुझे भी कहा तो मैंने पलटकर पूछा कि क्या तुम्हें पता है कृष्ण थे भी और वह सचमुच के भगवान थे. तुम्हें पता है कि अमिताभ बच्चन, खुशबू, रजनीकांत वगैरह के मन्दिर बन चुके हैं. लोग उन्हें अभी से पूज रहे हैं. कालान्तर में सब पूजने लगेंगे क्योंकि मन्दिर बन चुके हैं. (वैसे इंटरनेट, सीडी के युग में पहचान गुम होने की संभावना कम ही है) और मन्दिर में अंदर रहने वाले का पता नहीं, हिन्दू मन्दिरों का वास्तु-शिल्प और कारीगरी अद्भुत होती है. हम फलां भगवान को क्यों पूजते हैं - यह क्यों भूल जाना हमें बेहद पसंद है. तो मैंने दीदी को ललकारा तुम्हारे पास क्या सबूत हैं कि कृष्ण उस ज़माने के बड़े कलाकार नहीं थे! दीदी उस समय खूब बिगड़ी पर बाद में उसने जय श्री कृष्ण कहना छोड़ दिया.
धर्म किसी को पूजने की, सामाजिक ज़रूरत थोड़ी न है. यह तो नितान्त निजी ज़रूरत है. मुझे जब ध्यान की ज़रूरत होती है तो ध्यान लगाने के लिए मैं नाम-जाप करती हूं.
आस्था और धर्म क्या है? धार्मिक कौन है?
मैं जब 6-7 साल की रही हूंगी तब हम श्रीनाथजी घूमने गए थे. जब मंदिर में चंद मिनटों के लिए दर्शन का समय हुआ तो सब दौड़ पड़े. (तब क्यू-सिस्टम नहीं था) टूट पड़ी भीड़ में मां के हाथों से मैं छूट गई और कुचलते-धक्के खाते पुरुषों वाले हिस्से में खदेड़ दी गई. प्रभु-भक्त दर्शनार्थियों के पैरों तले मैं दब गई होती यदि एक सज्जन ने मुझे उठाकर पुरुष-महिला हिस्से को अलग करने वाले डिवाइडर पर न बैठा दिया होता. मुझे पकड़े रखने के चक्कर में वे दर्शन भी न कर पाए. मेरे हिसाब से उन सज्जन जैसा धार्मिक व्यक्ति कोई नहीं.
जब मेरी शादी हुई तो मुझसे सर पर पल्लू डालने के लिए कहा गया. मैंने पूछा कि क्यों हमारी कोई देवी सर पर पल्लू नहीं डालती. हमारे धर्म में यह प्रथा है ही नहीं. पल्लू डालना समय, काल और ज़रूरत की देन थे. फिर ‘संस्कार‘ में रूढ़ हो गए. पर अब इसका कोई मतलब नहीं.
बात मांसाहार या शाकाहार की नहीं, उसको धर्म से जोड़ दिए जाने की है. उसे वर्जित बना दिए जाने की है. हिन्दू धर्म हमेशा से way of life रहा है, लचीला रहा है. जिसे जो माफिक आए वह सही-गलत और सकारात्मकता की मूल शर्तों के साथ उसका धर्म है. धर्म के साथ जोड़ने से कैसी निरर्थकता आ जाती है, यह जैन-धर्मियों के बिना प्याज आमलेट खाने के उदाहरण से स्पष्ट है.
मोबाइल का रिंगटोन ज़िदाबाद. अल्ला के उसूल क़ुरान में बंद रहें. मंत्र वाले का रिंगटोन जब बजता है तो क्या वह हर बार तीनों सृष्टियों (ऊँ भूर्व, भुव:, स्व:) का वरण करता है?
राम का नाम लेना धर्म है. पर स्वस्थ रहना आज के धर्म में शामिल नहीं. जबकि एकादशी के उपवास के पीछे बहुत बड़ा विज्ञान था कि हर 15वें दिन आप थोड़ा कम खाकर पेट को आराम दो!
आज के संदर्भ में राम मुझे खालिश राजनीति की याद दिलाते हैं. राजनीति द्वारा भुनाए जाने से उनके मायने बदल चुके हैं. वैसे भी राम मर्यादा (पुरुषो में उत्तम) पुरुषोत्तम कहे गए हैं, भगवान नहीं. दिन के लाख राम नाम जपने वाले मुझे राम के रोज़-ब-रोज़ के जीवन के दस नीति-नियम ही गिना दें तो मान लूं. (और मैं उस राम को भगवान मान ही नहीं पाती जिसने सीता पर यूं अविश्वास किया था)
मैं अपनी मां की ऋणी हूं जिसने मुझे हर तरह की, शास्त्रों से लेकर नए युग की कहानियां और गीत लोरी के बतौर सुनाए. रास्ता खुला रखा. मुझे नहीं समझ में आता कि राम के नाम भर से मेरे बच्चों में कौन-सी अच्छी आदतें आ जाएंगी सिवाय लकीर पीटने के.
हिन्दू धर्म यदि अपने सबसे स्वस्थ रूप में होता तो मेरे हिसाब से प्रदूषण फैलाना आज सबसे बड़ा पाप होता.
(ये कुछ अनुभव और विचार ही हैं. एक शुरुआत है. इच्छा भर है आज धर्म को सही परिभाषित करने की. लकीरी तोड़ने की. अभी आप सबकी तरफ से बहुत कुछ आना बाक़ी है. 'ट्रेन पर सवार...' पर आप सबकी टिप्पणियां, अनुभव, विचार बहुत सही लगे क्योंकि बिना किसी निजी हमले के, एक को छोड़कर, आपने अपनी बातें रखीं. एक अच्छी बहस की शुरुआत हुई यह ब्लोगिंग की शक्ति है.) आप सबसे निवेदन है कि आपके हिसाब से धर्म क्या है, आस्था क्या है ज़रूर बताएं. यहां टिप्पणी करें या अपने ब्लॉग पर लिखें. अपने ब्लॉग पर लिखें तो यहां टिप्पणी में लिंक ज़रूर छोड़ें. (यदि सारे ब्लॉगर लिख डालें तो कितनी बढ़िया सामग्री, शोध के लिए उपलब्ध हो जाएगी)

Wednesday 28 November, 2007

ट्रेन पर सवार धार्मिक आस्था के तीन ताज़ा चेहरे

ट्रेन मुंबई से दिल्ली की ओर सरपट भागी जा रही थी। किनारे की आमने-सामने वाली सीट पर 35-40 साल के दो मित्र बैठे थे। शायद किसी एक ही कंपनी के एक्ज़ीक्यूटिव थे। दोनों के पास लैपटॉप थे। करीब छह बजे एक ने सूटकेस से आधी बांह का गाढ़े मरून रंग का कुर्ता निकाला, जिस पर गायत्री मंत्र लाइन-दर-लाइन छपा हुआ था। मुझे लगा कि यकीनन ये महोदय काफी आस्तिक किस्म के होंगे। सात बजे अटेंडेंड पूछने आया कि किसी को रोस्टेड चिकन अलग से चाहिए तो गायत्री मंत्र कुर्ता-धारी महोदय ही इकलौते शख्स थे, जिन्होंने ऑर्डर किया। मैं थोड़ा चौंका। लेकिन मुझे झट एहसास हो गया कि हिंदू धर्म में कितना लचीलापन है और वह किसी के सिर पर चढ़कर नहीं बैठा।

मतलब साफ हो गया कि मांसाहारी होने और धार्मिक आस्तिक होने में कोई टकराव नहीं है। धर्म का वास्ता जहां आस्था है, वहीं मांसाहारी होना या न होना आपके संस्कार और संस्कृति से तय होता है।

इसी ट्रेन में उसी रात एक मुस्लिम परिवार भी सफर कर रहा था। दो भाई थे या पार्टनर। उनकी बीवियां और बेटियां थीं। शायद इनका मार्बल का धंधा था क्योंकि मोबाइल पर इसी तरह के ऑर्डर और माल सप्लाई की बातें कर रहे थे। बात-व्यवहार में दोनों और उनके परिजन बड़े भले लग रहे थे। वैसे तो मैं बचपन से ही मुसलमानों को दिल के बहुत करीब पाता रहा हूं। लेकिन इन दोनों ने ही अपने मोबाइल की रिंग अल्ला-हो-अकबर टाइप लगा रखी थी, जिसे सुनकर मुझे अच्छा नहीं लगा। मुझे उनसे चिढ़-सी हो गई और मैं कोटा में उनके उतर जाने की बाट जोहता रहा। एक बात और। मेरी उम्मीद के विपरीत इन लोगों ने वेजीटेरियन खाना ही ऑर्डर किया।

मेरे लिए यह नई अनुभूति थी। लेकिन एक सवाल मेरे जेहन में गूंजता रहा कि जब मुसलमानों के मुख्यधारा से कटे होने की बात की जा रही है, तब इस धर्म के अनुयायी बकरा-कट दाढ़ी या अल्ला-अल्ला की रिंगटोन रखकर क्यों अपने अलगाव को बनाए रखना चाहते हैं। वैसे मैं इस बात पर भी चौंका कि मुझे आरती की धुन, गायत्री मंत्र या महा-मृत्युंजय मंत्र को रिंगटोन बनाने पर ऐतराज़ क्यों नहीं होता?

हफ्ते भर बाद ट्रेन दिल्ली से मुंबई की ओर सरपट लौट रही थी। किनारे की खिड़की के पासवाली दोनों बर्थ 30-35 साल के मियां-बीवी की थी, जिनका एक सात-आठ महीने का बच्चा था। पति साहब ज़रूरत से ज्यादा ही मोटे थे। वजन डेढ़ सौ किलो से कम नहीं रहा होगा। लेकिन ऊपर से लेकर नीचे तक पूरा शरीर एकसार था। पेट निकला था, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं। गर्दन और सिर कहां मिलते थे, पता नहीं चलता था। पत्नी सामान्य कदकाठी की थी। लंबाई पति से कम थी। न बहुत मोटी थीं और न ही खास पतली। शक्ल से ही भक्तिन टाइप लग रही थीं। रात के दस बजे के आसपास मैंने पाया कि बच्चे के रोने के बाद उसे थपथपाने और हरे राम, हरे राम, हरी ओम, हरी ओम की आवाज़ आ रही है तो मैंने झांक कर देखा। महोदया अपने बच्चे को थपथपाकर सुला रही थीं और लोरी की जगह हरी ओम से लेकर राम, कृष्ण बोलने के जितने तरीके हो सकते थे, उसे गाती जा रही थीं।

मुझे लगा, धर्म किसी को कितना आच्छादित कर सकता है। लोरी की जगह रामनाम की टेर लगाना मुझे कहीं से भी इस युवा मां का स्वस्थ बर्ताव नहीं लगा। राम-राम सुनकर बढ़ते हुए इस बच्चे का मानस कल को क्या स्वरूप लेगा, मैं तो इसे सोचकर ही घबरा जाता हूं।

Tuesday 27 November, 2007

जीवन में घाघ और विचारों में आग! कैसे संभव है?

वाकई मुझे नहीं समझ में आता कि कोई ज़िंदगी में घनघोर अवसरवादी होते हुए विचारों में क्रांतिकारी कैसे रह सकता है? क्या जीवन और विचार एक दूसरे से इतने स्वतंत्र हैं? जहां तक मुझे पता है कि आप जैसा जीवन जी रहे होते हैं, ज़िंदगी में जिस-जिस तरह के समझौते कर रहे होते हैं, आपकी सोच और विचार उसी से तय होते हैं। आपकी जीवन स्थितियां आपके विचारों के सत्व का निर्धारण करती हैं। अपने यहां तो यहां तक कहा गया है कि आपके भोजन का भी असर आपके विचारों पर पड़ता है। धूमिल ने भी कहा था कि कांख भी ढंकी रहे और मुट्ठी भी तनी रहे, दोनों चीज़ें एक साथ नहीं हो सकतीं।

व्यक्तिगत स्तर पर बहुतेरे लोग जीवन में आगे बढ़ने के लिए मौकापरस्ती का सहारा लेते हैं। झूठ-फरेब और बड़बोलापन इनके खून में होता है। हमारी मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के अधिकांश नेताओं के लिए तो मुंह में राम, बगल में छूरी ही असली उसूल है। लेकिन ऐसे सारे लोग समाज के सामने बेनकाब हैं। उनकी असलियत से सभी वाकिफ हैं। वो औरों का इस्तेमाल करते हैं तो दूसरे अपनी काबिलियत भर उनका इस्तेमाल करते हैं। मगर मैं सार्वजनिक जीवन में सक्रिय ऐसे बहुत से नेताओं और पत्रकारों-बुद्धिजीवियों को जानता हूं जिन्होंने जीवन में हर तरह की जोड़तोड़ और टुच्चई करते हुए भी बेहद शातिराना ढंग से क्रांतिकारी होने का लबादा ओढ़ रखा है।

नक्सली होते हुए भी ये लोग अपनी बीवी को नौकरी दिलाने के लिए पुलिस अधिकारी का प्रशस्ति-गान करते हैं। अपनी बीवी को लार टपकाते मंत्रियों की शानदार घरेलू पार्टियों में ले जाते हैं। दस-बीस हज़ार रुपयों के लिए किसी भ्रष्टतम अफसर के साथ ठहाके लगाते हैं। काम करवाने के लिए अपनी जाति के बड़े नेता के दरबार में सलाम ठोंकते हैं। पत्रकारिता में ऊंचा ओहदा पाने के लिए बॉस के सुर में सुर मिलाकर गुर्राते हैं। अकर्मण्य होते हुए भी चाटुकारिता के बल पर करियर में ऊंचे उठते रहते हैं। काबिल और ईमानदार लोग उनकी आंखों की किरकिरी होते हैं।

वैसे तो ये बराबर सुसुप्तावस्था में रहते हैं। निजी स्वार्थ या पंथ के हित ही इनकी चिंतन प्रणाली को जगाते हैं। लेकिन मोदी, गोधरा, गुजरात और अब नंदीग्राम का नाम आते ही इनकी रगों में बहता परनाला अचानक उबाल खा जाता है। ये ढोल-तमाशा लेकर चीखने-चिल्लाने लगते हैं और साबित करने में जुट जाते हैं कि ये कितने बड़े क्रांतिकारी हैं। ये इसकी परख नहीं करते कि गुजरात में वो कौन से सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक और आर्थिक कारक हैं जिन्होंने मोदी के उभार को संभव बनाया है। बस, मुस्लिम असुरक्षा और हिंदू दंगाइयों के वीभत्स कारनामों का डंका बजाकर ये मोदी के ही एजेंडे की सेवा करते हैं।

नंदीग्राम पर शोर तो ये खूब मचा रहे हैं। जो इस पर नहीं बोल रहे हैं, उन पर ताने भी कस रहे हैं। लेकिन वाममोर्चा के बहुप्रचारित ऑपरेशन बर्गा की कलई नहीं उतारते। संविधान की उस खामी को उजागर नहीं करते जिसके तहत सरकार ‘सार्वजनिक उद्देश्य’ और Eminent Domain के नाम पर किसी की भी ज़मीन औने-पौने दामों पर हथिया सकती है। जब कुछ राजनीतिक पार्टियां शोर मचाती हैं कि कंपनियां एसईज़ेड के लिए सीधे किसानों से ज़मीन खरीदें, तब ये लोग यह सच नहीं बताते कि किसान को कृषि से भिन्न किसी काम के लिए अपनी ज़मीन को बेचने का अधिकार ही नहीं है। इनका साफ मकसद समस्या का तात्कालिक या दीर्घकालिक निदान नहीं होता। ये तो बस हल्ला मचाकर अपने क्रांतिकारी होने का ढिंढोरा पीटना चाहते हैं।

