Thursday 20 December, 2007

शंकर का दर्शन मिटेगा, गीता किताब भर बचेगी

किसी राष्ट्र की सोच और संस्कृति बहुत धीरे-धीरे बदलती है। राजनीति तो पांच-दस साल में ही उलट की पुलट हो सकती है, लेकिन सोच और संस्कृति के लिए पचास-सौ साल भी कुछ नहीं होते। लेकिन कभी-कभी यह अचानक इतनी तेज़ी से बदलने लगती है जैसे कहीं से कोई भूचाल आ गया हो। मुझे लगता है कि हम लोग द्रुत परिवर्तन के इसी दौर के साक्षी हैं। शायद 25 से 45-50 साल की हमारी पीढ़ी वो आखिरी पीढ़ी होगी जो ब्रह्म सत्यम् जगत मिथ्या जैसे दार्शनिक सूत्रों को गुनती है। इसके बाद की पीढ़ी के लिए तो रामायण, महाभारत, उपनिषद और गीता-पुराण बस रोचक कहानियों के स्रोत होंगे। जिस तरह लोग बुद्ध की जातक कथाएं पढ़ते हैं, सीत-बसंत की कहानी पढ़ते हैं, अगिया-वैताल की कथा सुनते हैं, वैसे ही इन पोथियों को भी बांचेंगे-पढ़ेंगे।

गांवों में 85 फीसदी का आंकड़ा बनानेवाली दलित व पिछड़ी आबादी के लिए गीता, महाभारत, उपनिषद या रामायण कभी भी प्रेरणा के स्रोत नहीं रहे। कबीर या रैदास जैसे संत ही उनका सहारा रहे। बाकी 15 फीसदी सवर्णों को ज़िंदगी ने इतना झिंझोड़कर रख दिया है कि वे संभवत: पुरानी पीढ़ी के साथ इन ग्रंथों का भी क्रियाकर्म कर देंगे। नगरों-महानगरों में 15 से 25 साल तक के बच्चे इतने दुनियादार हो गए हैं कि उन्हें ये सारी बातें और ज्ञान फिज़ूल का लगता है। मां-बाप के कहने पर पूजा में बैठ तो जाते हैं, लेकिन बस कहने भर को। उनके icons अलग हैं, प्रेरणा के स्रोत अलग हैं। लेकिन अपनी ऊर्जा को channelise करना वो बखूबी जानते हैं। करियर के बारे में अपने से ठीक पहले की पीढ़ी से कहीं ज्यादा साफ सोच रखते हैं।

यह सिर्फ पीढ़ी का अंतर नहीं है। उससे कुछ अधिक है क्योंकि जो सवाल 60-65 साल पहले लोगों को मथते थे, उनकी प्रासंगिकता हमारी पीढी पर आकर समाप्त हो गई। जैसे, मुक्तिबोध 1939 में प्रकाशित एक लेख में कहते हैं, “श्रीमद् भगवत्गीता का कर्मयोग जन साधारण के लिए अत्यंत सुंदर तत्व-शास्त्र होते हुए भी वे उस ओर न झुककर शंकराचार्य के मायावाद और कबीर के दार्शनिक मतों के भ्रष्ट रूप पर अधिक जल्दी झुकते हैं क्योंकि आशावाद महान कठिनाइयों, ठोकरों के सम्मुख रहते हुए आत्मा की सबलता का चिह्न है, और क्योंकि उनकी आत्मा इस तरह की कष्टपूर्ण परिस्थितियों में दुख को सहनकर रास्ता खोजने के काम नहीं कर सकती। अपनी कमज़ोरियों को दार्शनिक रूप में उपस्थित कर उसके उच्चत्व की माया में अपने को भुलाना भारतीय जन-साधारण की मनोवृत्ति का सूचक है।”

