Tuesday 18 December, 2007

ब्लॉग ने खोले हैं अनंत अभिव्यक्तियों के द्वार

"एक बड़ा ही अजीब दृश्य है कि कई सुंदरतम अनुभूतियां विविध नर-नारियों के मन में गुप्त रह जाती हैं। ...और वे अनुभूतियां ऐसी होती हैं जिनके एकत्रीकरण से सर्वोत्तम विश्व साहित्य तैयार हो सकता है। साधारण मनुष्य जिसके पास कलम का ज़ोर या वाणी की प्रतिभा नहीं है, इस विषय में बहुत अधिक दुर्भाग्यशाली है क्योंकि उसकी अभिव्यक्ति का मार्ग रुका हुआ है।" गजानन माधव मुक्तिबोध ने 65 साल पहले छपे अपने एक लेख में यह बात कही थी। लेकिन आज इंटरनेट और हिंदी ब्लॉगिंग ने ‘साधारण मनुष्य’ के इस दुर्भाग्य को खत्म कर दिया है। उसकी अभिव्यक्ति का मार्ग खोल दिया है। और, अब सचमुच ऐसी-ऐसी अनुभूतियां सामने आ रही हैं और आगे आएंगी कि मुक्तिबोध के शब्दों में, “जिनके एकत्रीकरण से सर्वोत्तम विश्व साहित्य तैयार हो सकता है।” मैं तो इस समय ब्लॉगिंग और साहित्य पर छिड़ी बहस को लेकर यही कहना चाहता हूं।

ऐसा नहीं है कि पहले आम लोग लिखते नहीं थे। डायरी लिखते थे। कविताएं और कहानियां लिखते थे। कुछ जिद्दी लोग उपन्यास भी लिखते थे। लेकिन उन्हें पढ़नेवाले गिने-चुने थे। आज जहां हिंदी साहित्य में जब कोई किताब 600 प्रतियां बिकने पर बेस्टसेलर बन जाती हैं, तब हिंदी के ब्लॉगरों की ही संख्या 1400 के करीब पहुंच चुकी है। और, ऐसे बहुत से पाठक हैं जो ब्लॉगर नहीं है। इस आधार पर माना जा सकता है कि आप अगर अपने ब्लॉग पर कुछ लिखते हैं तो उसे आज की तारीख में भी देर-सबेर 2000 पाठक मिल ही सकते हैं। वैसे, सचमुच कितनी कसक और अफसोस की बात है कि 40 करोड़ हिंदीभाषियों के होते हुए भी हमें 2000 पाठकों को बड़ी संख्या बतानी पड़ रही है।

आज हिंदी ब्लॉगिंग की दुनिया में जो भी लोग की-बोर्ड खटखटा रहे हैं, उनमें से ज्यादा से ज्यादा सौ लेखकों को छोड़ दें तो बाकी सभी साधारण मनुष्य हैं। कोई कुवैत में बैठकर अपनी अंतर्कथा लिख रहा है तो कोई टोरंटो से। यहां लखनऊ भी है, ठाणे भी, गुड़गांव, वाराणसी और पटना भी। सभी कोशिश कर रहे हैं कि वो अपने अनुभवों और अनुभूतियों के अलावा भी ऐसा कुछ लिखें जो दूसरों के काम का हो। तुर्की के मशहूर नोबेल पुरस्कार विजेता लेखक व उपन्यासकार ओरहान पामुक का कहना है, “लेखक की कलाकारी इसमें हैं कि वो अपनी कहानी को इस अंदाज़ में बताए जैसे वे दूसरों की कहानियां हों और दूसरों की कहानियों को इस तरह कहे जैसे कि वे खुद उसकी हों, क्योंकि यही होता है साहित्य।”

मैं कोई समालोचक नहीं है, लेकिन आज मैं पामुक की इस परिभाषा को हिंदी ब्लॉगिंग की दुनिया पर लागू करके देखता हूं तो मुझे एक साथ कई साहित्यकार नज़र आने लगते हैं। आनंद का चिट्ठा पढ़कर तो मैं अचंभित रह गया। हर पोस्ट में आनंद दूसरे के चरित्र में घुसकर बेहद तार्किक कथा सुना रहे होते हैं। कभी वे जेपी पांडे होते हैं, कभी भरत कुमार थपलियाल, कभी कैलाश वर्मा तो कभी मंत्रीजी के ड्राइवर रामशरण बन जाते हैं। अब विकास की ताज़ा कहानी की ही बात ले लीजिए। अगर इसमें कुशल संवेदनशील संपादकों के दो-चार हाथ लग जाएं, कहीं-कहीं अनुभूतियों को और गहरा कर दिया जाए, इसे फाइन-ट्यून कर दिया जाए तो यह गुलेरी की उसने कहा था कहानी जैसा असर छोड़ सकती है।