असल में ये लोग विचारों से गरीब और भावनाओं से बीमार हैं। जिस तरह ज्यादा नमक और मिर्च गरीबों की जरूरत बन जाती है और बीमारों को चटक खाना सुहाता है, उसी तरह इन्हें भी नंदीग्राम या गुजरात और मोदी की तल्खी की ज़रूरत पड़ती है। रोज़मर्रा के राजनीतिक-आर्थिक घटनाक्रमों से इनका स्नायुतंत्र इम्यून हो चुका होता है। क्रांतिकारी दिखना इनके जीवनयापन की ज़रूरी शर्त है। यह वो बैनर है, विजिटिंग कार्ड में निहित वो विशेषण है जिसके दम पर ये सामाजिक जीवन में मोलतोल करते हैं। वाकई भारतीय ठगों की परंपरा इक्कीसवीं सदी में आकर ऐसा रूप अख्तियार कर लेगी, ऐसा कोई सोच भी नहीं सकता था।

Monday 26 November, 2007

एक नग़मा था पहलू में बजता हुआ

ये तुम्हारी आंखें हैं या तकलीफ का उमड़ता हुआ समंदर, इस दुनिया को जितनी जल्दी हो बदल देना चाहिए। ये पंक्तियां हैं बच्चों जैसी निष्छल आंखों वाले उस अति संवेदनशील क्रातिकारी कवि गोरख पांडे की, जिन्होंने करीब दस साल पहले जेएनयू के एक हॉस्टल में पंखे से लटककर खुदकुशी कर ली थी। एक कवि जो दार्शनिक भी था और क्रांतिकारी आंदोलनों से भी जुड़ा था, इस तरह जिसने ज्ञान और व्यवहार का फासला काफी हद तक मिटा लिया था, वह आत्मघाती अलगाव का शिकार कैसे हो गया? यह सवाल मुझे मथता रहा है। मैं देवरिया ज़िले के एक गांव में पैदा हुए गोरख पांडे की पूरी यात्रा को समझना चाहता हूं। इसी सिलसिले में उनकी एक कविता पेश कर रहा हूं, जो उन्होंने तब लिखी थी जब वे बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में पढ़ा करते थे। कई महीनों से हाथ-पैर मारने के बाद मुझे यह कविता दिल्ली में एक मित्र से मिली है।

एक झीना-सा परदा था, परदा उठा
सामने थी दरख्तों की लहराती हरियालियां
झील में चांद कश्ती चलाता हुआ
और खुशबू की बांहों में लिपटे हुए फूल ही फूल थे

फिर तो सलमों-सितारों की साड़ी पहन
गोरी परियां कहीं से उतरने लगीं
उनकी पाजेब झन-झन झनकने लगी
हम बहकने लगे

अपनी नज़रें नज़ारों में खोने लगीं
चांदनी उंगलियों के पोरों पे खुलने लगी
उनके होठ, अपने होठों में घुलने लगे
और पाजेब झन-झन झनकती रही
हम पीते रहे और बहकते रहे
जब तलक हल तरफ बेखुदी छा गई

हम न थे, तुम न थे
एक नग़मा था पहलू में बजता हुआ
एक दरिया था सहरा में उमड़ा हुआ
बेखुदी थी कि अपने में डूबी हुई

एक परदा था झीना-सा, परदा गिरा
और आंखें खुलीं...
खुद के सूखे हलक में कसक-सी उठी
प्यास ज़ोरों से महसूस होने लगी।

कौए न खुजलाई पांखें कई दिनों के बाद

पहले फ्लू, फिर दस दिनों की ज़रूरी यात्रा। लगता है इस बार मेरी ब्लॉग सक्रियता को कोई ग्रहण लग गया है। लौटते समय ट्रेन में रिजर्वेशन कनफर्म नहीं हुआ तो किसी तरह बैठकर या जमीन पर लुंगी बिछाकर रात काटनी पड़ी। कल दोपहर घर पहुंचते ही ब्लॉग पर लिखने की इच्छा थी, लेकिन थकान इतनी थी कि सोए तो बार-बार सोते ही रहे। आज ब्लॉग की हालत देखी तो बरबस बाबा नागार्जुन की वह कविता याद आ गई कि कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास। अकाल पर लिखी इसी कविता की आखिरी पंक्ति है : कौए ने खुजलाई पांखें कई दिनों के बाद।

तो मित्रों, आज से लिखना फिर से शुरू। ब्लॉग पर आपकी टिप्पणियां देखीं तो खुशी भी हुई और अफसोस भी। खुशी इस बात की कि आप लोगों को मेरा लिखा अच्छा लगता है और अफसोस इस बात का कि पूरे दस दिन तक मैं कुछ भी आपको नहीं दे सका। हालांकि यात्रा के दौरान इतनी सारी नई अनुभूतियों से टकराता रहा कि हर दिन दो-दो पोस्ट लिख सकता था। लेकिन एक तो निजी काम के लिए भागमभाग, ऊपर से लैपटॉप का न होना। इसके अलावा तीसरी बात यह है कि अभी तक ज्यादातर साइबर कैफे में विंडोज़ एक्सपी होने के बावजूद रीजनल लैंग्वेज में हिंदी को एक्टीवेट नहीं किया गया है। सो, तीन-चार जगह कोशिश करने पर जब हिंदी और यूनिकोड नहीं मिला तो चाहकर भी नहीं लिख सका।

लेकिन एक बात है कि सफर और दिल्ली प्रवास के दौरान इंसानी फितरत के बारे में काफी कुछ नया जानने का मौका मिला। कुछ मजबूरी और कुछ आदतन होटल में नहीं रुका। हिसाब यही रखा था कि जहां शाम हो जाएगी, वहीं जाकर किसी परिचित मित्र के यहां गिर जाएंगे। हालांकि कुछ मित्रों ने ऐसी मातृवत् छतरी तान ली कि कहीं और जगह रात को ठहरने ही नहीं दिया। फिर भी जिन तीन-चार परिवारों के साथ एकांतिक लमहे गुजारे, वहां से ऐसी अंतर्कथाएं मालूम पड़ीं कि दिल पसीज आया। लगा कि हर इंसान को कैसे-कैसे झंझावात झेलने पड़ते हैं और उसके तेज़ बवंडर में अपने पैर जमाए रखने के लिए कितनी जद्दोजहद करनी पड़ती है। कहीं-कहीं ऐसे भी किस्से सुनने को मिले, जिनसे पता चला कि दिल्ली के तथाकथित बुद्धिजीवी और क्रांतिक्रारी कितने ज्यादा पतित और अवसरवादी हो चुके हैं।

अपने तीन-चार कामों के लिए दिल्ली में इतनी भागदौड़ करनी पड़ी कि सृजन शिल्पी के अलावा किसी भी हिंदी ब्लॉगर से मिलना संभव नहीं हुआ। सृजन जी से भी आधे घंटे की भेंट हुई, वो भी इसलिए क्योंकि हम लोग एक साथ काम कर चुके थे और मैं याद नहीं कर पा रहा था कि इतना सुविचारित, प्रतिबद्ध और ईमानदार लेखन करनेवाले शख्स हैं कौन। खैर, ज़िंदगी सतत प्रवहमान है। ब्लॉग की दुनिया भी सतत बह रही है। दस दिनों तक मै लिख नहीं सका, इससे ज्यादा अफसोस इस बात का है कि मैं आप लोगों का लिखा हुआ पढ़ नहीं सका। जल्दी ही लैपटॉप ले लूंगा तो ये दिक्कत खत्म हो जाएगी।

Thursday 15 November, 2007

कुंडलिनी जगाने से कम नहीं है लिखना-पढ़ना

हम आखिर चाहते क्यों है कि हमारा लिखा हुआ हर कोई पढ़े? क्या हमारे पास चकमक की ऐसी चिनगारियां हैं जिनको पाकर दूसरे के ज्ञान-चक्षु खुल जाएंगे? तो क्या खुद हमारे ज्ञान-चक्षु खुले हुए हैं? हम में से ज्यादातर को शायद ऐसा ही लगता है। लेकिन ऐसा है भी और नहीं भी है क्योंकि हम में से हर किसी के पास ऐसा कुछ होता है जो दूसरों के पास या तो होता नहीं, या आपसी संवाद न होने के चलते किसी और के पास उसके होने का पता नहीं चलता। दोनों ही स्थितियों में अपनी बात कहना न तो कोई शेखी बघारना है और न ही आत्म-प्रदर्शन। असल में हमारे पास एक ही सत्य के बड़े नहीं, तो चिंदी-चिंदी अंश ज़रूर हैं। अगर हमें इन्हें दिखाने की बेचैनी है तो इससे यही साबित होता है कि हमारे समाज में संवादहीनता की स्थिति कितनी विकट हो गई है।

यकीनन, हम में से हर कोई एक हद तक आत्ममोह या सम्मोहन का शिकार होता है। हम कभी-कभी घरवालों और मित्रों से वही बात कहने लग जाते हैं जो पहले भी कई बार कह चुके होते हैं। लेकिन इससे भी संवादहीनता की ही स्थिति की पुष्टि होती है। ब्लॉग पर लिखना आज आपसी संवाद कायम करने का एक ज़रिया बन गया है। यह लिखना जितना ज्यादा बढ़ेगा, संवाद की स्थिति उतनी ही बढ़ती जाएगी। संवाद जितना बढ़ेगा, आत्म-सम्मोहन की स्थिति उतनी ही जर्जर होगी और एक कालखंड व देश-समाज में रहते हम सभी लोग किसी समान सत्य के करीब पहुंचते जाएंगे।

असल में हम पूरी जिंदगी संवेदनाओं और अनुभूतियों के अलग-अलग ऑरबिट/चक्रव्यूह से गुजरते रहते हैं। हर मंजिल पर चक्रव्यूह के सात नहीं, अनेक द्वार होते हैं। जैसे ही एक व्यूह के सारे द्वार तोड़कर हम कामयाब होने का उल्लास मना रहे होते हैं, तभी अचानक दूसरा चक्रव्यूह सामने आकर खड़ा हो जाता है। यह कुछ वैसा ही है जैसा हमारे योग-विज्ञान में कुंडलिनी को जाग्रत करने के बारे में कहा गया है। मूलाधार से सहस्रार चक्र तक की यात्रा में कुंडलिनी को सात से नौ चक्र तोड़ने होते हैं। तब कहीं जाकर खुलता है ज्ञान-चक्षु और खिलता है सहस्र दलों वाला कमल। वैसे, इस तुलना को हमारे संजय भाई ज्यादा अच्छी तरह व्याख्यायित कर सकते हैं।

लेकिन अक्सर ऐसा भी होता है कि हमारे कई मित्र इस अनंत यात्रा के दौरान कहीं बीच में ही ठहर जाते हैं। वो पूरे ‘कॉमरेड’ बन जाते हैं। उन्हें लगता है कि उन्होंने अपने अंदर ज्ञान का इतना भंडारण कर लिया है कि अब उन्हें बस इसे फू-फू करके उड़ाना भर है। उनके पास सारे सवालों के जवाब हैं। दूसरे जब उनकी बात नहीं समझते तो उन्हें लगता है कि जनता इतनी नासमझ है तो हम क्या, कोई भी इसका कुछ नहीं कर सकता। अपने अंदर आते इसी ठहराव को निरंतर तोड़ने की ज़रूरत पड़ती है। बराबर आत्म-निरीक्षण और आत्मालोचना के साथ ही खुद को औरों के आइने में परखने की ज़रूरत होती है।

हां, इतना ज़रूर है कि योगियों की तरह अंदर पैठने से हम सच तक कभी नहीं पहुंच सकते, सच के नाम पर भ्रम का चोंगा ज़रूर ओढ़ सकते हैं। हम जितना बाहर जाएंगे, उतना ही अपने अंदर पहुंचेंगे क्योंकि बाहर का हर बदलाव हमारे अंदर की दुनिया को छेड़ता है, कुछ नए तथ्य पैदा करता है तो कई पुराने सत्य उद्घाटित करता है। जो कुछ बाहर है, वही हमारे अंदर है। हम जैसा सोचते हैं, दुनिया वैसी नहीं होती। बाहरी दुनिया से ही हमारा आंतरिक संसार बनता है। हम ज़माने से हैं। ज़माना हम से कतई नहीं है।

Wednesday 14 November, 2007

घरवाली को ही नहीं मिलता घर आधी ज़िंदगी

राजा जनक के दरबार में कोई विद्वान पहुंचे, योगी की जीवन-दृष्टि का ज्ञान पाने। जनक ने भरपूर स्वागत करके उन्हें अपने अतिथिगृह में ठहरा दिया और कहा कि रात्रि-भोज आप मेरे साथ ही करेंगे। भोज में नाना प्रकार के व्यंजन परोसे गए, लेकिन विद्वान महोदय के ठीक सिर पर बेहद पतले धागे से लटकती एक धारदार तलवार लटका दी गई, जिसके गिरने से उनकी मृत्यु सुनिश्चित थी। जनक ने भोजन लेकर डकार भरी तो विद्वान महोदय भी उठ खड़े हुए। राजा जनक ने पूछा – कैसा था व्यंजनों का स्वाद। विद्वान हाथ जोड़कर बोले – राजन, क्षमा कीजिएगा। जब लगातार मृत्यु आपके सिर पर लटकी हो तो किसी को व्यंजनों का स्वाद कैसे मालूम पड़ सकता है? महायोगी जनक ने कहा – यही है योगी की जीवन-दृष्टि।

आज भारत में ज्यादातर लड़कियां अपने घर को लेकर ‘योगी की यही जीवन-दृष्टि’ जीने को अभिशप्त हैं। जन्म से ही तय रहता है कि मां-बाप का घर उनका अपना नहीं है। शादी के बाद जहां उनकी डोली जाएगी, वही उनका घर होगा। लड़की सयानी होने पर घर सजाने लगती है तो मां प्यार से ही सही, ताना देती है कि पराया घर क्या सजा रही हो, पति के घर जाना तो अपना घर सजाना। बेटी मायूस हो जाती है और मजबूरन पति और नए घर के सपने संजोने लगती है। मां-बाप विदा करके उसे ससुराल भेजते हैं तो कहा जाता है – बेटी जिस घर में तुम्हारी डोली जा रही है, वहां से अरथी पर ही वापस निकलना।

लड़की ससुराल पहुंचती है, जहां सभी पराए होते हैं। केवल पति ही उसे अपना समझता है, लेकिन वह भी उसे उतना अपना नहीं मानता, जितना अपनी मां, बहनों या घर के बाकी सदस्यों को। भली सास भले ही कहे कि वह उसकी बेटी समान है, लेकिन विवाद की स्थिति में वह हमेशा अपनी असली बेटियों का पक्ष लेती है। जब तक सास-ससुर जिंदा रहते हैं, लड़की ससुराल को पूरी तरह अपना घर नहीं समझ पाती। अगर वह पति को किसी तरह वश में करके अलग घर बसाने को राज़ी कर लेती है तो दुनिया-समाज के लोग कहते हैं कि देखो, कुलच्छिनी ने आते ही घर को तोड़ डाला।

