Friday 7 December, 2007

आज़मगढ़ का कनवा दलित जो प्रोफेसर बन गया

एक हरवाह (बंधुआ मजदूर) का बेटा आज दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर है। जी, हां डॉ. तुलसीराम का जन्म आज़ादी के करीब दो साल बाद पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ ज़िले के एक दलित परिवार में हुआ था। इस समय लखनऊ से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका तद्भव में ‘मु्र्दहिया’ शीर्षक से उनकी आत्मकथा छापी जा रही है। इसकी पहली किश्त पढ़ने के बाद मुझे लगा कि शायद हमारे समय और ग्रामीण समाज का इससे अच्छा दस्तावेज़ कोई और नहीं हो सकता। बानगी के लिए इसके कुछ अंश पेश कर रहा हूं। पूरी किश्त आप तद्भव की साइट पर जाकर जरूर पढ़ें।
मूर्खता मेरी जन्मजात विरासत थी। मानव जाति का वह पहला व्यक्ति जो जैविक रूप से मेरा खानदानी पूर्वज था, उसके और मेरे बीच न जाने कितने पैदा हुए, किन्तु उनमें से कोई भी पढ़ा लिखा नहीं था। लगभग तेईस सौ वर्ष पूर्व यूनान देश से भारत आये मिनांदर ने कहा कि आम भारतीयों को लिपि का ज्ञान नहीं है, इसलिए वे पढ़-लिख नहीं सकते। उसके समकालीनों ने तो कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, किन्तु आधुनिक भारतीय पंडों ने मिनांदर का खूब खंडन मंडन किया। हकीकत तो यह है कि आज भी करोड़ों भारतीय मिनांदर की कसौटी पर खरा उतरते हैं। सदियों पुरानी इस अशिक्षा का परिणाम यह हुआ कि मूर्खता और मूर्खता के चलते अंधविश्वासों का बोझ मेरे पूर्वजों के सिर से कभी नहीं उतरा।

शुरुआत यदि दादा से ही करूं तो पिता जी के अनुसार उन्हें एक भूत ने लाठियों से पीट पीट कर मार डाला था। अपने पांच भाइयों में पिता जी सबसे छोटे थे। घर में सभी का कहना था कि दादा जी जिनका नाम जूठन था, गांव से थोड़ा सा दूर झाड़ियों वाले टीले के पास छोटे से खेत में मटर की फसल को देर रात जानवरों से बचाने के उद्देश्य से गये थे। मटर के खेत में उन्हें फली खाता एक साही नामक जानवर दिखाई दिया, क्योंकि रात उजली थी। दादा जी ने अपनी लाठी से साही पर हमला बोल दिया। लाठी लगते ही साही रौद्र रूप धारण करते हुए अपने लम्बे लम्बे कटीले रोंगटों को फैला कर अंतरध्यान हो गया। घर वालों के अनुसार वह साही नहीं, बल्कि उस क्षेत्र का भूत था।

जब मैं तीन साल का हुआ, गांव में चेचक की महामारी आयी। मेरे ऊपर उसका गहरा प्रकोप पड़ा। चेचक से मैं मरणासन्न हो गया। घर में स्थानीय ग्रामीण देवी देवताओं की पूजा शुरू हो गयी। उस समय गांव में दलितों के अलग देवी देवता होते थे, जिनकी पूजा सवर्ण नहीं करते थे। हमारे गांव में भी चमरिया माई और डीह बाबा दो ऐसे ही देवी देवता थे, जिनकी पूजा दलित करते थे। इन दोनों को सूअर तथा बकरे की बलि दी जाती थी।

दादी मेरी मां से ज्यादा रोती रहती थी। अंततोगत्वा चेचक की आवश्यक बीमारी वाली अवधि समाप्त होने के साथ मैं ठीक होने लगा। घर वाले अटूट विश्वास के साथ कहते कि उनकी पूजा पाठ से जिन्दा बच गया। इस बीच विभिन्न मनौतियों में सूअरों, बकरों की बलि में भैंसा भी शामिल हो चुका था। मेरी जान तो बच गयी, किन्तु चेचक का प्रकोप हटते ही मेरी पूरी देह पर गहरे गहरे घाव के दाग पड़ गये। विशेष रूप से मेरा चेहरा इन दागों का भंडारण क्षेत्र बन गया। गांव में लोहार अनाज से मिट्टी या कंकड़ निकालने के लिए लोहे की पतली चद्दर काट कर उसे बड़ी चलनी का रूप देते थे और उसकी पेंदी में पतली छेनी से सैकड़ों छेद कर देते थे, जिसे आखा कहते थे। आखा की पेंदी का बाहरी हिस्सा छेनी के छेद से खुरदुरा हो जाता था। मेरा चेहरा इसी आखा के बाहरी हिस्से जैसा हो गया था। इस पूरे प्रकरण में मेरे शेष जीवन पर अत्यंत दूरगामी प्रभाव डालने वाली घटना घटी - चेचक से मेरी दायीं आंख की रोशनी हमेशा के लिए विलुप्त हो गयी।

