आखिर कुछ तो है जिसकी परदादारी है!!!
इतनी मामूली-सी बात पर सरकार को दांव पर लगा देना समझ में नहीं आता। लेफ्ट ने सरकार से मांग की थी कि अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) के प्रतिनिधियों के साथ उसने भारत-विषयक जिन सुरक्षा उपायों पर सहमति हासिल की है, उसका पूरा लिखित प्रारूप उन्हें दिखा दिया जाए। लेफ्ट ने आज प्रणब मुखर्जी को भेजी गई चिट्ठी में लिखा है, “16 नवंबर 2007 को यूपीए-लेफ्ट समन्वय समिति की छठी बैठक में तय हुआ था कि सरकार आईएईए के साथ वार्ता जारी रखेगी और बातचीत का जो भी नतीजा निकलेगा, उसे अंतिम रूप देने से पहले समिति के सामने विचार करने के लिए पेश करेगी।... लेकिन सहमति हो जाने के बाद भी अभी तक उसका प्रारूप समिति के सामने नहीं रखा गया है।”
प्रणब मुखर्जी ने इसका दो-टूक जवाब देते हुए कहा है कि सरकार आईएईए के साथ हुई सहमति का प्रारूप लेफ्ट को नहीं दिखा सकती क्योंकि यह भारत सरकार और अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के बीच हुए करार का एक ‘privileged’ गोपनीय दस्तावेज है। ध्यातव्य है कि यह दस्तावेज जब सरकार ने खुद को समर्थन दे रही लेफ्ट पार्टियों को नहीं दिखाया है तो संसद में रखने का सवाल ही नहीं उठता। यह दस्तावेज भारत-अमेरिकी परमाणु संधि का आधार बनेगा और इस सरकार के चले जाने के बाद भी हमारे आनेवाली पीढियां इससे बंधी रहेंगी। सवाल उठता है कि क्या ऐसा कोई अहम दस्तावेज संसद से छिपाया जा सकता है? क्या देश की संप्रभुता देश के चुने हुए प्रतिनिधियों से बने संसद में निहित है या कांग्रेस पार्टी की अध्यक्षा द्वारा मनोनीत नौकरशाह प्रधानमंत्री की अगुआई में चल रही सरकार में?
लेफ्ट ने अगर इतने अहम दस्तावेज को न दिखाए जाने के मुद्दे को आधार बनाकर यूपीए सरकार से समर्थन वापस ले लिया, तो क्या गुनाह किया? 10 जुलाई को यूपीए-लेफ्ट समन्वय समिति की अगली बैठक होनी थी। लेकिन लेफ्ट ने कहा कि जब बैठक से पहले ही प्रधानमंत्री मनमोहन ने टोक्यो में ऐलान कर दिया कि सरकार आईएईए के गवर्निंग बोर्ड के साथ बैठक में हिस्सा लेगी तो ये बैठक बेमानी हो गई थी। वैसे, तय कार्यक्रम के मुताबिक आईएईए की बैठक विएना में 28 जुलाई को होनी है और खबरों के मुताबिक सरकार जुलाई के दूसरे हफ्ते में आईएईए के प्रतिनिधियों के साथ हुए सहमति के प्रारूप को अधिसूचित कर देगी। क्या लेफ्ट की शंकाओं को दूर करने के लिए सरकार इसे हफ्ते भर पहले नहीं सार्वजनिक कर सकती थी?
लेकिन सरकार ने गोपनीयता को बचाने के लिए सत्ता के उस जगजाहिर दलाल का सहारा लेना वाजिब समझा जो सत्ता की गंध मिलते ही अपने औद्योगिक आका अनिल अंबानी के हित साधन और मुकेश अंबानी को नुकसान पहुंचाने की जुगत में लग गया है। अमर सिंह ने भले ही समाजवादी पार्टी के 36 (39 नहीं) सांसदों का समर्थन यूपीए सरकार को दिलवा दिया हो, लेकिन ऐसे अवसरवादियों के साथ की बड़ी कीमत सरकार को चुकानी पड़ेगी। अमेरिकी लॉबी जुट गई है कि किसी भी सूरत में, कभी बिजली के नाम पर तो कभी कोई दूसरा हौवा दिखाकर, इस संधि को अंजाम पर पहुंचा दिया जाए। लेकिन अगर संधि इतना ही ज्यादा देशहित में है तो सरकार आईएईए के साथ हुए सहमति के दस्तावेज को छिपा क्यों रही है? लोगबाग तो यही कहेंगे न कि कुछ तो है जिसकी परदादारी है!!!