वैसे, पिछले 20-25 सालों में हालात काफी बदल चुके हैं। संयुक्त परिवार का ज़माना कमोबेश जा चुका है और न्यूक्लियर फेमिली अब ज्यादा चलन में हैं। लेकिन पुरुष अभी तक मां के पल्लू में ही शरण लेता है। ज्यादातर मां और घरवालों की ही तरफदारी करता है। लड़की यहां भी एकाकीपन का शिकार हो जाती है। जब तक बच्चे नहीं होते, तब तक पति से होनेवाले झगड़ों के केंद्र में ज्यादातर मां या बहनों की ख्वाहिशें ही होती हैं। बच्चे हो जाते हैं, तब यह स्थिति धीरे-धीरे बदलने लगती है। उसे निक्की-टिंकू की मम्मी कहा जाने लगता है। लेकिन तब तक लड़की की आधी ज़िंदगी बीत चुकी होती है। वह 35-40 साल की हो चुकी होती है।

सब कुछ ठीक रहा तो अब जाकर शुरू होती है अम्मा बन चुकी भारत की आम लड़की की अपने घर के सपने को पाने की मंजिल। कभी-कभी सोचता हूं कि ऐसा अभी कब तक चलता रहेगा क्योंकि विदेशों में तो यह सिलसिला बहुत पहले खत्म हो चुका है। वहां तो लड़की अपने पैरों पर खड़ा होने के पहले ही दिन से अपना घर बनाने लगती है। शादी करती है अपने दम पर और अपनी मर्जी से। पति के साथ घर बनाती है तो हर चीज़ में बराबर की साझीदार होती है। शादी टूटती है तो जाहिर है घर भी टूटता है। लेकिन वह अपने सपने, अपनी चीज़ें लेकर अलग हो जाती है। घर ही नहीं, अकेली माएं बड़े गर्व से अपने बच्चे भी सपनों की तरह पालती है।

Tuesday 13 November, 2007

समय जब सचमुच ठहर जाता है

बहुत पुरानी बात है। राजा कुकुद्मी की एक बेइंतिहा खूबसूरत कन्या थी, जिसका नाम था रेवती। रेवती से शादी करनेवालों की लाइन लगी हुई थी। लेकिन राजा की चिंता यह थी कि रेवती के लिए उपयुक्त वर कैसे चुना जाए। राजा अपनी यह चिंता लेकर रेवती के साथ ब्रह्मलोक में सृष्टि-रचयिता ब्रह्मा तक जा पहुंचे। ब्रह्मा उस वक्त किसी काम में फंसे हुए थे। उन्होंने राजा से ‘एक पल’ इंतज़ार करने को कहा। ब्रह्मा जब काम खत्म करके आए तो राजा कुकुद्मी ने अपनी समस्या बयां की। इस पर ब्रह्मा हंसकर बोले – इंतज़ार के इन चंद पलों में तो धरती पर कई युग बीत चुके होंगे और इस दरम्यान रेवती के उपयुक्त वर मरखप चुके होंगे। उन्होंने राजा कुकुद्मी को सलाह दी कि वे धरती पर वापस जाएं और रेवती का विवाह कृष्ण के बड़े भाई बलराम से कर दें।

इस पौराणिक कथा और ब्लैक-होल की अवधारणा में गज़ब की समानता है। कैसे, इसे समझने के लिए पहले जानते हैं कि ब्लैक-होल कहते किसे हैं। ब्लैक-होल ऐसा सघन ठोस पिंड है, जिसका गुरुत्वाकर्षण बल प्रकाश को भी अपनी सतह से पार नहीं होने देता। किसी पिंड का गुरुत्व बल इससे नापा जाता है कि किसी वस्तु को उसकी सतह से ऊपर फेंकना कितना कठिन है। आइए, ब्लैक-होल और धरती की तुलना करते हैं। अगर कोई खिलाड़ी फुटबॉल को हवा में उछालता है तो वह धरती के गुरुत्व बल के चलते नीचे आ गिरती है। वह जितनी ज़ोर से मारता है, फुटबॉल उतना ऊपर तक जाती है, लेकिन आखिरकार नीचे ही आ गिरती है। क्या गति की ऐसी कोई सीमा है जिसके बाद बॉल उड़ती ही जाएगी और लौटकर नीचे नहीं आएगी?

बारहवीं क्लास का गणित भी इसका जवाब दे देता है कि अगर 11 किलोमीटर प्रति सेकंड से ज्यादा रफ्तार से बॉल को फेंका जाए तो ऐसा संभव है। वैसे, इतनी गति से फुटबॉल को उछालना पेले और बेखम के भी वश की बात नहीं है। अंतरिक्ष-यान ऐसी ही गति से धरती से बाहर भेजे जाते हैं। उनकी इस गति को पलायन गति कहते हैं और यह किसी पिंड के गुरुत्वाकर्षण बल से तय होती है। जैसे, सूरज पर पलायन गति 42 किलोमीटर प्रति सेकंड है। इसके विपरीत ब्लैक-होल पर पलायन गति, प्रकाश की गति यानी तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकंड मानी जाती है।

अगर धरती को दबाकर उसके एक चौथाई आकार का कर दिया जाए तो इस पर पलायन गति दो-गुनी हो जाएगी। धरती पर रहनेवालों का वजन सोलह गुना हो जाएगा। अगर धरती को और दबाते रहा जाए तो आखिकार यह ब्लैक-होल बन जाएगी और तब इसका व्यास होगा महज 18 मिलीमीटर। सूरज अगर ब्लैक-होल बनेगा तो उसका व्यास 14 लाख किलोमीटर से घटकर केवल छह किलोमीटर रह जाएगा। लेकिन ऐसा कभी होनेवाला नहीं है क्योंकि आंतरिक दबाओं के चलते न तो धरती और न ही सूरज के सिकुड़ते जाने की कोई गुंजाइश है। खगोलशास्त्रियों के मुताबिक वही पिंड ब्लैक-होल बन सकता है जिसमें सिर्फ और सिर्फ गुरुत्वाकर्षण बल हो और उसे लगातार सिकुड़ते जाने से रोकनेवाला कोई दबाव उसके भीतर काम न कर रहा हो। लेकिन अगर ऐसा कोई ब्लैक-होल मिल जाए तो उससे हम राजा कुकुद्मी और ब्रह्मा की कथा को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं।

मान लीजिए ए और बी काफी दूर पर बैठे दो प्रेक्षक हैं जो एक दूसरे को देख नहीं सकते, लेकिन प्रकाश के सिग्नल भेजकर बराबर संपर्क में हैं। इनमें से बी ऐसे पिंड पर बैठा है जो लगातार सिकुड रहा है। दोनों में तय होता है कि वे हर मिनट पर एक-दूसरे को सिग्नल भेजेंगे। शुरुआत में सब कुछ मज़े से चलता रहता है। लेकिन वक्त गुजरने के साथ ए को पता चलेगा कि बी से उसे हर मिनट पर सिग्नल नहीं मिल रहे हैं। धीरे-धीरे बी के सिग्नलों का अंतराल घंटे, दिन और महीने तक जा पहुंचता है। फिर एक दिन ऐसा आ जाएगा जब ए का इंतज़ार इतना बढ़ जाएगा कि वह बी से किसी सिग्नल के आने की उम्मीद ही छोड़ देगा।

इस रहस्य की गुत्थी को हम आइंस्टाइन के आम सापेक्षता सिद्धांत से सुलझा सकते हैं। इस सिद्धांत के मुताबिक जब भी किसी क्षेत्र में गुरुत्वाकर्षण बल बढ़ता है तो वहां समय का प्रवाह धीमा पड़ जाता है। बी के पिंड के सिकुड़ते जाने से उसकी घड़ी लगातार ए की घड़ी से धीमी पड़ती चली जाती है। होता यह है कि बी तो एकदम नियम से अपनी घड़ी के हिसाब से हर मिनट पर ए को सिग्नल भेजता है, लेकिन ए के लिए यह अंतराल मिनट से ज्यादा होता चला जाता है। इस प्रभाव को समय-विस्तारण या वितनन (Time-dilatation) कहते हैं। जब वह पिंड ब्लैक-होल बन जाता है तो समय-वितनन अनंत पर पहुंच जाता है और बी का समय एकदम ठहर जाता है जिसका पता बी को नहीं, ए को चलता है।

इसलिए कहा जा सकता है कि ब्रह्मलोक ब्लैक-होल बनने की कगार पर पहुंच चुका था और राजा कुकुद्मी को समय-वितनन के फेर में पड़ना पड़ा था। वैसे हम में से बहुतों के लिए ब्लैक-होल अब भी बहुत दूर की कौड़ी हैं। लेकिन समय कैसे ठहर जाता है, इसका एहसास तो हम अपने सरकारी दफ्तरों के सूरतेहाल को देखकर कर ही सकते हैं।
- जयंत नारलीकर का टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित लेख

Monday 12 November, 2007

रुकावट के लिए खेद है



दोस्तों, दीपावली की रात से ही वाइरल फीवर से जकड़ा हुआ हूं। सोता हूं तो अनगिनत विचार दिमाग में बुलबुले की तरह फूटते हैं। रोज़ लिखने की आदत पड़ गई है तो सोते में भी लिखता रहता हूं। लेकिन शारीरिक स्थिति यह है कि कंप्यूटर पर बैठने की हिम्मत नहीं पड़ती। इसलिए पिछले कई दिनों से नया कुछ न दे पाने के लिए माफी चाहता हूं। ठीक होते ही फिर से खिटपिट शुरू हो जाएगी। धन्यवाद...

Friday 9 November, 2007

पटाखा फोड़ा तो देख लेना...

लगता है राष्ट्रपति प्रतिभा देवीसिंह पाटिल जी यही कह रही हैं। आज दिल्ली में दीपावली के मौके पर आम सभा के दौरान उनकी यह फोटो उतारी पीटीआई के फोटोग्राफर सुभाव शुक्ला ने।

Thursday 8 November, 2007

जीवन बायोलॉजिकल फैक्ट नहीं तो और क्या है?

सांप के केंचुल बदलने और आत्मा के शरीर बदलने को आप पुनर्जन्म कह सकते हैं। लेकिन मानस के लिए एक ही शरीर में आत्माओं का बदल जाना ही पुनर्जन्म है। इस समय वह तीसरे पुनर्जन्म से गुज़र रहा है। बाद के दो जन्मों की कथा कभी बाद में, अभी तो हम उसके पहले पुनर्जन्म की बात कर रहे हैं। वैसे, ज्ञानदत्त जी ने ठीक ही बताया कि मानस के साथ जो हुआ, वह किसी खास विचारधारा से जुड़े रहने पर ही नहीं, आस्था और विश्वास के किसी भी रूप से जुड़े रहने पर हो सकता है। आस्था या भरोसे के टूटने पर जो शून्य उपजता है, इंसान उसमें डूब जाता है।

हफ्ते-दस दिन में ही मानस के पैर ज़मीन पर सीधे पड़ने लगे। जीवन फिर ढर्रे पर चल निकला। इस बीच वह चिंतन-मनन से दो नतीजों पर पहुंचा। पहला, जीवन एक बायोलॉजिकल फैक्ट है। इसमें किसी को भी छेड़छाड़ करने की इज़ाजत नहीं दी जा सकती। यह शरीर जब तक और जिस हालत में जिंदा रहे, उसे ज़िंदा रहने देना चाहिए। और दूसरा, इंसान एक सामाजिक प्राणी है। उसके इर्दगिर्द के सामाजिक बंधन जैसे ही ढीले होते हैं, वह भयानक रिक्तता का एहसास करने लगता है। इसे मिटाने के लिए ज़रूरी है कि सामाजिक बंधनों को कसकर पुनर्स्थापित कर दिया जाए।

मानस के मन में अब किसी के लिए कोई कटुता नहीं बची थी। वह घर-परिवार से संबंधों को दुरुस्त करने और अतीत की टूटी-बिखरी कड़ियों को जोड़ने में जुट गया। घर जाकर सभी को अपने उत्तरदायित्व और ज़िम्मेदारी की भावना का यकीन दिलाया। वहां से लौटते हुए राजनीतिक काम वाले इलाके में गया ताकि साथी हरिद्वार के यहां से दो कार्टनों में रखी गई किताबें दिल्ली साथ ले आए। असल में मानस को किताबों से बड़ा मोह रहा है। हालांकि इलाहाबाद छोड़ते वक्त उसने जैसे-तैसे करके जुटाई गई सैकड़ों शानदार किताबें छात्र संगठन की लाइब्रेरी को दे दी थीं, जहां दो साल बाद उनके निशान भी ढूंढे नहीं मिले थे।

साथी हरिद्वार ने प्यार से बैठाया। हाल-चाल पूछा। लेकिन किताबें मांगने पर साफ कह दिया कि ये किताबें पार्टी की संपत्ति हैं और उसे नहीं दी जाएंगी, ऐसा ऊपर का आदेश है। मानस ने तर्क किया कि ये सभी किताबें तो अंग्रेज़ी में हैं, उन्हें यहां कौन पढ़ेगा। लेकिन अनुशासन के पक्के हरिद्वार ने साफ कह दिया कि ये किताबें आपने तब खरीदी थीं, जब आप होलटाइमर थे। इनमें पार्टी के सिम्पैथाइजर्स का पैसा लगा है। इसलिए पार्टी ने इन्हें जब्त कर लिया है। मानस के लिए यह छोटी, मगर गहरी चोट थी। क्या उसने पांच-छह साल तक जो मेहनत की थी, उसकी कीमत बस खाना-खुराकी तक सीमित थी? यह तो सरासर बेगार है! श्रम की ऐसी तौहीन तो पूंजीवाद भी नहीं करता।

वह खाली हाथ दिल्ली चला गया। लेकिन मन फिर भारी हो गया। खैर, उसने सिर झटक कर सोचा कि ये लोग अपने ही कर्मों से मरेंगे। वह तो इनके चंगुल से निकल चुका है। अब काहे का गिला-शिकवा। जीवन को बायोलॉजिकल फैक्ट मानकर वह धारा के साथ बहने लगा। सामाजिक बंधनों में बंधने के लिए उसने मां-बाप के कहने पर एक लड़की से शादी कर ली। शादी से पहले उसकी फोटो तक नहीं देखी। दोस्तों ने पूछा तो कहा – जिंदगी जुआ है और इसमें हारने-जीतने का अपना मज़ा है। फिर, हर लड़की गीली मिट्टी की तरह होती है, जिसे वह जैसा चाहे वैसा ढाल सकता है।

उसकी ज़िंदगी में एडवेंचर की वापसी हो चुकी थी। नौकरियों में भी उसने जमकर रिस्क लिया। दो साल में नौ नौकरियां बदलीं। मौके इतने मिलते रहे कि खुद को खुदा का राजकुमार मानने लगा। पत्रकार होने के नाते कई बार दलाल बनने के अवसर भी आए, लेकिन उसने पाया कि वह अगर चाहे भी तो नेता बन सकता है, पर किसी नेता का दलाल नहीं। परिवार और करियर में उतार-चढ़ाव आते रहे। उसे यह भी इलहाम हुआ कि इंसान क्या है, इसका निर्धारण इससे होता है कि आप कौन-सी नौकरी कर रहे हैं और आपने शादी किससे की है।