असल में हिंदी साहित्य और ब्लॉगिंग में कोई टकराव नहीं है। बल्कि सच कहा जाए तो ब्लॉगिंग हिंदी साहित्य की जड़ता को तोड़ने का एक अल्टीमेटम है। वैसे, जो साहित्यकार भयवश ज़िंदगी के झंझावात में कूदने से भागते रहे हैं और इसीलिए उनके पास ताज़ा अनुभवों का हमेशा टोंटा रहता है, उनके लिए अब हिंदी ब्लॉगरों के आने से काफी सहूलियत हो गई है। मेरी उनको सलाह है कि चिट्ठाजगत या ब्लॉगवाणी पर नियमित दो घंटे बिताएं तो उन्हें असली ज़िंदगी की झलक मिलेगी, ताज़ा अनुभव मिलेंगे और साथ ही लिखने का नया माल भी मिल जाया करेगा।

9 comments:

बालकिशन said...

बहुत अच्छा और नेक विचार है.
"मेरी उनको सलाह है कि चिट्ठाजगत या ब्लॉगवाणी पर नियमित दो घंटे बिताएं तो उन्हें असली ज़िंदगी की झलक मिलेगी, ताज़ा अनुभव मिलेंगे और साथ ही लिखने का नया माल भी मिल जाया करेगा।"
मैं मानता भी हूँ. नियमित तो नही पर सप्ताह मे ३-४ दिन मैं २-३ घंटे जरुर बिताता हूँ. ज्यादा पढने की कोशिश करता हूँ. और कभी-कभी कुछ लिखता भी हूँ.

Vikash said...

मेरी कहानी का जिक्र करने के लिये आभार. कितना उत्साह्वर्धन हुआ, ये वर्णनातीत है. बहुत बहुत धन्यवाद. :)

मीनाक्षी said...

घर-गृहस्थी के कामों से समय चुरा कर पढ़ने का जो आनन्द मिलता है उसमें डूब कर और किसी बात की सुध ही नहीं रहती....

Gyan Dutt Pandey said...

ब्लॉग की चर्चा के साथ साहित्य को जोड़ना या साहित्य को हसरत से देखना - रेफर करना मेरी प्रवृत्ति मेँ नहीं! :-)

परमजीत सिहँ बाली said...

बढिया लेख है सच है चिट्ठों को पढ़ने से भी लिखने की प्रेरणा मिलती है।

पुनीत ओमर said...

पूर्णतया तो नहीं पर एक ब्लॉगर होने के नाते आपकी बात से कुछ हद तक तो सहमत हूँ ही. पर ब्लोग्स चाहे एक करोड़ क्यों न हो जाए, पुस्तकों का महत्त्व न कभी कम हुआ है और न होगा.

अविनाश वाचस्पति said...

मिस्टर रघुराज
कल नहीं आज
पर लिखें जरूर
ब्लॉग पर सालिया
नजर का फलसफा

राजीव जैन said...

सच्‍ची बात है
बाकी का तो पता नहीं पर अपनी कहता हूं
बहुत ही नोन सीरियस तरीके से ब्‍लॉग लिखने की शुरुआत की। पहले पहल अपनी ही जिंदगी के कुछ घंटों को कविता के फॉर्म में लिख डाला। दोस्‍तों और परिचितों ने झाड पर चढाया कि अच्‍छा लिखते हो तो बस लिखने की प्रेरणा मिली।
पर जब ब्‍लॉगवाणी का पता चला और वहां दूसरे ब्‍लॉग पढे तो इस ब्‍लॉग की दुनिया से असल में रूबरू हुआ।
अब लिखने और पढने दोनों की आदत हो गई है, वर्ना रोज एक से दो घंटे किताब लेकर बैठना मुश्किल था अब तो रात रात गुजर जाती है। ब्‍लॉग पढते पढते

अजित वडनेरकर said...

sahi sahi bhaii. bhadhiyaa hai. hindi ki samsya ho gayi hai.