मेरे गांव में मेरे अलावा कई अन्य व्यक्ति भी अपशकुन की श्रेणी में आते थे। एक थे करीब अस्सी वर्ष के बूढ़े ब्राह्मण जंगू पांडे। वे जीवन पर्यन्त कुंआरे रह गये थे। उनका अपना कोई नहीं था। शाम के समय वे अकसर घूमते हुए दलित बस्ती में आ जाते थे। उनके आते ही विभिन्न परिवारों में खलबली मच जाती थी। नयी नयी बहुओं को लोग घर के अंदर ही रहने के लिए हिदायत देते रहते थे। लोगों का मानना था कि जंगू पांडे की निगाह पड़ते ही बहुओं का अनिष्ट हो जाएगा। इसी तरह गांव की एक अन्य बुढ़िया ब्राह्मणी थी, जिसका नाम किसी को मालूम नहीं था। वह सिर्फ पंडिताइन के रूप में जानी जाती थी। पंडिताइन निर्वंश विधवा थी। उन्हें भी लोग देखना पसंद नहीं करते थे। गांव भर के लोगों का कहना था कि पंडिताइन का सामना हो जाने से किसी काम में सफलता नहीं मिलेगी।

अपने पांच भाइयों में मेरे पिता जी सबसे छोटे थे। सभी का एक संयुक्त परिवार था, जिसमें छोटे बड़े लगभग पचास व्यक्ति एक साथ रहते थे। पिता जी के बीच वाले भाई जो वरीयताक्रम में तीसरे नम्बर पर थे, अत्यंत क्रोधी एवं क्रूर पुरुष थे। अकारण कोई भी व्यक्ति उनकी भद्दी भद्दी गालियों का शिकार बन जाता। उनके दो बेटे एकदम उन्हीं जैसे क्रूर थे। वे सभी मुझे अकसर कनवा-कनवा कह कर पुकारते थे।
साभार : तद्भव

10 comments:

Gyan Dutt Pandey said...

भारत अनेक सदियों में एक साथ जी रहा है!

अभय तिवारी said...

किताब पढ़ने लायक लग रही है..

प्रेमलता पांडे said...
This comment has been removed by the author.
प्रेमलता पांडे said...

धनबल और बाहुबल हमेशा ही सत्ताधारी रहा है ; सत्ता चाहे समाज की हो या राज की।

nainitaali said...

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बालकिशन said...

आपने तो किताब पढने की लालसा जगा दी है.
हाँ मुझे ये जरुर लगता है कि स्थिति मे सुधार हो रहा है.

ghughutibasuti said...

एकदम से बाँध लेने वाली रचना । मैं तो पूरी तरह खो गई थी और यह भी भूल गई थी पूरा पढ़ने को नहीं मिलेगी । इसकि जानकारी देने के लिए धन्यवाद ।
यह नैनीताल का क्या चक्कर है ?
घुघूती बासूती

मीनाक्षी said...

आपका लेख पढ़कर तद्भव में जाकर पहली किश्त पढ़ने का लोभ रोक न सकी...
रोमाँच पैदा करने वाला जीवन चरित्र ...
हमारे देश में एक एक कोस पर नई से नई भिन्नता जिसे सुन पढ़कर दाँतों तले उँगली दबा लेते हैं.

आनंद said...

इस जीवनी में पूरे समाज का सजीव विवरण है, बड़े आसान शब्‍दों में पूरा चित्र खींचा है। विशेषकर समाज से बाहर करने की प्रक्रिया। लेखक को बहुत बहुत बधाई। जैसे ही अगला अंक आएगा, कृपया बताएँ। कनवा प्रोफ़ेसर की कथा से परिचय कराने के लिए आपका बहुत बहुत धन्‍यवाद। आशा है इसी तरह जो भी विलक्षण चीज़ आपकी नज़रों में आती हैं, हमसे बाँटते रहेंगे।

अनूप शुक्ल said...

ये संस्मरण मैंने तद्भव में पढ़े हैं। मैंने पहले भी बताया था कि तद्भव बहुत अच्छी तैमासिक पत्रिका है।