साल दर साल बीतते गए। देश में ग्लोबलाइजेशन का दौर चल निकला। दुनिया में एक बैरल कच्चे तेल का दाम 16 डॉलर से 100 डॉलर पर जा पहुंचा। क्रांतिकारी पार्टी भूमिगत ढांचे से खुले में आ गई। कहीं-कहीं उसने पुरानी स्थापित कम्युनिस्ट पार्टियों और उनके जनसंगठनों को तगडी़ टक्कर दी। लेकिन कुल मिलाकर उसके जनाधार में खास फर्क नहीं पड़ा है। नेता अब किसी सिम्पैथाइजर के घर में शेल्टर लेने के बजाय दफ्तरों में रहने लगे हैं। लेकिन ऊपर से देखने पर यही लगता है कि पौधे ज़मीन से नहीं, आसमान से अपनी खुराक खींचते हैं। विष्णु जी पार्टी के केंद्रीय दफ्तर में रोजमर्रा का काम देखते हैं। वर्मा जी दूसरे राज्य में पार्टी के प्रवक्ता हो गए हैं।

इस दौरान दुर्भाग्य ने मानस को कई बार जमींदोज़ किया। लेकिन वह धूल छाड़कर फिर खड़ा हो गया। हादसे तो उसकी ज़िंदगी में ऐसे आए जैसे नियति ने उसे प्रयोग की वस्तु बना लिया हो। धीरे-धीरे नरम-गरम की आदत पड़ गई तो देश और समाज के प्रति उसका समर्पण फिर ज़ोर मारने लगा। वह विचार और कर्म में एकता बनाने की जद्दोजहद में लगा ही था कि एक दिन पार्टी के कुछ स्वनामधन्य प्रवक्ताओं और जीवन की ऊष्मा से रहित बुद्धिजीवियों ने उसे भगोड़ा, लालची, अवसरवादी और विचारों का हत्यारा करार दिया।

वह सोच में पड़ गया कि अनिश्चय के भरी ज़िंदगी में निहत्थे कूद पड़ना अवसरवाद है या आम हिंदुस्तानियों की कम्युनिस्ट आस्था और पुराने परिचय को भुनाकर नगरों-महानगरों की चौहद्दी में अपनी खोली चलाते रहना अवसरवाद है? अरे, क्रांति किसी पार्टी की जागीर नहीं होती। नेता और क्रांतिकारी किसी देश के सामाजिक-राजनीतिक जीवन की प्रयोगशाला में तैयार होते हैं। पार्टी की कार्यशालाएं तो अंध-अनुयायी, ढिंढोरची और कैडर ही तैयार करती हैं। ...इति

ईशर आवैं, दलिद्दर जाएं... सुख-समृद्धि का त्योहार दीवापली मुबारक हो!

ज़िद्दी ज़िंदगी को मंजूर नहीं थी मानस की मौत

मेरी दिल्ली, मेरी शान। दिल्ली दिलवालों की। ऐसे ही कुछ नारे और ख्याल लेकर मानस दिल्ली पहुंचा था। दोस्तों ने आने से पहले चेताया था कि संभल कर आना, कहीं गोरख पांडे जैसा हाल न हो जाए। जवाब में उसने कहा था कि न तो वह इतना इमोशनल है और न ही इतना बच्चा। दिल्ली पहुंचने पर सदानंद का सहारा मिला। घनश्याम की घनिष्ठता मिली। काम भी जल्दी-जल्दी मिलता गया। कुछ महीनों में ही इन दो मित्रों की छत्रछाया में वह सेटल हो गया। उनके साथ ही उनके कमरे पर रहता था। सुबह 10 बजे काम पर निकलकर रात नौ बजे तक कमरे पर पहुंच जाता। दिल्ली में मुनीरका गांव के गंवई माहौल में ज़िंदगी चैन से कटने लगी।

लेकिन इस चैन में अक्सर उसे एक बेचैनी परेशान करती रहती। उसे लगता कि वह समय से आगे चलने की कोशिश में समय से काफी पीछे छूट गया है। अब उसे समय के साथ बहना है। समय और अपने बीच बन गए फासले को कवर करना है। इस जद्दोजहद में उसके अंदर धीरे-धीरे प्रतिकूलताओं से लड़ने का बुनियादी इंसानी जुनून वापस आ रहा था। लेकिन कभी-कभी उसे यह भी लगता कि उसने जनता के साथ गद्दारी की है।

एक दिन वह छत पर सो रहा था तो सपना आया कि कुरुक्षेत्र जैसा कोई मैदान है। सभी कटे-पिटे पड़े हैं। हर तरफ लाशों और घायलों का अंबार है। वह भागा जा रहा है। अचानक एक गढ्ढे में उसकी चप्पलें फंस गईं। नीचे देखा तो मिस्त्री ने उसका पैर पकड़ रखा था। पैर झड़कने पर भी मिस्त्री का हाथ नहीं छूटा क्योंकि वे तब तक दम तोड़ चुके थे। इसी बीच चाची ने पीछे से आकर उसे गढ्ढे में धकेल दिया और ठठाकर हंसने लगीं। मानस झटके से उठा तो पसीने से तर-ब-तर था। कृष्ण पक्ष की रात थी। सदानंद और घनश्याम नीचे कमरे में सो रहे थे। वह भी उठकर भीतर कमरे में चला गया।

ऐसे भावों में उठने-गिरने के बावजूद उसकी बाहरी ज़िंदगी का एक रूटीन बन गया। दोस्तों के साथ वह मंडी हाउस जाता। शनिवार-इतवार को नाटक देखता। सिरीफोर्ट ऑडीटोरियम में चुनिंदा फिल्में देखता। जेएनयू के मित्रों के बीच भी उठना-बैठना होता। दफ्तर में अपने काम और मेहनत की धाक जमा ली थी तो वहां भी औरों का पूरा सहयोग और प्यार मिलता। लेकिन रह-रहकर निरर्थकता का भाव भी उस पर छा जाता है। लगता इस तरह नौकरी करने, खाने और सोने का मतलब क्या है? इस बोध ने धीरे-धीरे एक बड़े शून्य की शक्ल अख्तियार कर ली, जिसमें न तो बाहर की कोई आवाज़ आती थी और न ही अंदर की कोई आवाज़ कहीं बाहर जाती थी।

और, उसने इसी शून्य में घुटते-घुटते एक दिन बडा़ ही निर्मम फैसला कर डाला। एक पुराने ‘बैरी’ ने ट्रैंक्विलाइजर की गोली का नाम बताते हुए कहा था कि अगर कोई बीस गोली खा ले तो दो घंटे में दुनिया से उड़न-छू हो जाएगा। उसने आठ पर्चियों पर डॉक्टरों के प्रिस्क्रिप्शन का Rx चिन्ह बनाया, हर पर्ची पर पांच गोली की मांग लिखी और आठ दुकानों से 40 गोलियां खरीद लीं। सदानंद और घनश्याम दफ्तर चले गए। उसने खूब मल-मलकर नहाया-धोया। एकदम साफ प्रेस किए कपड़े पहने। बाहर जाकर शुद्ध शाकाहारी भोजन किया। मीठा पत्ता, बाबा-120, कच्ची-पक्की सुपाड़ी, इलायची का पान खाया। (एक दोस्त ने बताया था कि स्वर्ग में सब कुछ मिलता है, लेकिन तंबाकू नहीं) पान खाते हुए कमरे पर आया। फर्श पर पहले चटाई, उस पर दरी और उस पर सफेद चादर बिछाई। इनके साथ ही नया खरीदा गया तकिया सिरहाने पर लगाया।

चार छोटे-छोटे ज़रूरी खत लिखे। अगल-बगल अगरबत्तियां जलाईं। 40 गोलियां खाईं। बाहर का दरवाजा अंदर से चिपकाकर सिटकनी खोल दी। रेडियो पर विविध भारती के गाने चालू किए और सेज पर आकर लेट गया। रेडियो का हर गाना लगता उसी के लिए बजाया जा रहा हो। गांव, घर, सीवान, गोरू-बछरू, भाई-बहन, अम्मा-बाबूजी सबकी याद सावन-भादों के बादलों की तरह आने लगी। आंखों से आंसू बरसने लगे। इसी बीच न जाने कब वह गहरी नींद में डूब गया। डूबते-डूबते उसे एहसास हुआ कि गोलियों ने अपना असर दिखा दिया है और अब वह सबको अलविदा कहकर मर रहा है। यह उसके 28वें जन्मदिन से चार दिन पहले की तारीख थी, 24 सितंबर 1989...

लेकिन ज़िंदगी भी कितनी जिद्दी है! उसने मानस की मौत को मंजूर नहीं किया। करीब 40 घंटे की गहरी नींद के बाद वह उठ बैठा। सदानंद और घनश्याम उसके पास खड़े थे। पहले तो उन्हें लगा था कि थककर आया होगा, सो गया होगा। लेकिन जब लगातार दो दिन घर लौटने पर उन्होंने मानस को एक ही मुद्रा में सोते देखा तो उनका माथा ठनकने लगा। फिर उन्होंने उसे पलटा तो देखा कि मुंह से झाग-सा निकला हुआ है। फौरन पानी छिड़का और झकझोरा तो मानस की आंख धीरे-धीरे खुल गई। घनश्याम ने पूछा कि बात क्या है तो उसने जेब से निकालकर चारों खत उनके हाथ में थमा दिए और खुद मुंह नीचे करके लेटा रहा।

घनश्याम और सदानंद में कुछ बातें हुईं और वे दफ्तर जाने का कार्यक्रम रद्द कर उसे फौरन डॉक्टर के पास ले गए। डॉक्टर ने कहा कि इतनी लंबी नींद हो जाने से गोलियों का असर अब खत्म हो चुका है। लेकिन दो-तीन तक इन्हें ठोस खाने से परहेज करना होगा, जूस वगैरह ही ज्यादा मुनासिब रहेगा। मानस घर आ गया। दोनों मित्र उसका ज्यादा ही ख्याल रखने लगे। इस दौरान कई दिन तक वह चलता तो उसके पैर कहीं के कहीं पड़ते। लगता जैसे कोई बछड़ा जन्म लेने के तुरंत बाद उठकर चलने की कोशिश कर रहा हो। हां, मानस का इसी जीवन में पहला पुनर्जन्म हो चुका था और अब वह नई व्याख्या के साथ ज़िंदगी जीने को तैयार था।

आगे है - कहानी खत्म, मगर ज़िंदगी चालू है

Wednesday 7 November, 2007

हो गया बगैर ओज़ोन परत की धरती जैसा हाल

ट्रेन मुकाम पर पहुंचते-पहुंचते करीब दो घंटे लेट हो गई। सूरज एकदम सिर के ऊपर आ चुका था। रेलवे स्टेशन से मुख्य सड़क और फिर बाज़ार तक की दूरी मानस ने मस्ती से टहलते हुए काटी। देखा तो सामने ही सुबराती चचा का इक्का उसके कस्बे को जाने के लिए खड़ा था। चचा ने साल भर पहले की मरियल घोड़ी को हटाकर अब नई सफेद रंग की हट्टी-कट्टी घोड़ी खरीद ली थी। मानस उनके इक्के में तब से सवारी करता रहा है, जब वो नौ साल का था। बाहर बोर्डिंग में पढता था, तब भी पिताजी ट्रेन पकड़वाने के लिए सुबराती के इक्के से ही आते थे।

सुबराती चचा ने मानस को देखते ही बुलाकर इक्के पर बैठा लिया। जल्दी ही आठ सवारियां पूरी हो गईं और सफेद घोड़ी अपनी मस्त दुलकी चाल से इक्के को मंजिल की तरफ ले चली। रास्ते भर सुबराती किस्से सुनाते रहे कि कैसे फलाने के लड़के पर जिन्नात सवार हो गए थे और लड़का घर से भाग गया। फिर गाज़ी मियां के यहां मन्नत मांगी, उनका करम हुआ तो वही लड़का दस साल बाद जवान होकर भागा-भागा घर आ गया। मानस को लग गया कि सुबराती चाचा उसके बारे में भी यही सोच रहे हैं। खैर, वह बस हां-हूं करता रहा। इक्का ठीक उसके घर के आगे रुका। मानस ने उन्हें भाड़े के आठ रुपए दिए, सलाम किया और घर के भीतर दाखिल हो गया।

मानस ने घरवालों को अंतिम तौर पर लौट आने का फैसला सुनाया तो बाबूजी ने कहा कि सब गुरुजी (शांतिकुंज के पंडित श्रीराम शर्मा) की कृपा से हुआ है तो अम्मा ने कहा कि उसने पीर-औलिया और साधुओं से जो मन्नत मांगी थी, यह उसका नतीजा है। यह भी कहा गया कि मानस के ऊपर बुरे ग्रहों का साया था, जिसके चलते वह घर से भागा और उनके हट जाने पर लौट आया है। हफ्ते भर बाद ही मां उसे भरतकुंड के आयुर्वेदिक डॉक्टर के पास ले गई, जो डॉक्टर कम और तांत्रिक ज्यादा थे। यह वही भरतकुंड है, जिसके बारे में माना जाता है कि भरत ने राम के वनवास चले जाने पर यहीं पर बारह साल तक तप किया था।

भरतकुंड में तय तिथि और समय पर तांत्रिक डॉक्टर मिश्रा जी मानस को एक खंडहरनुमा घर के तहखाने में ले गए। वहां की काली दीवारों के बीच एक हवनकुंड बना हुआ था। तांत्रिक अनुष्ठान शाम को करीब छह बजे शुरू हुआ। बीच में मानस की चुटिया वाली जगह के थोड़े से बाल कैंची से काटे गए। साथ ही हाथ-पैर की सभी उंगलियों के नाखून काटे गए। करीब दो घंटे तक दीए की रौशनी में हवन और पूजा की गई। इसके बाद मिश्रा जी ने उसे एक ताबीज़ बनाकर दी, जिसे गुरुवार को गाय के ताज़ा दूध में डुबाकर एक खास मंत्र पढ़ने के बाद दाहिनी भुजा पर बांधना था।

मानस ने यह सब मां की तसल्ली के लिए किया। वापस बनारस भाई के पास पहुंचने पर उसने ताबीज़ उतारकर किनारे रख दी। पिताजी चाहते थे कि वह सिविल सर्विसेज या पीसीएस की परीक्षा दे। लेकिन मानस का सीधा-सा तर्क था कि घोड़ा कितना भी तेज़ दौड़नेवाला हो, अभ्यास छूट जाने पर वह रेस नहीं जीत सकता। उसके पास एक ही साल और बचा है, इसलिए वह कितनी भी मेहनत कर ले, इन प्रतियोगी परीक्षाओं में कामयाब नहीं हो पाएगा। हां, गणित में वह पैदाइशी तेज़ है और उसकी अंग्रेजी से लेकर जनरल नॉलेज तक अच्छी है, इसलिए वह बैंकों में प्रोबेशनरी अफसर (पीओ) बनने की कोशिश करेगा।

सो उसने बीएचयू के ब्रोचा हॉस्टल में रहकर पीओ बनने की जोरदार तैयारी शुरू कर दी। सुबह उठने से लेकर सोने-खाने सबका एक टाइम-टेबल बना डाला। कुछ नए मित्र भी बनाए। लेकिन इस दौरान वह बड़ी भयानक मानसिक स्थिति से गुज़रता रहा। उसकी हालत वैसी हो गई थी, जैसी ओजोन परत के पूरी तरह खत्म हो जाने पर धरती की होगी। उसे लगता जैसे उसके शरीर की सारी खाल निकाल ली गई हो, जिसे धूल का एक कण भी तिलमिला कर रख देता है। खुले घाव पर मिट्टी के पड़ने या आंखों में जहरीला कीड़ा घुस जाने पर होनेवाली जलन और दर्द की कल्पना कर आप मानस की हालत को समझ सकते हैं।

