अक्ल मगर लेफ्ट को नहीं आती
सीपीएम ने लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निकाल दिया है। यह फैसला पार्टी के पोलित ब्यूरो ने किया है। सोमनाथ पर आरोप है कि उन्होंने पार्टी अनुशासन तोड़ा है। सवाल उठता है कि जब लोकसभा अध्यक्ष की हैसियत से सोमनाथ को पार्टी व्हिप से बाहर रखा गया था तो आखिर उन्होंने कौन-सा अनुशासन तोड़ डाला। पढ़ने-लिखने और सोचने-समझने वाला आम भारतीय सीपीएम के इस फैसले से ज़रूर आहत होगा क्योंकि सोमनाथ के बारे में उसकी यही राय बनी है कि उन्होने लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं की गरिमा को बचाने का काम किया है। सीपीएम चाहती तो सोमनाथ की इस छवि का इस्तेमाल कर मध्यवर्ग में अपनी स्वीकृति बढ़ा सकती थी। लेकिन सीपीएम की अक्ल पर तो जैसे पत्थर पड़ा हुआ है।
वैसे भी सोमनाथ दादा राजनीति से संन्यास लेने का मन बना चुके हैं। वे कह चुके हैं कि अगला लोकसभा चुनाव वे नहीं लड़ेंगे। साथ ही उन्होंने संसद में विश्वास मत से पहले ही श्रीनिकेतन-शांतिनिकेतन डेवलपमेंट अथॉरिटी (एसएसडीए) के चेयरमैन पद से भी इस्तीफा भेज दिया था। यह पद उन्हें पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार ने सौंप रखा था। एसएसडीए का गठन सोमनाथ की ही पहल पर 1989 में किया गया था। इसके दायरे में विश्वभारती यूनिवर्सिटी, बोलपुर नगरपालिका और चार ग्राम पंचायतें आती हैं। इसका गठन सोमनाथ के लोकसभा क्षेत्र बोलपुर से सटे इलाकों के विकास के लिए किया गया था। सीधी-सी बात है कि जब सोमनाथ चटर्जी खुद ही राजनीति से बाहर होने का मन बना चुके हैं, तब उन्हें पार्टी से निकालने की कोई ज़रूरत नहीं थी।
सीपीएम का यह फैसला न केवल गैर-ज़रूरी था, बल्कि राजनीतिक रूप से नुकसानदेह भी है। हो सकता है इससे पार्टी के कुछ जड़सूत्रवादी नेता और कार्यकर्ता खुश हो जाएं, लेकिन न तो देश का व्यापक अवाम और न ही बोलपुर लोकसभा क्षेत्र के मतदाता पार्टी के इस फैसले को सकारात्मक रूप से ले पाएंगे। समझ में नहीं आता कि गलती पर गलती करनेवाले देश के संसदीय लेफ्ट को आखिर कब अक्ल आएगी?
वैसे भी सोमनाथ दादा राजनीति से संन्यास लेने का मन बना चुके हैं। वे कह चुके हैं कि अगला लोकसभा चुनाव वे नहीं लड़ेंगे। साथ ही उन्होंने संसद में विश्वास मत से पहले ही श्रीनिकेतन-शांतिनिकेतन डेवलपमेंट अथॉरिटी (एसएसडीए) के चेयरमैन पद से भी इस्तीफा भेज दिया था। यह पद उन्हें पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार ने सौंप रखा था। एसएसडीए का गठन सोमनाथ की ही पहल पर 1989 में किया गया था। इसके दायरे में विश्वभारती यूनिवर्सिटी, बोलपुर नगरपालिका और चार ग्राम पंचायतें आती हैं। इसका गठन सोमनाथ के लोकसभा क्षेत्र बोलपुर से सटे इलाकों के विकास के लिए किया गया था। सीधी-सी बात है कि जब सोमनाथ चटर्जी खुद ही राजनीति से बाहर होने का मन बना चुके हैं, तब उन्हें पार्टी से निकालने की कोई ज़रूरत नहीं थी।
सीपीएम का यह फैसला न केवल गैर-ज़रूरी था, बल्कि राजनीतिक रूप से नुकसानदेह भी है। हो सकता है इससे पार्टी के कुछ जड़सूत्रवादी नेता और कार्यकर्ता खुश हो जाएं, लेकिन न तो देश का व्यापक अवाम और न ही बोलपुर लोकसभा क्षेत्र के मतदाता पार्टी के इस फैसले को सकारात्मक रूप से ले पाएंगे। समझ में नहीं आता कि गलती पर गलती करनेवाले देश के संसदीय लेफ्ट को आखिर कब अक्ल आएगी?
Comments
इसके बाद तो कहने को सिर्फ यही बचता है सोमनाथ दा ने पोलित ब्यूरो के कुछ लोगों का अहम के अतिरिक्त कुछ नहीं तोड़ा। दादा की वर्तमान छवि सचमुच इस फैसले पर बेहद भारी दिखाई पड़ रही है।
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बहुत मस्त टिप्पणी अशोक!
आप कुछ और लेख लिखें इस मानसिकता पर। जिन वामपंथियों ने यह निर्णय लिया वे अकल के पैदल रहे होंगे। एक बार फ़िर लगा कि वामपंथी भारतीय जनमानस के नजदीक जाने का कोई भी मौका बेहिचक बेवकूफ़ी से खो देते हैं।
यह विश्वासमत की परेड विरोधी विचार वाली पार्टी से करके अब पार्टी कौन मुंह से साम्प्रदायिक पार्टियों का विरोध करेगी।
न्यूक्लियर डील देश के आमजनमानस के पल्ले न पड़ते वाली चीज है। इस डील के नाम पर सरकार से समर्थन वापस लेने की बजाय अगर ये लोग मंहगाई के नाम पर सरकार से समर्थन वापस लेते तो शायद देश का जनमानस उनके साथ होता, भले ही वे हार जाते।
सोमनाथ जी आज के दिन देश के सबसे ज्यादा सम्मानित सांसद हैं। कल के लोकसभा सत्र के बाद उनका कद और ऊंचा हुआ। सरकार के खिलाफ़ वोटिंग में भाजपा के साथ खड़े होने की बात सवाल उठाना सोमनाथ जी का सवाल एकदम जायज था। ऐसे में पार्टी की बात न मानने की बात कहकर उनको पार्टी से निकालना बेहद बचकान कदम है।
ऐसा लग रहा है सीपीएम पोलितव्यूरो में साठ-सत्तर साल की उमर के लौंडे बैठे हैं। दुख हो रहा है उनकी समझ पर।
-इतना ही समझ जाते तो आज ऐसे गुलाटी खाये न बैठे होते..