हो सकता है कि भारतीय जन-साधारण की मूल मनोवृत्ति अब भी वैसी ही हो। लेकिन शंकर का दर्शन अब नई पीढ़ी के लिए बकवास बन चुका है, जबकि गीता के श्लोक भी किसी की पुण्यतिथि के विज्ञापन की पंक्तियों तक सिमटकर रह गए हैं। ये अलग बात है कि गीता के निष्काम कर्मवाद में किसी भी वेंचर-एडवेंचर के जोखिम से निपटने का जबरदस्त संबल है। फल के बारे में आप ज़रूर सोचेंगे, लेकिन फल की चिंता नहीं करने के भाव से ही आप अनावश्यक संशय और अवसाद से बच जाते हैं। इस लिहाज से गीता आत्मनिर्भर कृषि अर्थव्यवस्था से निकलकर उद्योग-धंधे में कूदने के लिए तैयार करने का दर्शन पेश करती है और उसकी प्रासंगिकता आज भी किसी भी गांधीवाद या एकात्म मानववाद से कहीं ज्यादा है।

मुक्तिबोध ने इस लेख में सवाल पूछा है जो आज भी प्रासंगिक है। सवाल है : इस हिंदुस्तानी खराबी का कारण क्या है? क्या भारतीय ऋषि-मुनि गलत थे? क्या बात है कि भारतीय साधारण समाज अपनी उसी पुरानी बौद्धिक अवस्था पर है जिस पर वह पहले से विराजमान है? फिर कारणों की तलाश करते हुए वे लिखते हैं : भौगोलिक, ऐतिहासिक तथा आर्थिक आदि कारणों के अलावा कुछ ऐसे भी कारण हैं जिनको हम भारतीय विचारकों की मूल वृत्ति कह सकते हैं। भारतीय कलाकार, चिंतक तथा साहित्यिकों ने अपनी व्यक्तिगत उन्नति को पराकाष्ठा तक पहुंचा दिया किंतु अपने साथ वे समाज को न ला सके।

व्यक्तिगत उन्नति की पराकाष्ठा, मगर समाज से दूरी। ज्ञान दूर, क्रिया कुछ भिन्न। सच है, चिंतकों के ज्ञान और कर्म का फासला जन-साधारण को दर्शन की ताज़गी और नएपन से दूर रखता है। वैसे, पीढियां कितनी भी बदल जाएं, दर्शन और जीवन-दृष्टि की ज़रूरत तो हमेशा रहेगी। कहीं शून्य में छलांग लगाती नई पीढ़ी अराजकता का शिकार न हो जाए, इस आशंका को निराधार बनाना हमारी उस पीढ़ी की ज़िम्मेदारी है जिसकी उम्र अभी 25 से लेकर 45-50 साल तक की है।
फोटो साभार : सरमैक्स

4 comments:

Gyan Dutt Pandey said...

अद्वैत की तो पक्का नहीं कह सकता पर गीता तो मुझे भविष्य का मोटिव फोर्स लगता है।

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

itna nirash hone kee zaroorat naheen hai anilji. jis darshan ko karodon log jeete hon usaka koi kuchh naheen bigaad sakata.

बालकिशन said...

मुझे आपकी बात सही लगती है पर जितनी तेज गति की बात आप कर रहे वो शायद सही नही है.
लेकिन इन चीजों का अस्तित्व पूर्ण रूप से कभी भी ख़त्म नही हो सकता ये पीढ़ी दर पीढ़ी आगे जाती जायेंगी और समय`समय पर लोगों को प्रभावित भी करेंगी.

Srijan Shilpi said...

हर सचेत व्यक्ति को अपने कर्म को संबल देने के लिए किसी प्रेरक दर्शन की आवश्यकता होती है। परिस्थिति, पृष्ठभूमि और प्रासंगिकता के हिसाब से वह अपने लिए अनुकूल दर्शन चुन लेता है। दर्शन, सत्य को समझने का देश-काल-परिस्थिति सापेक्ष नजरिया है। हर व्यक्ति को अपने अनुकूल दर्शन का चुनाव खुद ही करना होता है। लेकिन व्यक्ति का मन जीवन के अलग-अलग दौर में अलग-अलग देश-काल-परिस्थितियों से गुजरता है और उसी हिसाब से उसका दर्शन भी बदलता रहता है। दर्शन तो अपनी जगह कायम रहता है, लेकिन किसी व्यक्ति विशेष के लिए उसकी प्रासंगिकता बदलती रहती है।

आज तक जितने भी दर्शन मानव जाति को उदघाटित हुए हैं, और आगे उदघाटित होंगे, वे सभी हमेशा किसी न किसी के लिए प्रासंगिक रहेंगे। न तो शंकर का अद्वैत मिटेगा और न ही गीता का निष्काम कर्मयोग।