इसी अवस्था में सोते-जागते सात महीने गुज़र गए। मानस ने इस दौरान पीओ की दो परीक्षाएं दीं, जिनमें सीटें तो कम थीं, लेकिन उसे चुन लिए जाने का पूरा भरोसा था। इसी बीच स्टेट बैंक के पीओ का विज्ञापन आया जिसमें 300 सीटें थीं और वह परीक्षा केंद्र के रूप में पटना या दिल्ली का चुनाव कर सकता था। मानस ने दिल्ली को चुना। भाई के पास से यह कहकर निकला कि वह दिल्ली में परीक्षा देकर वापस आ जाएगा। लेकिन उसका असली इरादा कुछ और था।

वह दिल्ली के लिए निकला। एक कंबल, कुछ किताबें और वही लुंगी, तौलिया और टूथब्रश लेकर। उसे पीओ की नौकरी नहीं करनी थी तो उसने स्टेट बैंक की परीक्षा दी ही नहीं। दिल्ली में पहले अनुवाद का काम किया। इसके बाद एक पत्रिका में तीन महीने नौकरी की और फिर एक नई पत्रिका में उसे अच्छी नौकरी मिल गई। तनख्वाह थी 1800 रुपए महीना। न तो उसने भाई को कोई पता-ठिकाना बताया, न घरवालों को खत लिखा। इस दौरान भाई एक बार दिल्ली आकर तीन दिन तक उसे ढूंढकर लौट गए। वो बताने आए थे कि पीओ की दोनों लिखित परीक्षाओं में वह चुन लिया गया है। लेकिन मानस तो दोबारा घर से भाग चुका था। फिर, एकदम अकेले किसी नए सफर पर निकल चुका था।

आगे है - एक दिन हो गया ब्लैक आउट

ऊल-जलूल कहानी, फ्रस्टेशन और खिन्न होते लोग

कुछ लोग मेरे मानस की कहानी से बहुत खिन्न हैं। एक तो जनमत ही है जिसने अभी तक बायीं तरफ के साइड बार में किन्हीं विनीत नाम के सज्जन की ललकार चस्पा कर रखी है, “वो कहां गया बाल विवाह का प्रेमी उसे ये वक्तव्य नहीं दिखता कौशल्या देवी का...उसका ब्लॉग देखा उसमें अब वो कथा चित्रण कर रहा है। पूरी तरह फ्रस्टेट हो चुका है...कुंठा में कहानी ही याद आती है वो भी ऊल-जलूल।”

इसके अलावा हमारे चंदू भाई भी काफी खिन्न हैं। उन्होंने कल की कड़ी और उस पर आई टिप्पणियों पर यह बेबाक टिप्पणी की है ....
प्यारे भाई, ये लोग अपने जीवन की सबसे लंबी मुहिम पर निकले एक आदमी के पराजित होने, टूट-बिखर जाने का किस्सा सुनकर इतने खुश क्यों हो रहे हैं? क्या जो बंदे अच्छे बच्चों की तरह पढ़ाई करके ऊंची-ऊंची पगार वाली नौकरियां करने चले जाते हैं, वे ही अब से लेकर सृष्टि की अंतिम घड़ी तक संसार की युवा पीढ़ी का आदर्श होने जा रहे हैं? उनके जैसे तो आप कभी भी हो सकते थे और कुछ साल इधर-उधर गुजार चुकने के बाद आज भी हो गए हैं। फिर क्या अफसोस, कैसा दुख, किस बात का पछतावा? क्या भंडाफोड़, किस पोल का खोल?
सीपीआई – एमएल (लिबरेशन) किस देश या प्रदेश की सत्ता संभालती है, या निकट भविष्य में संभालने जा रही है? इसके नेता चाहे कितने भी गंधौरे हों, भाजपा, राजद, कांग्रेस टाइप दलों का छोटा से छोटा नेता भी उनसे कहीं ज्यादा नुकसान इस देश और समाज को पहुंचाता है। इन्हीं हरामजादों के गुन गाने की नौकरी हमारे-आप जैसे मीडिया में काम करने वाले लोग दिन रात बजाते हैं, लेकिन आपके किस्से की तारीफ करने वाले लोगों का स्वर कुछ ऐसा है जैसे पहली बार उन्हें किसी असली राक्षस के दर्शन हुए हों।
मन बहुत खिन्न है। यदि संभव हो तो इस कटु वचन के लिए पहले की तरह एक बार फिर मुझे क्षमा करें- कहीं आपका यह लेखन ज्यादा से ज्यादा हिट्स के लालच में अपना टुंड दिखाकर लोकप्रियता की भीख मांगने जैसा तो नहीं है?

जाहिर है चंद्रभूषण जी की टिप्पणी से मेरे दिल को चोट पहुंची तो मैंने भी उनका जवाब लिख मारा....
चंदू जी, सवाल ऊंची-ऊंची पगार पानेवालों को आदर्श मानने का नहीं है। सवाल है, जो नौजवान समाज के लिए ज्यादा उपयोगी हो सकता था, उसे कुंठा में डुबोकर किसी काम का नहीं छोड़ने का है। इसे उत्पादक शक्तियों का बरबादी भी कहा जा सकता है।
और, जो पार्टियां पहले से एक्स्पोज्ड हैं, उनके बारे में किसी को भ्रम नहीं है। जिनको लेकर भ्रम है, उसे छांटना ज़रूरी है। टुटपुंजिया दुकानों को समाज बदलाव का साधन मानने का भ्रम आप पाले रखिए, मुझे अब इनको लेकर कोई गफलत नहीं है।
रही बात आपके खिन्न मन और टुंड दिखाकर लोकप्रियता की भीख मांगने के आरोप की, तो मैं साफ कर दूं कि मैं पार्टी में रहता तो आपके बहुत सारे प्रिय लोगों की तरह आज टुंड दिखाकर भीख ही मांग रहा होता। आज मैं अपनी मेहनत से सम्मान की ज़िंदगी जी रहा हूं।
और, मुझे हिट ही पाना होता तो महोदय मैं सेक्स बेचता, टूट कर बनते-बिगड़ते किसान पृष्ठभूमि से आए एक आम आदर्शवादी हिंदुस्तानी नौजवान की कहानी नहीं कह रहा होता। ज़रा अपने अंदर पैठकर परखने की कोशिश कीजिए कि आप खिन्न क्यों हो रहे हैं?

अपनी सीमित समझ से मैंने आरोप का जवाब पेश कर दिया। वैसे, यह कहानी भले ही किसी को ऊल-जलूल लगे और किसी को खिन्न करे, लेकिन मुझे तो इसे पूरा करना ही है। हालांकि, मानस की आगे की ज़िंदगी भी कई हादसों की गवाह रही है। लेकिन इस बार उसे बस एक मोड़ तक पहुंचा कर छोड़ देना है।

रिश्ता पब्लिक टॉयलेट और कोला की बिक्री का

नगरों-महानगरों में पब्लिक टॉयलेट और मर्दाना कमज़ोरी की दवाओं का रिश्ता तो मेरा देखा-पढ़ा है। पब्लिक टॉयलेट्स के ‘भित्ति-चित्र’ भी मैंने सालों से देखे-परखे हैं। लेकिन इस सार्वजनिक सुविधा और कोला की बिक्री में कोई सीधा रिश्ता है, इसका पता मुझे कल रमा बीजापुरकर के एक इंटरव्यू से चला। रमा बीजापुरकर बाज़ार की रणनीतिकार हैं। तमाम देशी-विदेशी कंपनियां अपने माल और सेवाओं के बारे में उनसे सलाह लेती हैं। सोमवार को ही उनकी नई किताब – We are like that only : Understanding the logic of consumer India बाज़ार में आई है, मुंबई में जिसका विमोचन खुद वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने किया।

बीजापुरकर भारत के बाज़ार की खासियत बताते हुए कहती हैं : कोला कंपनी का कोई मॉडल मेक्सिको में चल गया, पोलैंड में चल गया तो मान लिया जाता है कि वह भारत में भी कारगर होगा। लेकिन वह यहां नहीं चलेगा क्योंकि यहां पर्याप्त आउटडोर टॉयलेट नहीं हैं और लोग ज्यादा कोला नहीं पिएंगे। देश का जीडीपी बढ़ सकता है, लेकिन शायद आउटडोर टॉयलेट्स की संख्या नहीं।

मतलब साफ है कि भारतीय लोग ज्यादा कोला इसलिए नहीं पिएंगे क्योंकि इसके बाद उन्हें बार-बार मुतारी की सेवाएं लेनी पड़ेंगी। मुंबई से लेकर दिल्ली तक में पब्लिक टॉयलेट्स का जो इंतज़ाम है, उसे देखते हुए उन्हें या तो खुद को दबाकर रखना पड़ेगा या सार्वजनिक जगहों पर गंदगी करनी पड़ेगी जिसके लिए उन्हें मुंबई में पुलिस पकड़ सकती है और सबके सामने फजीहत करने के साथ ही उन पर जुर्माना भी लगा सकती है।

वाकई, बीजापुरकर की बुनियादी सोच और दृष्टि की दाद देनी पड़ेगी। अगर उनकी इस बात से सहमत होते हुए कोला कंपनियों ने सरकार पर दबाव बढ़ा दिया और उसके चलते शहरों में पब्लिक टॉयलेट्स की संख्या बढ़ा दी गई तो हम बीजापुरकर के बड़े आभारी होंगे। कोला तो हम जिस रफ्तार से पीते रहे हैं, उसी रफ्तार से पीते रहेंगे, लेकिन उसका साइड एफेक्ट निश्चित दूरी पर बने पब्लिक टॉयलेट्स के रूप में सामने आ जाएगा। क्या बात है!! हालांकि कोला में कीटनाशकों के पाए जाने पर एक कम्युनिस्ट सांसद और योगगुरु बाबा रामदेव ने भी बताया था कि इससे टॉयलेट बहुत अच्छा साफ होता, लेकिन न तो कंपनियों ने और न ही सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया।

साइड-बार में आधी दुनिया की दस्तक

दोस्तों, चिट्ठाजगत में पंजीकृत हिंदी ब्लॉगों की संख्या 1216 हो चुकी है। लेकिन इनमें से बमुश्किल 25 ब्लॉग ही महिलाओं के हैं। वैसे तो गांधी जी भी कहा करते थे कि हर पुरुष में एक स्त्री होती है और उनमें भी है। लेकिन संवेदनशीलता के मामले में पुरुष शायद महिलाओं का मुकाबला नहीं कर सकते। मैंने इस संवेदशीलता को दर्ज करने के लिए अपने साइड बार में अभी तक जिनका-जिनका मुझे पता चल सका, उन महिलाओं के ब्लॉगों की घूमती हुई सूची लगाई है। इसमें रसोई वाले ब्लॉग मैंने जान-बूझकर नहीं लगाए हैं। कोई महिला ब्लॉगर छूट रही हों, तो मुझे सूचित कर सकती हैं। मुझे लगता है कि हम सभी को अपने ब्लॉग रोल में हिंदी ब्लॉगिंग की पूरी की पूरी आधी दुनिया को जगह देनी चाहिए।
इस घूमते हुए ब्लॉगरोल के चमत्कार के लिए मैं सागरचंद नाहर जी का आभारी हूं।

Tuesday 6 November, 2007

दुखवा मैं कासे कहूं री मोरी सजनी

ऊपर से भले ही अलग-अलग दिखें, लेकिन साहित्यकार और धर्मगुरु एक ही श्रेणी के लोग होते हैं। ऐसी-ऐसी बातें कहकर चले जाते हैं जिन पर अमल करना मुमकिन ही नहीं होता। उनको तो बस प्रवचन देना होता है! मानस पुश्किन की लिखी बात याद करके मन ही मन यही सब बड़बड़ कर रहा था। वह अपनी समझ से पीछे लौटने के सारे पुलों को तोड़ कर निकला था। लेकिन आज उसे वहीं लौटना पड़ रहा है, जहां उसने इस जन्म में दोबारा लौटने की गुंजाइश खत्म कर दी थी। उसे एहसास हो गया है कि सफर हमेशा आगे ही नहीं बढ़ता। कभी-कभी आगे बढ़ने के लिए पीछे भी लौटना पड़ सकता है। इसलिए दुनियादारी का तकाज़ा यही है कि सारे पुलों को कभी नहीं तोड़ना चाहिए क्योंकि कभी-कभी लौटने की जरूरत भी पड़ सकती है।

दीपिका जब मानस से टकराकर खास औरताना अंदाज में बांहें झुलाती निकल गई, तब दोपहर के दो ही बजे थे। मानस के कस्बे के सबसे पास के स्टेशन चौरेबाज़ार के लिए अगली ट्रेन रात के करीब दस बजे जाती थी। लेकिन वह इससे नहीं, सुबह सवा चार बजे वाली ट्रेन से जाना चाहता था क्योंकि कम से कम 40 बार इस ट्रैक से गुजरे सफर को वो आखिरी बार सांस भरकर देखना और जीना चाहता था। खाना-वाना खाकर कई घंटे आवारागर्दी करता रहा। फिर करीब नौ बजे प्रयाग स्टेशन पहुंचकर वेटिंग एरिया में लुंगी बिछाई और झोले का तकिया बनाकर लेट गया। सुबह चार बजने का इंतज़ार करने लगा। पास में ही एक साधूबाबा घूंघट में ढंकी दो महिलाओं के साथ ‘मुफुत का सलीमा’ दिखा रहे थे, लेकिन वह अपने से ही आक्रांत था। इन दृश्यों में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी।

उस पर यही सच बहुत भारी गुज़र रहा था कि जिस शहर में उसने ज़िंदगी के बेहतरीन पांच-छह साल गुजारे हैं, जहां अब भी उसे जानने-पहचानने वाले 40-50 लोग हैं, उसी शहर में उसे स्टेशन पर रात बितानी पड़ रही है। लेकिन यह तो खुद उसी ने तय किया था। दिक्कत यह थी कि उसके बारे में इतनी सकारात्मक बातें फैल चुकी थीं कि वह इन लोगों को कोई उल्टी चीज़ बताकर न तो अपनी सफाई देना चाहता था और न ही उनकी दया का पात्र बनना चाहता था।

आंखों ही आंखों में सुबह हो गई। ट्रेन करीब 40 मिनट देरी से आई। यूं तो यूनिवर्सिटी के दिनों में बगैर टिकट चलना उसे काफी एडवेंचरस लगता था, लेकिन क्रांतिकारी पार्टी में इतने साल काम करने के बाद वह डरने लगा था। आज वह टिकट लेकर सफर कर रहा था। फाफामऊ के पास ट्रेन गंगा के पुल पर पहुंची तो उसे याद आ गया कि कैसे घर से आखिरी बार लौटने पर उसने इसी पुल से हाईस्कूल, इंटरमीडिएट और बीएससी के अपने सारे सर्टीफिकेट और मार्कशीट गंगा में बहा दी थीं ताकि वह लौटना भी चाहे तो घर से दफ्तर और दफ्तर से घर वाली ज़िंदगी को पाने के लिए वापस न लौट सके। लेकिन अब तो उसे इन सभी की ज़रूरत पड़ेगी।

