गुरमुख सिंह के पुत्तर मोहना को हिंदी नहीं आती?

प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह कल आतंकी हमलों के शिकार लोगों के जख्मों पर मरहम लगाने अहमदाबाद गए तो सारे बयान अंग्रेज़ी में दिए। मेरे मन में सवाल उठा कि क्या पश्चिम पंजाब के गाह गांव में जन्मे गुरमुख सिंह और अमृत कौर के इस पुत्तर मोहना को हिंदी नहीं आती? पंजाबी तो आती ही है, फिर हिंदी कैसे नहीं आती होगी? कभी-कभार तो मनमोहन हिंदी में भी बोलते हुए पाए गए हैं! फिर अहमदाबाद में अंग्रेज़ी में बोलकर वो किसे संबोधित कर रहे थे? कम से कम गुजरात या देश के बाकी अवाम को तो नहीं। हो सकता हो दक्षिण भारत के लोगों को बता रहे हों। लेकिन टेलिविजन और फिल्मों के प्रभाव से तो अब दक्षिण के लोग भी अच्छी-खासी हिंदी समझने लगे हैं। हो सकता है कि मनमोहन साथ गई अपनी आका सोनिया गांधी को बता रहे हों। लेकिन सोनिया गांधी भी अब हिंदी समझने ही नहीं, बोलने भी लगी हैं!!!

असल में मुझे लगता है कि सवाल हिंदी भाषा का नहीं है। सवाल है प्रतिबद्धता का, प्राथमिकता का। मनमोहन सिंह की कोई प्रतिबद्धता भारतीय अवाम के प्रति नहीं है। राज्यसभा से चुनकर आया और सोनिया की कृपा से प्रधानमंत्री बन गया यह शख्स अवाम से सीधे रिश्तों की ऊष्मा से हमेशा अछूता रहा है। गरीब घर का यह बेटा ज़मीन और अपनों से कटता-कटता आज उस स्थिति में पहुंच गया है जहां अग्रेज़ी में सोचने-बोलने और हुक्म देनेवाला देशी-विदेशी आभिजात्य इसे सगा लगने लगा है, भले ही इसकी स्थिति उनके द्वारपाल या द्वार पर दुम हिलानेवाले कुत्ते की क्यों न हो। डॉ. मनमोहन सिंह आज भारतीय समाज की उस औपनिवेशिक तलछट के नुमाइंदे हैं जिसकी रग-रग में दलाली छाई हुई है और जो आज भी ग्लोबीकरण के नाम पर देशी-विदेशी पूंजी की दलाली कर रहा है।

आज के दौर में ग्लोबीकरण गलत नहीं है। लेकिन अपनी ज़मीन पर पैर जमकर जमें हो, तभी आप हाथ फैलाकर दुनिया को अपनी मुठ्ठी में कर सकते हैं। चीन इसका सशक्त उदाहरण है। वो देश में विदेशी पूंजी जमकर ला रहा है, लेकिन अपनी शर्तों पर। मगर मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और उनकी कांग्रेस पार्टी देश को अपने पैरों पर मजबूती से नहीं खड़ा होने देना चाहती। शब्दाम्बरों की कोई कमी नहीं है। मगर, असली नीयत इनके कामों और नीतियों से समझी जा सकती है। इन्होंने नाभिकीय ऊर्जा के नाम पर देश में नाभिकीय कचरा लाने का जो इंतज़ाम किया है, देश 25-30 साल बाद उस पर अपना माथा फोड़ेगा।

मनमोहन सिंह ने एक और भ्रम दूर किया है कि पढ़े-लिखे लोग राजनीति में आ जाएं तो देश का उद्धार हो सकता है। अरे, मनमोहन सिंह से ज्यादा पढ़ा-लिखा आज कौन हो सकता है। उनकी विद्वता और योग्यता के आगे बड़ी-बड़ी कंपनियों के सीईओ पानी भरेंगे। मनमोहन सिंह की निजी ईमानदारी पर भी कोई उंगली नहीं उठा सकता। लेकिन यह पढ़ा-लिखा ईमानदार और काबिल शख्स कर क्या रहा है? उसे अपने घर में मुकेश अंबानी और अनिल अंबानी के साथ अंग्रेज़ी में गिटिर-पिटिर करने की फुरसत मिल जाती है, लेकिन अवाम के बीच जाकर वो हिंदी में बात नहीं करता। ज़ाहिर है मनमोहन को गुजराती नहीं आती होगी, लेकिन अहमदाबाद में वो अपनी राष्ट्रभाषा में तो बात कर ही सकते थे।

आप कहेंगे कि भाषाएं जानने से कोई बड़ा नेता नहीं हो जाता। नरसिंह राव को सात भारतीय भाषाओं के अलावा पांच विदेशी भाषाएं आती थीं तो क्या वे बड़े नेता हो गए? आखिर भारतीय लोकतंत्र में सांसदों को खरीदने का सिलसिला तो नरसिंह राव ने ही शुरू किया था। फिर, अटल बिहारी वाजपेयी ने अगर संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण दे दिया तो उससे देश का क्या भला हो गया? सवाल जायज़ हैं। इन पर गहराई से विचार करने की ज़रूरत है। लेकिन मेरा बस इतना कहना है कि हमें उस ब्राह्मणवादी मानसिकता से जल्दी से जल्दी निजात पा लेनी चाहिए, जिसमें हम पढ़े-लिखे टॉपर लोगों को संस्कारवान मान लेते हैं। अरे, ऐसे ही टॉपर तो हमारे सरकारी तंत्र के सर्वोच्च पदों पर बैठे हैं। मनमोहन सिंह भी इन्हीं के राजनीतिक एक्सटेंशन हैं।