फोटो सौजन्य: assbach
प्रणब मुखर्जी ने इसका दो-टूक जवाब देते हुए कहा है कि सरकार आईएईए के साथ हुई सहमति का प्रारूप लेफ्ट को नहीं दिखा सकती क्योंकि यह भारत सरकार और अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के बीच हुए करार का एक ‘privileged’ गोपनीय दस्तावेज है। ध्यातव्य है कि यह दस्तावेज जब सरकार ने खुद को समर्थन दे रही लेफ्ट पार्टियों को नहीं दिखाया है तो संसद में रखने का सवाल ही नहीं उठता। यह दस्तावेज भारत-अमेरिकी परमाणु संधि का आधार बनेगा और इस सरकार के चले जाने के बाद भी हमारे आनेवाली पीढियां इससे बंधी रहेंगी। सवाल उठता है कि क्या ऐसा कोई अहम दस्तावेज संसद से छिपाया जा सकता है? क्या देश की संप्रभुता देश के चुने हुए प्रतिनिधियों से बने संसद में निहित है या कांग्रेस पार्टी की अध्यक्षा द्वारा मनोनीत नौकरशाह प्रधानमंत्री की अगुआई में चल रही सरकार में?
लेफ्ट ने अगर इतने अहम दस्तावेज को न दिखाए जाने के मुद्दे को आधार बनाकर यूपीए सरकार से समर्थन वापस ले लिया, तो क्या गुनाह किया? 10 जुलाई को यूपीए-लेफ्ट समन्वय समिति की अगली बैठक होनी थी। लेकिन लेफ्ट ने कहा कि जब बैठक से पहले ही प्रधानमंत्री मनमोहन ने टोक्यो में ऐलान कर दिया कि सरकार आईएईए के गवर्निंग बोर्ड के साथ बैठक में हिस्सा लेगी तो ये बैठक बेमानी हो गई थी। वैसे, तय कार्यक्रम के मुताबिक आईएईए की बैठक विएना में 28 जुलाई को होनी है और खबरों के मुताबिक सरकार जुलाई के दूसरे हफ्ते में आईएईए के प्रतिनिधियों के साथ हुए सहमति के प्रारूप को अधिसूचित कर देगी। क्या लेफ्ट की शंकाओं को दूर करने के लिए सरकार इसे हफ्ते भर पहले नहीं सार्वजनिक कर सकती थी?
लेकिन सरकार ने गोपनीयता को बचाने के लिए सत्ता के उस जगजाहिर दलाल का सहारा लेना वाजिब समझा जो सत्ता की गंध मिलते ही अपने औद्योगिक आका अनिल अंबानी के हित साधन और मुकेश अंबानी को नुकसान पहुंचाने की जुगत में लग गया है। अमर सिंह ने भले ही समाजवादी पार्टी के 36 (39 नहीं) सांसदों का समर्थन यूपीए सरकार को दिलवा दिया हो, लेकिन ऐसे अवसरवादियों के साथ की बड़ी कीमत सरकार को चुकानी पड़ेगी। अमेरिकी लॉबी जुट गई है कि किसी भी सूरत में, कभी बिजली के नाम पर तो कभी कोई दूसरा हौवा दिखाकर, इस संधि को अंजाम पर पहुंचा दिया जाए। लेकिन अगर संधि इतना ही ज्यादा देशहित में है तो सरकार आईएईए के साथ हुए सहमति के दस्तावेज को छिपा क्यों रही है? लोगबाग तो यही कहेंगे न कि कुछ तो है जिसकी परदादारी है!!!
फोटो सौजन्य: assbach
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Anyway, nice blog. I alway love to interact on political issue. I will be regular reader of your political postings.