उसकी हालत न खुदा ही मिला, न बिसाले सनम वाली हो गई थी। बेहद एकाकी हो गया था वह। कोई भी ऐसा नहीं था, जिससे वह अपनी पीर बांट सके। ट्रेन भारतीय रेल की रफ्तार से चली जा रही थी और खिड़की के पास वाली सीट पर बैठा वह पुरानी यादों में हिचकोले ले रहा था। पहला दृश्य। इलाहाबाद जिले का कोरांव इलाका, जहां वह एमएससी करने के दौरान आदिवासियों और दलितों के बीच राजनीतिक काम के लिए जाता था। आखिरी बार जीप में बैठकर निकला। पीछे-पीछे आवाज़ लगाता 20 साल का एक नौजवान रमाशंकर। मानस ने ड्राइवर को हाथ मारकर जीप रुकवाई। रमाशंकर हांफते-हांफते पास आए। मानस की हथेली में कुछ डालकर बोले – साथी इसे रख लीजिए। जीप चल पड़ी। मानस ने देखा, उसकी हथेली में दो रुपए के सात मुड़े-तुड़े पुराने नोट थे। भूमिहीन परिवार के जिस लड़के पास पढ़ने की फीस नहीं जुटती थी, उसने साथी को 14 रुपए की विदाई दी थी। सुदामा के चावलों की कीमत यकीनन इसके आगे कहीं नहीं ठहरती। इस याद से मानस का गला रुंध गया।

अगला दृश्य। गोंडा ज़िले के एक गांव में पार्टी की बैठक जिसमें राष्ट्रीय सम्मेलन के लिए प्रतिनिधियों का चुनाव किया जा रहा है। मानस ने भी बोलने के लिए अपना नाम दे रखा था। अनुभव से निकली बहुत सारी ठोस बातें थीं, कई सुझाव थे। उसने ये सारा कुछ अपने साथी इलाहाबादी छात्रनेता से शेयर किया। पहले बोलने का नंबर इन्हीं मेधावी छात्रनेता का आया। उन्होंने मानस की सारी बातें बहुत सलीके से, सिलसिलेवार तरीके से बैठक में रख दीं। मानस अपना नंबर आने पर कुछ नहीं बोला क्योंकि उसके पास अब बोलने के लिए कुछ बचा ही नहीं था। मेधावी छात्रनेता राष्ट्रीय सम्मेलन के लिए प्रतिनिधि चुन लिए गए। मानस को समझ में आ गया कि पार्टी किसी द्वीप पर नहीं बसी है। जो दुनिया बाहर है, वहीं इसके अंदर भी है। जो करियरिज्म बाहर है, वह त्यागियों से भरी क्रांतिकारी पार्टी के भीतर भी मौजूद है।

आगे है : मानस के लिए जीवन बन गया बायोलॉजिकल फैक्ट

इस ब्लॉग से बुढ़ापे की पेंशन तो मिलने से रही

शनिवार शाम को जब से अभय के यहां से लौटा हूं, मन बूड़ा-बूड़ा जा रहा है। अभी तक दसियों लोगों से ढिंढोरा पीट डाला था कि आप लोग बचत में लगे रहो, मैंने तो ब्लॉग बनाकर अपने बुढ़ापे की पेंशन का इंतज़ाम कर लिया है। दस साल बाद जब रिटायर हूंगा तब तक ब्लॉग से कम से कम 1000 डॉलर कमाने लगूंगा, यानी हर महीने करीब 40,000 रुपए बैंक खाते में आ जाएंगे। बुढ़ऊ को अपने लिए और कितना चाहिए होगा? बेटियां शादी करके अपने घर जा चुकी होंगी। मकान तब तक अपना हो चुका होगा। मेडिकल इंश्योरेंस अभी से कराकर रखेंगे। बूढ़ा-बूढ़ी नियम-धरम से स्वास्थ्य का पूरा ख्याल रखेंगे। शायद तब तक इंटरनेट भी मुफ्त हो चुका होगा। बुढ़ऊ मज़े से ब्लॉग पर डायरी लिखेंगे, अपना ‘ज्ञान’ और संस्मरण बांटेंगे। टाइम-पास का टाइम-पास और कमाई ऊपर से।

लेकिन अभय ने सारा भ्रम मिट्टी में मिलाय दिया। बोले – कम से कम दस हज़ार विजिटर रोज़ आने लगेंगे, तभी कमाई की बात सोची भी जा सकती है। मैंने इधर दो-दो पोस्ट लिखकर विजिटरों की संख्या बढ़ाकर 140-150 के औसत तक पहुंचा दी थी। लेकिन शनिवार के सत्य ने ऐसी मिट्टी पलीद की कि रविवार को मानस की कथा लिखने का मन ही नहीं हुआ। मित्र ने एक और भ्रम दूर किया कि जल्दी लिखने या दो-दो पोस्ट लिखने का कोई फायदा नहीं है क्योंकि वही पाठक (ब्लॉगर) सुबह भी आते हैं और शाम को मजबूरी में दूसरी पोस्ट भी पढ़ते हैं। इस तरह असल में पाठक तो बमुश्किल 50-75 ही होते हैं।

अब मैं फिक्रमंद हो गया। आज के हालात में मर-खप कर रोज़ के 500 विजिटर भी हासिल कर लूं, तब भी महीने में 100 डॉलर (4000 रुपए) नहीं आनेवाले। यानी इंटरनेट का खर्चा भी पूरा नहीं निकलेगा। यहीं पर विमल की बात भी याद आ गई। पिछले महीने नेट का उनका बिल 7000 रुपए तक जा पहुंचा तो अचानक घर से ब्लॉग लिखना और पढ़ना ही बंद कर दिया। अब बच्चू को समझ में आया कि पसंदीदा गाने सुनाने की क्या कीमत होती है!

मैं खुद को समझाने लगा कि बीबीसी हिंदी, दैनिक जागरण, अमर उजाला या भास्कर जैसी समाचारों की साइट पर तो दसियों हज़ार लोग रोज़ आते होंगे तो क्या हमें पांच हज़ार भी नहीं मिल सकते! फिर खुद ही इस भ्रम का निराकरण भी कर डाला कि उनके जितनी वेरायटी मैं कहां से लाऊंगा। ऊपर से उनके जितना अपने ब्लॉग का प्रचार करना कतई संभव नहीं है।

खैर, इसी निराशा के बीच मैंने कहीं से ढूंढ़ी गई टेक्स्ट लिंक ऐड की साइट पर अपने ब्लॉग का जूस निकालने और ऐड के रेड पकड़ने की कोशिश की। पता चला कि आज की तारीख में दस ऐड भी साइड बार में लगा दूं, तब भी 50 डॉलर ही मिलेंगे। मैंने कहा – चलो भागते भूत की लगोंटी ही सही। फटाफट इस साइड पर रजिस्ट्रेशन करा डाला। इसके बाद असली रेट आंका गया तो पता चला कि यहां से मुझे अभी फूटी कौड़ी भी नहीं मिल सकती। साइट ने मुझे अपनी एफिलिएट साइट पर ढकेल दिया जो ऐडसेंस जैसा ही नॉनसेंस परोसती है।

अब कोई मेरे ब्लॉग पर आएगा तो मेरा लिखा पढ़ ले, यही काफी है। ऐड पर कोई शायद ही कभी क्लिक करेगा? और जब कोई क्लिक ही नहीं करेगा तो ऐडसेंस या कोई दूसरा नॉनसेंस क्यों आपके खाते में जमाराशि को ज़ीरो डॉलर से ऊपर चहुंपने देगा!!! वैसे इतना लिखने के बाद भी मैं खुद को समझा रहा हूं कि नर हो, न निराश करो मन को।

Monday 5 November, 2007

क्या आप नचिकेत मोर को जानते हैं?

दो दिन पहले तक मैं भी 43 साल के इस नौजवान को नहीं जानता था। लेकिन जब से जाना है, तभी से सोच रहा हूं कि कैसे-कैसे अनोखे लोग इस दुनिया में भरे पड़े हैं। ज़रा सोचिए कि 20 साल तक दिन-रात एक कर आप करियर के उस मुकाम पर पहुंचे हैं जब कंपनी की सबसे बड़ी कुर्सी आपको मिलने ही वाली है, तब क्या आप कह पाएंगे कि नहीं, मुझे यह ओहदा नहीं चाहिए। मैं तो समाज सेवा करूंगा, बाकी ज़िंदगी विकास के कामों में लगाऊंगा। कम से कम अपने लिए तो मैं कह सकता हूं कि समाज की सेवा की इतनी ही चाह थी तो पहले तो मैं 20 साल नौकरी नहीं करता और अगर इतने लंबे समय तक नौकरी कर ही ली तो सबसे ऊपर की कुर्सी तक पहुंचकर उसे छोड़ता नहीं।

लेकिन नचिकेत मोर जब देश के सबसे बड़े निजी बैंक आईसीआईसीआई में एमडी और सीईओ के. वामन कामथ के स्पष्ट उत्तराधिकारी मान लिए गए थे, तभी उन्होंने इस दौड़ से खुद को पीछे खींच लिया। बैंक के चेयरमैन एन वाघुल ने अपने इस चहेते डिप्टी एमडी को समझाने की कोशिश की। लेकिन नचिकेत मोर ने उन्हें भी अपने फैसले का यकीन दिला दिया। फिर तय हुआ कि नचिकेत को अब आईसीआईसीआई ग्रुप के नए फाउंडेशन का प्रमुख बना दिया जाएगा, जहां से वे समाज-सेवा और विकास के कामों को अंजाम देते रहेंगे और बैंक के यांत्रिक कामों से खुद को मुक्त रखकर एक अर्थपूर्ण जिंदगी जिएंगे।

वैसे, बैंक के फाउंडेशन का प्रमुख बनाकर जिसको भी इस तरह की ‘अर्थ-पूर्ण’ ज़िंदगी जीने का मौका मिलेगा, उसके बारे में यही कहा जाएगा कि पांचों उंगलियां घी में और सिर कढ़ाई में। लेकिन 1.34 करोड़ रुपए के सालाना वेतन और बैंक के हज़ारों शेयरों के विकल्प को छोड़ना कतई सामान्य नहीं माना जा सकता। वह भी उस इंसान के लिए जो निम्न मध्यवर्गीय पृष्ठभूमि से आया हो। इस आधार से उठनेवाले लोगों में पैसे की बड़ी भूख होती है। लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि इन लोगों की अगर बुनियादी ज़रूरतें पूरी हो जाएं, सुरक्षित भविष्य का इंतज़ाम हो जाए तो इन्हें ज्यादा पैसा काटने लगता है। इनमें अजीब-सा वैराग्य समा जाता है।

नचिकेत मोर मुंबई के रहनेवाले हैं। 1985 में उन्होंने यहां के विल्सन कॉलेज से बीएससी पूरी की। फिर आईआईएम अहमदाबाद से मैनेजमेंट में पीजी डिप्लोमा किया। उसके बाद 1987 में ही आईसीआईआई बैंक से जुड़ गए। बीच में अमेरिका की पेनसिल्वानिया यूनिवर्सिटी से इकोनॉमिक्स में पीएचडी भी कर डाली। वो नौकरी करते हुए कुछ एनजीओ के साथ भी जुड़े रहे हैं। सोच भी उनकी एजीओ जैसी ही है। वह कहते हैं कि सामाजिक कामों में अक्सर लोग विचारधारा और दर्शन को लेकर उलझ जाते हैं। लेकिन असली मसला विचारधारा का नहीं, समस्याओं का सही समाधान निकालना है।

यहां एक प्रसंग का जिक्र कर देना उचित रहेगा। नचिकेत मोर हाल ही में योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिह आहलूवालिया के कहने पर बिहार के स्टडी टूर पर गए थे। मकसद था वित्तीय भागादारी का दायरा बढ़ाने के नए तरीकों का पता लगाना। वो अभी तक भारत की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था की छवि से अभिभूत थे। लेकिन बिहार की हकीकत देखकर वे दंग रह गए। उन्होंने पाया कि बिहार में प्रति व्यक्ति सालाना आय महज 5000 रुपए है और ग्रामीण इलाकों में लोगों को बैंक की किसी ब्रांच तक पहुंचने के लिए 20 से 30 किलोमीटर चलना पड़ता है। मोर ने वहां से अपने एक साथी को एसएमएस किया, “wire up the place, put in low cost ATMs, launch biometric cards to establish identity, help scale up micro-finance institutions.”

मोर का यह सुझाव यकीनन उनके तकनीकी और कॉरपोरेट ज्ञान की श्रेष्ठता को दिखाता है। लेकिन इससे यह भी साफ होता है कि ज़मीनी हकीकत की पूरी समझ उनको नहीं है। मुझे तो यही लगता है कि किसी भी देश या समाज के राजनीतिक अर्थशास्त्र को कायदे से समझे बिना विकास का काम अंजाम तक नहीं पहुंचाया जा सकता। नचिकेत मोर अगर केवल एटीएम और बायोमेट्रिक कार्ड बनवाने जैसे कामों से भारत के वंचित तबकों तक विकास का उजाला पहुंचाना चाहते हैं तो शायद एक बिंदु पर पहुंचने के बाद उन्हें फ्रस्टेशन का शिकार होना पड़ेगा। आपकी क्या राय है?

पुराने रास्तों ने आवाज़ दी – अमां, बैठो तो सही

मानस ने व्यवहार और सोच की समस्या को भावनाओं से हल किया। वह फौरन एक नए उत्साह से भर गया। लेकिन यह एक तात्कालिक समाधान था, इसकी पुष्टि तब हो गई जब वह बनारस होते हुए इलाहाबाद और फिर अपने घर जा रहा था। पहले बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के बॉटनी डिपार्टमेंट में रिसर्च कर रहे अपने बड़े भाई के कमरे पर गया। बड़े भाई को बहुत पहले से यकीन था कि वह जो कुछ अभी कर रहा है और आगे करेगा, अच्छा ही करेगा। इसलिए कई सालों बाद मिलने के बावजूद उससे ज्यादा सवाल नहीं किए। बस यूनिवर्सिटी गेट के सामने बसी लंका में ले गए और स्टुडियो में उसके कंधे पर हाथ रखकर एक फोटो खिंचवाई।

सुबह नाश्ता करके वह शहर में निकला कि पार्टी साथियों से मिलता-जुलता चले। वहां उसे पता चला कि पार्टी के एक बुजुर्ग नेता कुछ दिन पहले ही आए थे और डंके की चोट पर ऐलान करके गए थे कि मानस एक सामंती तत्व है। वह गरीब मल्लाह की एक लड़की की ज़िंदगी बरबाद करना चाहता है, लेकिन पार्टी कभी भी उसे इसकी इज़ाजत नहीं दे सकती। अगर कल को वह शादी करने के बाद उस लड़की को छोड़कर चला गया तो उस बेचारी का क्या होगा? मानस को लगा कि उसके त्याग का इससे बड़ा अपमान नहीं हो सकता। जिस रिश्ते को वह मध्यवर्गीय गलाज़त से मुक्त और अपने डि-क्लास होने का माध्यम बनाना चाहता था, उस रिश्ते की ऐसी तौहीन!!