Comments

बहुत खूब.
जबरदस्त विचारोत्तेजक लेख.
सम्पूर्ण लेख में कई यक्ष प्रश्नों को उठाया आपने.
वास्तव में
"सवाल हिंदी भाषा का नहीं है। सवाल है प्रतिबद्धता का"
और
"आज के दौर में ग्लोबीकरण गलत नहीं है। लेकिन अपनी ज़मीन पर पैर जमकर जमें हो, तभी आप हाथ फैलाकर दुनिया को अपनी मुठ्ठी में कर सकते हैं। "
और
"मनमोहन सिंह ने एक और भ्रम दूर किया है कि पढ़े-लिखे लोग राजनीति में आ जाएं तो देश का उद्धार हो सकता है। "
और अंत में
"हमें उस ब्राह्मणवादी मानसिकता से जल्दी से जल्दी निजात पा लेनी चाहिए, जिसमें हम पढ़े-लिखे टॉपर लोगों को संस्कारवान मान लेते हैं। "
Anonymous said…
पुरानी कहावत है
"फारस गये मुगल बन आये, बोले मुगली बानी
आब आब कह मर गये मुन्ना खाट तले था पानी"

हमारे मुन्ना, मेरा मतलब है मोहना का बयान देशवासियों के लिये थोड़े ही था, विदेशियों के लिये था. वैसे भी इस करार के बाद मोहना हमारे कम बाहर वालों के ज्यादा लगते हैं.
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हिन्दी में बयान दे सकते हैं और उन्हें देना भी चाहिये। यदि उन्होंने अंग्रेजी में कोई बयान दिया है तो शायद वे यह सोचेंगे होंगे कि बाहर देश के राष्ट्राध्यक्ष और वहां के लोग भी उनकी बातों को समझ सकें।
Abhishek Ojha said…
हिन्दी दिवस पर भी ऐसे भाषण दिया जाता है:

"We should speak in Hindi" :-)
बहुत ही उच्चकोटि के विचार। शर्म आती है ऐसे भारतीय नेताओं, अभिनेताओं और गणमान्य व्यक्तिओं पर जो हिन्दी बोलने के कतराते हैं।
सामयिक मुद्दा और इसके लिए समाज में जागरुकता लानी ही चाहिए। अरे मेरा तो यह कहना है कि अगर कोई भारतीय गणमान्य भारत में या आवश्यकता न होने पर (जैसे अगर सामनेवाला भारतीय भाषा न समझता हो) भी अंग्रेजी बोले तो उसके लिए दंड का विधान होना चाहिए।
सर, मनमोहन को अंग्रेज और अंग्रेजी दोनों से बड़ी मोहब्बत है. तभी तो ये भारत में अंग्रेजों की हुकूमत की तारीफ करते हैं और अंग्रेजी बोलते हैं. अंग्रेजी पढ़ते हैं और अंग्रेजों से मिलना पसंद है. यहीं तक कि इन्होंने अपना आका चुना तो भी विदेशी. हालांकि सोनिया इंग्लैंड की नहीं हैं मगर उसके करीब की जरूर हैं.

कमाल का प्रधानमंत्री है हमारा और हम सबको अपने इस प्रधानमंत्री पर नाज़ है!
बढ़िया मुद्दा उठाया है आपने। हम हिन्दीसेवी इससे ज़रूर आहत महसूस करते हैं। लेकिन क्या करें... विदेशी शिक्षा कुछ तो असर दिखायेगी...।
एक ऎसा ईमान दार जिस के चारो ओर बेईमानो की फ़ोज हे,आप कभी भी किसी विदेशी(राजकिया) मेहमान को देखो वो हमेशा अपने देश की भाषा वोलेगा,उन्हे अपने देश से प्यार हे जो,लेकिन................
सोचने को मज़बूर करता है ये लेख.
पर कही लगता है हिन्दी ने आजादी दे 61 साल बाद भी गुलामी नहीं छोड़ी.
Tarun said…
bahut sahi vichaar hain, Desh ke andar to hindi me bola hi ja sakta hai, Bechare atanki bhi samajh nahi paaye honge ye munda mohena bol kya reha hai....
Asha Joglekar said…
बहुत ही विचार प्रवर्तक लेख । वैसे मैं भी भाटिया जी से सहमत हूँ ।
Unknown said…
सोनिया मैम बिलायत की क्षत्रप है और आपका यह मोहना उनका अर्दली । आप कैसी आशा करते है ईस गुरमुख के पुत्तर से ?
आप से पूरी तरह सहमत।
anil yadav said…
भाई लगता है मोहना ने आपकी भैंस कभी खोल ली थी .....
बहुत सही मुद्दे पर बहुत सटीक बात।
सहमत हूं।
आम जनता में अंग्रेजी से धाक जमती है इसलिए अंग्रेजी में बोले मनमोहनजी.

लोकतंत्र: जैसी प्रजा वैसा नेता.
गरिमा said…
मुझे नही लगता इस पर कुछ भी बोलना चाहिये, संसद मे जो कुछ भी हो चुका है, इसके बाद तो नेताओ पर किसी भी तरह की टिप्पणी करना व्यर्थ है, आप कहो कुछ भी वो करेंगे अपने मन की
दिमाग के तार हिला दिए आपके लेख ने !
कुछ लोग मायूस भी हैं की कुछ लिखने
कहने से क्या होगा ! साहब समय से
जरुर होगा ! आपने बहुत सही सही लिखा
है ! आपको बहुत धन्यवाद और शुभकामनाए !

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