मानस के अंदर तूफान-सा मच गया। कभी न गुस्सा होने वाले मानस की आंखें गुस्से से जलने लगी। किसी और से मिलने का कार्यक्रम रद्द कर वह सीधे भाई के पास गया। बताया कि वह नए सिरे से किसी नौकरी की तैयारी करना चाहता है और पूछा कि वह क्या उनके साथ रहकर ऐसा कर सकता है। मानस की उम्र दो महीने बाद 27 साल पूरी होनेवाली थी। भाई को ब्रोचा हॉस्टल में कोने का बड़ा-सा कमरा मिला हुआ था, जो असल में दो कमरों के बराबर था। उन्होंने कहा कि उन्हें इस पर रत्ती भर भी ऐतराज़ नहीं है और फिलहाल इतना स्टाइपेंड मिल रहा है कि खर्चे की भी कोई समस्या नहीं आएगी।

जिस दुनिया को वह हमेशा-हमेशा के लिए छोड़कर चला गया था, उस पराई दुनिया में पैर रखने का ठौर मिल जाने से मानस कुछ हद तक आश्वस्त हो गया। बस से बनारस से इलाहाबाद गया। फिर सिविल लाइंस के पास उतर कर पैदल ही प्रयाग संगीत समिति, हिंदुस्तानी एकेडमी और कंपनी बाग से होता हुआ यूनिवर्सिटी की साइंस फैकल्टी पहुंचा। सारे रास्ते इन जगहों पर गुजारे गए लम्हों को देखता रहा, बिसूरता रहा। विजयानगरम् हॉल के सामने म्योर टॉवर के पास वाले पार्क में करीब आधे घंटे बैठा रहा। हंसी-ठठ्ठे, स्टडी सर्किल के घेरे, पोस्टर चिपकाने की रातें, मैथ्य की क्लास में चुपके से आकर पिछली बेंच पर बैठ जाना... ऐसे तमाम दृश्य आंखों के आगे तैरने लगे। क्लास की सभी लड़कियों को दो कौड़ी का समझने की फितरत भी उसे याद आ गई। टॉपर लड़की की प्यार भरी मनुहार का बेरहमी से ठुकराना भी फ्लैश बनकर उसकी आंखों के सामने नाच गया। फिर सब ब्लैन्क होने लगा। लगा जैसे ब्लैक-आउट हो जाएगा।

वह बगैर कोई देर किए उठा और नया कटरा, पुराना कटरा से होते हुए लक्ष्मी चौराहे पर पहुंचा ही था कि छात्र संगठन की नेता और बीएससी में साथ पढ़नेवाली दीपिका टकरा गईं। वह भी पार्टी सदस्य थीं। उसे देखकर चौंकी। वहीं सड़क के किनारे बातचीत हुई। उसने बताया कि वह पार्टी छोड़ रहा है और अब घर जाकर जल्दी ही किसी गुड़िया टाइप लड़की से शादी रचाएगा। घर पर खेती-बारी इतनी है कि नौकरी की कोई ज़रूरत नहीं है। उसका सामंती आधार बड़ा पुख्ता है। उसने ये सारी बातें दीपिका के माध्यम से पार्टी को मुंह बिराने के लिए कही थीं। लेकिन दीपिका ने इसे फेस वैल्यू पर लिया और उसे सुंदर भविष्य के लिए शुभकामना देते हुए हाथ हिलाकर चली गईं।

उसके जाने के बाद वह चोट खाए नाग की तरह फुंफकारने लगा। उसे लगा, इतनी आसानी से अतीत पिंड नहीं छोड़नेवाला। लेकिन वह अतीत के इस खंड से निर्णायक जुदाई चाहता था। उसके दिमाग में रूसी लेखक पुश्किन की कहीं पढ़ी हुई लाइनें नाचने लगीं : जुदाई का हर क्षण संपूर्ण और अंतिम होना चाहिए। पीछे छोड़े हुए सभी स्मृति चिन्हों को मिटा देना चाहिए, पुलों को नष्ट कर देना चाहिए ताकि चाहकर भी किसी भी तरह की वापसी असंभव हो जाए।

आगे है - दुखवा मैं कासे कहूं री मोरी सजनी

Saturday 3 November, 2007

गिरकर बिखर गए पंख, पर हारा नहीं बालक

मानस के बारे में ज्ञानदत्त जी ने एकदम सही कहा कि वह एक आदर्शवादी चुगद था, an emotional fool… आजकल की नौजवान पीढ़ी में ऐसे चुगद ढूंढे नहीं मिलेंगे। खैर, ज़िंदगी है, चलती रहती है। तो... मानस ने पार्टी छोड़ी तो कोई पहाड़ टूटकर नहीं गिरा। दुनिया भी अपनी तरह चलती रही और पार्टी पर भी अंश के करोड़वें हिस्से के बराबर फर्क नहीं पड़ा। साथी यथावत अपने धंधे-पानी में लगे रहे। लेकिन विदा लेते वक्त उसे एक अद्भुत बात समझ में आई। वो यह कि औद्योगिक मजदूर एकदम निष्ठुर होते हैं, मध्यवर्ग के लोग हमेशा सामनेवाले को अपने से कमतर समझते हैं, उस पर फौरन दया करने के मूड में आ जाते हैं, जबकि किसान – चाहे वह भूमिवाला हो या भूमिहीन, बड़े ही भावुक होते हैं।

मानस ने किसी को यह नहीं बताया कि वह किन्हीं सैद्धांतिक वजहों से पार्टी छोड़ रहा है; फिर, पार्टी से कोई नीतिगत विरोध था ही नहीं तो बताता क्या? उसने सभी से यही कहा कि उसे घर की बहुत याद आती है। इसलिए उसके लिए आगे काम करना संभव नहीं है। हामिद भाई और दूसरे रेल मजदूरों ने इस बात को सुना और बगैर कोई तवज्जो दिए अपने काम में लग गए। शहर के साथियों ने सुना तो कहा कि अगर कोई समस्या थी तो आप हमें बताते। हम मिल-जुलकर सुलझा देते। कहते तो आपका नया परिवार बसा देते।

लेकिन भूमिहीन किसानों में थोड़ी मुश्किल हो गई। मानस ने धीरे-धीरे यही बताया कि देखिए आप सबका कोई न कोई है। मां-बाप, भाई-बहन, बीवी-बच्चे। मेरा यहां कोई नहीं। मैं तो पत्थर के भगवान जैसा बनकर रह गया हूं। हर कोई आकर अपनी मुश्किल सुनाता है, सुलझाता है और चला जाता है। मानस ने इस सधे हुए झूठ को भावनाओं की चासनी में डालकर पेश किया। रात के यही कोई दस बजे चुके होंगे। गरमी का महीना था तो सब खुले में ही बैठे थे। सबसे पहले मिस्त्री उठे। बोले – मेरे पेट में दर्द है और चले गए। फिर एक-एक सभी ऐसे ही सिरदर्द वगैरह का बहाना करके चले गए। बिशुनदेव आखिर तक रुके रहे। लेकिन उठते-उठते वो औरों की तरह दूर जाकर नहीं, वहीं मानस के सामने ही फफक पड़े। मानस रात भर उनकी भावनाओं और स्थितियों पर सोचता रहा।

सुबह करीब नौ बजे फिर सभी एक जगह आ गए। और उनके साथ थीं मिस्त्री की माई, जिन्हें वह चाची कहता था। चाची ने पूछा-पछोरा। मानस भी किसी मां को समझाने के अंदाज में जवाब देता गया। चाची बोली – ठीक है वहां तुम्हारी मां है, तुम्हारी याद करती है, तुम्हें उसकी सेवा करनी है। लेकिन अगर तुमने मेरी कोख से जन्म लिया होता तब भी क्या हमें इस तरह छोड़कर चले जाते। अरे तुम्हें तो हमने बेटा और साथी ही नहीं माना था, तुम्हें तो हमने अपनी हर चीज से बढ़कर माना। तुम्हारे ज़रिए तो हम अपनी मुक्ति के सपने देखने लगे थे। फिर चाची थोड़ी तल्ख हो गईं। बोली - तुम्हारे हाथ-पांव सलामत हैं। अगर नहीं होते तब भी क्या तुम यूं हमसे भागकर दूर चले जाते।

मानस भी चाची की इस तरह की उलाहना सुनकर विचलित हो गया। उसने सबके सामने ऐलान कर दिया कि वह उनके बीच से नहीं जा रहा है। बस कुछ दिनों के लिए घर जाएगा। मां को समझा-बुझाकर और दूसरे से दुआ-सलाम करके वापस आ जाएगा। सब के चेहरे खिल गए। चाची ने पास बुलाया। बगल में बैठाया। सिर पर हाथ फेरा। और फिर पल्लू से अपनी आंखों के बहते आंसुओं को साफ किया। उसी दिन मिस्त्री (वो असल में ट्रैक्टर मैकेनिक थे) मानस को बाज़ार ले गए और चमड़े का एक महंगा चप्पल खरीद कर वहीं दुकान में पहनवा दिया। हवाई चप्पल डिब्बे में रख ली और बाहर निकलने पर सड़क के किनारे झटके से फेंक दी।

समय बह रहा है, मानस चल रहा है

Friday 2 November, 2007

हम बहस करेंगे जमकर, पर खूंटा आप वहीं गाड़ें

“हम भारत-अमेरिका परमाणु संधि पर संसद में बहस के लिए तैयार हैं। लेकिन सरकार संसद में बहस के दौरान पेश किए गए विचारों को मानने के लिए संवैधानिक तौर पर बाध्य नहीं है।” यह बयान किसका हो सकता है? आप कहेंगे कि सरकार के ही किसी नुमाइंदे का होगा। या तो खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का या विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी या बहुत हुआ तो संसदीय कार्यमंत्री प्रियरंजन दासमुंशी का। लेकिन आश्चर्यजनक किंतु सत्य है कि यह वक्तव्य विपक्ष के नेता और बीजेपी के लौह पुरुष लालकृष्ण आडवाणी का है।

संसद का शीतसत्र 15 नवंबर से शुरू हो रहा है। इसमें सरकार परमाणु करार पर बहस कराने को तैयार है। लेकिन वह नहीं चाहती कि इसकी शर्तों में कोई भी तबदीली हो। पहले बीजेपी और लेफ्ट पार्टियां इसके लिए तैयार नहीं थीं। दोनों ही मानती हैं कि यह भारत के संप्रभु हितों के खिलाफ है। वैसे, बीजेपी ने शुरू में ही साफ कर दिया था कि वह संधि के खिलाफ ज़रूर है, पर अमेरिका के साथ सामरिक रिश्तों के पक्ष में है। इसी बीच अमेरिका की तरफ से जमकर लॉबीइंग हुई। 25 अक्टूबर को अमेरिका राजदूत डेविड मलफोर्ड आडवाणी से मिले और छह दिन बाद ही 31 अक्टूबर को विपक्ष के नेता ने संधि और सरकार को बचानेवाला उक्त बयान दे डाला।

इससे अमेरिकी लॉबी का असर और बीजेपी की ‘लोच-क्षमता’ स्पष्ट हो जाती है। जो बीजेपी इस परमाणु करार को भारत के संप्रभु हितों के खिलाफ मानती रही है, वही अब कह रही है कि वह इस पर संसद में इसलिए व्यापक बहस चाहती है ताकि देश के लोग जान सकें कि यह महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय संधि कैसे अमल में लाई जाएगी और इससे जुड़ी शर्तें क्या हैं। पहले वह इस संधि की छानबीन के लिए संयुक्त संसदीय समिति बनाने की मांग कर रही थी। लेकिन अमेरिकी प्रतिनिधियों से मिलने के बाद उसने यह मांग पूरी तरह छोड़ दी है।

मजे की बात यह कि लेफ्ट पार्टियां भी धीरे-धीरे संधि के विरोध का स्वर धीमा करती जा रही हैं। पहले वे चाहती थीं कि संसद पर इस पर बहस हो और साथ ही वोटिंग भी कराई जाए क्योंकि सांसदों का बहुमत इस करार के खिलाफ है। लेकिन आज ही सीपीएम के महासचिव प्रकाश करात ने कह दिया कि वे संसद के शीतसत्र में भारत-अमेरिका परमाणु संधि पर बहस ऐसे नियम के तहत चाहते हैं कि जिसके तहत वोटिंग कराने की बाध्यता न हो।

मुझे समझ में नहीं आता कि क्या संसद सिर्फ बहस कराने का अखाड़ा है। अगर इतनी महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय संधि पर संसद की राय का सरकार के फैसले पर कोई असर नहीं पड़नेवाला तो हमारे इन लॉ-मेकर्स का फायदा क्या है? इधर लेफ्ट ही नहीं, बीजेपी खेमे की तरफ से भी कहा जा रहा है कि इस संधि का भारत की बिजली जरूरतों और उसमें परमाणु बिजली के योगदान से खास कोई लेनादेना नहीं है। ऐसे में अगर संसद की बहस से साबित हो गया कि परमाणु बिजली का शिगूफा संधि की असली शर्तों पर परदा डालने के लिए किया जा रहा है, क्या तब भी सरकार संवैधानिक रूप से इसे मानने और संधि की शर्तों को बदलवाने के लिए बाध्य नहीं होगी? हमारे नेता विपक्ष लालकृष्ण आडवाणी तो ऐसा ही मानते हैं।

जिनको बनना था तारणहार, वही कन्नी काट गए

क्या कीजिएगा जो नौजवान वर्गीय प्रतिबद्धता के बिना केवल आदर्शवाद के तहत क्रांतिकारी राजनीति में आते हैं, उनका हश्र शायद वही होता है, जैसा मानस का हो रहा था। इलाहाबाद की मीटिंग से ‘झटका’ खाने के कुछ महीनों बाद उसके ही गांव से लगभग बीस किलोमीटर दूर के एक गांव में फिर साथियों का जमावड़ा हुआ। मानस वहां पहुंचा तो अचानक मां-बाप और परिवार की याद कुछ ज्यादा ही सताने लगी। आखिर छह साल हो चुके थे उसको घर छोड़े हुए। इस बीच अम्मा-बाबूजी इलाहाबाद में उसके हॉस्टल तक जाकर पता लगा आए थे। कमरे में बक्सा, अटैची, सारी किताब-कॉपियां और दूसरे सामानों को जस का तस पाने पर उन्हें लगा कि किसी ने मानस ने मार-वार कर कहीं फेंक दिया होगा। खैर, किसी तरह दिल को तसल्ली देकर उसका सारा सामान लेकर वे वापस लौट गए थे।

बड़ी अजीब रात थी वह। मूसलाधार बारिश हो रही थी। मां-बाप जिस कस्बे में रहते थे, वहां के लिए कोई सवारी नहीं मिली तो मानस करीब 12 किलोमीटर पैदल चलकर भीगते हुए रात के करीब दो बजे अपने घर के दरवाजे पर खड़ा था। पूरे रास्ते में बार-बार रोया, लेकिन बारिश के पानी ने हमेशा आंसुओं के निशान बनने से पहले ही मिटा दिए। घर की सांकल पहले धीरे से बजाई। कोई आवाज़ नहीं आई। फिर जोर से देर तक बजाई। अंदर से अम्मा ने बाबूजी को जगाकर कहा – देखिए कौन आया है इतनी रात गए। बाबूजी ने दरवाज़ा खोला। फिर तो उसे देखकर पूरे घर में ऐसा रोना-पीटना मचा कि पूछिए मत। घर की सारी लाइट एक-एक कर जल गई। लगा जैसे दिन हो गया हो। अम्मा-बाबूजी उसके बाद सोए नहीं। मानस चार बजे के आसपास सो गया। उठा तो दोपहर के दो बज चुके थे।

मां ने बताया कि उसके लिए उसने कहां-कहां मन्नत नहीं मानी थी। दो दिन बाद उसे वह उस बाबा के पास ले गई जिसने बताया था कि बेटा जल्दी ही उसके पास आ जाएगा। मानस ने बताया कि वह बस कुछ दिनों के लिए आया है और उसे फिर वापस लौटना है। घर में रुके चार दिन ही हुए थे कि ज़िले में काम करनेवाले साथी बुलावा लेकर आ गए और फिर वह उनके साथ लखनऊ के लिए रवाना हो गया। हां, मां-बाप से जाते समय वादा ज़रूर किया कि इस बार वो हर तीन महीने पर चिट्ठी लिखता रहेगा।

लखनऊ पहुंचा तो राज्य सचिव वर्मा जी और दूसरे नौजवान साथियों के साथ मानस उर्फ राजकिशोर की एक और बैठक हुई, केवल उसी की समस्या पर। वर्मा जी ने साफ-साफ कह दिया – मानस, तुम्हारे साथ दो समस्याएं हैं। पहली समस्या है कि तुम्हें शादी करने की बेचैनी है और दूसरी समस्या यह है कि तुम्हें लगता है कि क्रांति होने में अभी लंबा वक्त लगेगा। मानस को पहली समस्या का पूरा संदर्भ याद हो आया और उसे क्यों वर्मा जी मुद्दा बना रहे हैं यह भी समझ में आ गया। (इसे पूरा जानने के लिए पढ़ें - जोगी लौटा देश और चलता रहा सिलसिला)

दूसरी समस्या पर उसने कहा कि यह तो पार्टी दस्तावेज़ में लिखा है कि क्रांति एक दीर्घकालीन प्रक्रिया है तो वह अगर मानता है कि क्रांति तुरत-फुरत में नहीं, लंबे वक्त में होनेवाली है तो इसमें गलत क्या है। फिर संगठन के बुनियादी सिद्धांत पर बहस हुई। अंत में यह तय हुआ कि इलाहाबाद में छात्र संगठन के एक नेता (जो उसके रूममेट भी रह चुके थे) उसके इलाके में बराबर जाएंगे। एक तरह से वे ही उसके इलाके के प्रभारी भी होंगे। वह अपनी व्यावहारिक और ‘दार्शनिक’ समस्याएं उनसे डिस्कस करके सुलझा सकता है। मानस को लगा – चलो कोई सूत्र तो मिला। अब ज्यादा मुश्किल नहीं आनी चाहिए।

मानस नए आश्वासनों के साथ अपने इलाके में काम करने के लिए वापस लौट गया। महीना-दर-महीना गुजरता रहा। इलाहाबाद के छात्र नेता कभी भी उसके इलाके में झांकने तक नहीं आए। काम पहले की तरह चल रहा था, चलता गया। लेकिन साल भर बीत जाने के बाद भी नेता महोदय के न आने से उसकी सारी उम्मीद जाती रही। उसे समझ में आ गया कि किनारे खड़े रहने की सुविधाजनक व्यस्तता छोड़कर कोई उसके साथ गहरे पानी में उतरने नहीं आने वाला। अब उसने पार्टी को आखिरी सलाम कहने का निश्चय कर लिया। उसने विदा लेने का पूरा प्रोग्राम बना डाला। पहले हामिद भाई और दूसरे रेल मजदूर साथियों से विदा लेगा। फिर पांच भूमिहीन किसानों की मंडली के पास जाकर अलविदा कहेगा।

नोट : यूं तो मानस की कथा बहुत लंबी है। लेकिन फिलहाल मैं इसे किसी तरह समेट लेना चाहता हूं। आप भी उसकी कथा में शायद दिलचस्पी खोते जा रहे होंगे। इसलिए कल इसकी आखिरी किश्त पेश करूंगा - टूटा टूटा एक परिंदा ऐसा टूटा कि फिर...

Thursday 1 November, 2007

मोदी क्या सचमुच गुजरातियों के सिरमौर हैं?

आज नरेंद्र मोदी खुद को गुजराती अस्मिता, गुजराती गौरव और गुजराती सम्मान से जोड़कर पेश करते हैं। दंगों पर उनकी सरकार की आलोचना होती है तो कहते हैं – देखो, ये लोग सारे गुजरातियों को बदनाम कर रहे हैं। मोदी दावा कर रहे हैं कि वे सभी पांच करोड़ गुजरातियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। हालांकि बीजेपी के ही असंतुष्ट अब कहने लगे हैं कि मोदी पांच करोड़ गुजरातियों का नहीं, पांच करोड़पतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। आइए, समझने की कोशिश करते हैं कि क्या नरेंद्र मोदी को सचमुच गुजरातियों का गौरव माना जा सकता है।

पांच साल पहले हुए विधानसभा चुनावों में बीजेपी को 182 में से 127 सीटें मिलीं तो साबित किया गया कि गुजरात में जो भी सांप्रदायिक हिंसा हुई, उसे गुजरातियों के बहुमत का समर्थन हासिल था। लेकिन हमारे लोकतंत्र का जो सिस्टम है, उसमें सीटों से जनता के असली मूड का पता नहीं चलता। जैसे, चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक 2002 में गुजरात में कुल 61.5 फीसदी मतदान हुआ था, जिसमें से 49.9 फीसदी वोट बीजेपी को मिले थे। यानी, 30 फीसदी गुजराती ही नरेंद्र मोदी के साथ थे। क्या इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि 70 फीसदी गुजराती नरेंद्र मोदी की सांप्रदायिक राजनीति का समर्थन नहीं करते?

साल 2001 की जनगणना के मुताबिक गुजरात की आबादी उस समय 5 करोड़ 7 लाख के आसपास थी, जिसमें से 89.1 फीसदी हिंदू और 9.1 फीसदी मुसलमान हैं। ज़ाहिर है कि राज्य का एक भी मुसलमान किसी भी सूरत में मोदी के साथ नहीं जा सकता। लेकिन क्या इतनी ही मजबूती के साथ कहा जा सकता कि बाकी 90 फीसदी गुजराती हिंदू होने के नाते नरेंद्र मोदी के साथ हैं? शायद नहीं क्योंकि गुजराती आमतौर पर शांतिप्रिय होते हैं। उनके अंदर उद्यमशीलता कूट-कूटकर भरी होती है। कहते हैं कि किसी भी देश की टेलिफोन डायरेक्टरी उठा लीजिए, उसमें आपको गुजराती नाम मिल जाएंगे। धंधे के लिए ज़रूरी होता है कि सभी से मेलजोल बनाकर चला जाए क्योंकि जो व्यवसायी अपने ग्राहकों में संप्रदाय और जाति का भेद करने लगेगा, उसका धंधा चल ही नहीं सकता।

लेकिन गुजरात के कुछ जानकार ऐसा नहीं मानते। उनका कहना है कि गुजरातियों के जींस में ही मुस्लिम विरोध भरा हुआ है। उन्हें बचपन से ही बताया जाता है कि ईस्वी 1024 में जब महमूद गज़नी ने हमला किया था तो उसने दो लाख हिंदुओं को मौत के घाट उतार दिया था। आज राज्य का कोई भी हिंदू परिवार ऐसा नहीं है, जिसका एक न एक पूर्वज गज़नी की हिंसा का शिकार न हुआ हो। यही वजह है कि मुसलमानों की आबादी 9 फीसदी होने के बावजूद आम गुजराती उनकी मौजूदगी को सहन नहीं कर पाता। इन जानकारों का कहना है कि बहुत से हिंदू गुजराती भले ही 2002 के चुनावों में बीजेपी को वोट देने के लिए घर से न निकले हों, लेकिन वे अंदर ही अंदर मोदी के साथ थे।

मुझे यह जानकर भी आश्चर्य हुआ, हालांकि ये खबर पुष्ट नहीं है, कि अंबानी परिवार की कंपनी रिलायंस वेबवर्ल्ड में सभी स्थाई कर्मचारी हिंदू हैं, जबकि सभी मुसलमान या ईसाई कर्मचारी कांट्रैक्ट पर रखे गए हैं। शायद यही वजह है कि जिस तरह बाल ठाकरे मराठी सम्मान का प्रतीक बन गए हैं, उसी तरह गुजराती गौरव के लिए सिर्फ और सिर्फ नरेंद्र मोदी का ही नाम सामने आता है।

मैं यह पोस्ट लिखने बैठा तो कहना चाहता था कि हमारे लूले-लंगड़े लोकतंत्र का ही नतीजा है कि 30 फीसदी गुजरातियों का वोट पाकर भी नरेंद्र मोदी गुजरातियों का गौरव होने का दावा कर सकते हैं। लेकिन एक गुजराती पत्रकार ने जब मेरे सामने इतिहास और संस्कृति की इतनी सारी बातें फेंक दी तो मैं कन्फ्यूज हो गया। मुझे लगा कि गुजरात को खाली किताबों और अखबारों से नहीं समझा जा सकता। नरेंद्र मोदी अगर इस बार का विधानसभा चुनाव हारे तो उसकी सबसे बड़ी वजह बनेंगे बीजेपी और संघ परिवार के अंसतुष्ट। लेकिन बताते हैं कि अगर नरेंद्र मोदी ने टिकट बांटने में अपने शातिराना अंदाज का परिचय दिया और आखिरी समय पर उम्मीदवारों की घोषणा की, तो उन्हें तीसरी बार गुजरात का मुख्यमंत्री बनने से कोई नहीं रोक सकता।

ये तो क्रांति की नहीं, भिखारी माफिया की सोच है!

मानस हाथ-पैर मारता रहा कि किसी तरह वह ऐसी दृष्टि हासिल कर ले जिससे वर्तमान को समझने के साथ ही उसके भीतर जन्म लेते भविष्य को भी देख सके। वैसे, उसे अब तक इस बात का यकीन हो चला था कि जिन लोगों को उसके सिर पर बैठा रखा गया है, वे उसे यह दृष्टि नहीं दे सकते। लेकिन मानस को तब रोशनी की एक किरण दिखाई देने लगी, जब पार्टी ने उसी दौरान बेहद संजीदगी से एक अभियान शुरू किया, जिसका नाम था सुदृढ़ीकरण अभियान या कंसोलिडेशन कैम्पेन। यह कुछ उसी तरह की कोशिश थी, जैसे कोई तैराक दोनों बाहें फैलाने के बाद उन्हें समेटता है, जैसे लंबे सफर पर निकला कोई पथिक थोड़ा थमकर सुस्ताता है, जैसे कोई ज़िंदगी में अब तक क्या खोया, क्या पाया का लेखाजोखा कर आगे के लक्ष्य तय करता है।

मानस इस अभियान से बेहद उत्साहित हो गया। उसे लगा जैसे मनमांगी मुराद मिल गई हो और जड़-सूत्रवादियों के दिन अब लदनेवाले हैं। यह अभियान पूरे देश में चला, अच्छा चला। छोटे-छोटे ग्रुप बनाकर मार्क्सवाद के मूलाधार का अध्ययन किया गया, संगठन के बुनियादी नियम समझे गए। लक्ष्य था, पार्टी के अब तक के सफर में सोच से लेकर व्यवहार के स्तर पर जमा हुए कूड़ा-करकट की सफाई। लेकिन मानस के कार्यक्षेत्र उत्तर प्रदेश की बात करें तो न सोच और न ही व्यवहार के स्तर पर छाई जड़ता पर कोई फर्क पड़ा।

राज्य नेतृत्व वास्तविक स्थिति को समझने के बजाय नीचे से उसी अंदाज़ में रिपोर्ट मांगता रहा जैसे इमरजेंसी के दौरान नीचे के हलकों से नसबंदी के आंकड़े तलब किए गए होंगे। खैर, अभियान खत्म हुआ तो सभी ज़िलों के प्रभारियों की समीक्षा बैठक हुई। मानस भी इसमें शामिल था। बात रखने की शुरुआत उसी ने की। फिर सभी ने एक-एक बात रखी तो सामने आया कि उत्तर प्रदेश में सुदृढीकरण अभियान के तहत कुछ भी हासिल नहीं हुआ है। अब राज्य सचिव को ऊपर रिपोर्ट भेजनी थी तो उन्होंने इसे इस तरह सम-अप किया, “चूंकि सभी साथी कह रहे हैं कि कंसोलिडेशन कैम्पेन से कुछ हासिल नहीं हुआ है। इसका मतलब ही है कि कुछ तो हासिल हुआ है तभी तो वह हासिल नहीं हो सकता।” मानस को लगा यह तो जैन दर्शन का स्याद्-वाद है। खैर, राज्य सचिव ने सेंट्रल कमिटी (जिसमें वे खुद भी शामिल थे) को सबकी सहमति से रिपोर्ट से भेज दी कि उत्तर प्रदेश में कंसोलिडेशन कैम्पेन काफी सफल रहा है।

अब मानस के अंतिम मोहभंग की शुरुआत हो चुकी थी। उसने राज्य सचिव वर्मा जी से साफ-साफ कह दिया कि अगर अगले साल भर में उसके सवाल हल नहीं हुए तो वह पार्टी छोड़कर वापस लौट जाएगा। उसने इसके समाधान के लिए एक ठोस सुझाव भी उनके सामने रखा जो उसे सुदृढ़ीकरण अभियान से समझ में आया था। संगठन का बुनियादी नियम यह है कि अगर आपके पास पांच कार्यकर्ता हों तो एक तरीका यह है कि उन्हें आप पांच अलग-अलग जगहों पर भेज दो और दूसरा तरीका यह है कि इन सभी को एक ही कार्यक्षेत्र में लगा दिया जाए और लहरों की तरह संगठन का विकास किया जाए। इसमें से दूसरा तरीका ही सही है और पहला गलत क्योंकि पहले तरीके पर अमल से पांच जगहों पर दफ्तर तो ज़रूर खुल जाएंगे, लेकिन कालांतर में ये बंद हो जाएंगे और पांच कार्यकर्ता भी हाथ से जाते रहेंगे।

वर्मा जी ने बात सुन तो ली, लेकिन गुनी नहीं। इसका प्रमाण यह है कि इलाहाबाद में राज्य के तमाम भूमिगत कार्यकर्ताओं की बैठक चल रही थी। एक सत्र बीतने के बाद मानस वहीं कमरे में आंख बंद करके पड़ा था, जैसे सो रहा हो। एक साथी ने वर्मा जी से कहा कि मानस तो कह रहा है कि उसके सवाल हल नहीं हुए तो वह साल भर पार्टी छोड़कर चला जाएगा। इस पर वर्मा जी ने कहा, “कहने दो। किसी तरह दो साल बीतने दो। फिर कहां जाएगा।”

मानस को लगा जैसे सारे शरीर का खून अचानक चीखकर उसके दिमाग में चढ़ आया हो। वर्मा जी की बात का मतलब उसे फौरन समझ में आ गया। उसकी उम्र उस समय 26 साल थी। दो साल बाद वह 28 का हो जाएगा यानी कंप्टीशन देने की उम्र तब खत्म हो जाएगी। यह उम्र खत्म हो जाएगी तो वह कहां जाएगा। पार्टी में पड़े रहना उसकी मजबूरी बन जाएगा। कमाल है, स्टेशन पर अपाहिज बनाकर बच्चों से भीख मंगवाने वाले माफिया और क्रांतिकारी मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी के राज्य सचिव, सेंट्रल कमेटी के सदस्य वर्मा जी की सोच में कितनी जबरदस्त समानता है!!!

आगे है फिर भी साल भर इंतज़ार करता रहा मानस