होली गांवों का कार्निवाल थी, अब शहरी त्यौहार है
कल सोचा था कि आज भूमि के राष्ट्रीयकरण के भारी-भरकम विषय की थाह लगाऊंगा, लेकिन आज लिखने बैठा तो लगा कि होली के माहौल में चट्टान से टकराना वाजिब नहीं होगा। जुबान से तो आप सभी को होली मुबारक कह रहा हूं, लेकिन जेहन में सालों-साल की छवियां उसी तरह सिकुड़ कर घनी हो गई हैं, जैसे भांग के नशे में दूरियों और समय के फासले सिमट जाया करते हैं। होली से जुड़ी पुरानी छवियां बिना सांकल बजाए दाखिल हो रही हैं और माथे में धम-धम करने लगी हैं।
गांव के बाहर होलिका सजाई जा चुकी है। खर-पतवार और गन्ने की पत्तियों से लेकर सूखे पेड़ की डालियां तक उसमें डाल दी गई होती हैं। शाम होते-होते हर घर के आंगन में बच्चों को उबटन (पिसे हुए सरसों का लेप) लगाकर उसका चूरा इकट्ठा कर लिया जाता है। चूरे में थोड़ा पानी और गोबर मिलाकर टिकिया जैसी बना ली जाती हैं। फिर उनके बीच अलसी के पौधों के तने डालकर लड़ी जैसी बना ली जाती है। बड़ों के साथ बच्चे भी मुकर्रर वक्त पर होलिया दहन के लिए जत्थे बनाकर पहुंचते हैं।
गांव का कोई निर्वंश (निरबसिया, अविवाहित अधेड़) आदमी या पंडित होलिका के फेरे लगाकर आग लगाता है। फिर शुरू होता है गालियों का दौर, जिन्हें कबीर या कबीरा कहते थे। अलसी के पौधे समेत हम लोग उबटन के चूरे और गोबर की टिकियों की लड़ी होलिका में फेंक देते थे। बाद में होलिका की आग शांत होने पर सभी कोई न कोई लड़ी लेकर घर लौटते थे, जो अगली होली तक घर के किसी आले या छत के किसी कोने में पड़ी रहती थी।
अगले दिन बड़ों की हिदायत रहती कि दोपहर तक घर से बाहर नहीं निकलना है क्योंकि उस वक्त कहीं से नाली या पंडोह का कीचड़ फेंका जा सकता था। दोपहर के बाद रंगों की बाल्टियां भर-भर के नौजवानों के जत्थे निकल पड़ते। हर घर के बाहर रुकते। फलाने की मां, फलाने की भौजी के नाम से गालियां लय-ताल में बोली जातीं और ऐसे-ऐसे प्रतीक कि लगता भूचाल आ गया हो। हर दरवाज़ें पर सूखे मेवे के साथ गुझिया, मालपूआ वगैरह रखा रहता है, जिसे चखकर जत्था आगे बढ़ जाता। जत्थे में और लोग जुड़ जाते। धीरे-धीरे रंगों की जगह अबीर-गुलाल ले लेता। शाम ढलते-ढलते कम से कम दो-तीन ठिकानों पर फगुआ गाया जाता। भांग और ठंडई का खास इंतज़ाम होता। गाना-बजाना कम से कम 9 बजे रात तक चलता। फिर सभी अपने-अपने घर। अगला दिन होली की खुमारी उतारने में चला जाता।
साल बीतते गए। होली में गालियां कम होती गईं। एक बार एक जत्थे के लोग काकी को गालियां सुना रहे थे तो फौजी काका ने कट्टा निकाल लिया और चला दी गोली। मौके पर ही एक की मौत हो गई। चार घायल हो गए। फिर तो होली पर दुश्मनी के ऐसे विस्फोट की वारदातें बढ़ती गईं। अब तो बताते हैं कि गांव में होली पर मातम-सा माहौल रहता है। जिनकी औकात है वो लोग अब भी गुझिया और मालपूआ बनाकर खा लेते हैं। बच्चे अबीर-गुलाल लगा लेते हैं। लेकिन रंग सूख चुके हैं। कीचड़ अब नालियों और पंडोहों में ही सड़ता रहता है। एक और बदलाव हुआ है कि पहले दलित समुदाय होली के जश्न से बाहर दक्खिन पट्टी में ही शांत बैठा रहता था। अब वहां भी होली मनाई जाती है। कुछ हद तक गाली-गलौच और मारपीट वहां भी होती है।
आज मुंबई में बैठे-बैठे मुझे लगता है कि गांवों में पहले होली का त्यौहार विदेशों के कार्निवाल की तरह हुआ करता था, जिसमें दबे हुए जज्बात और कुंठाएं फूटकर बाहर निकलती थीं। रबी की फसल कटकर घर आने के बाद कई महीनों का सुकून रहता था और इस सुकून में साल भर में मन और तन पर जमा हुई गंदगी बाहर निकाल दी जाती थी। लेकिन अब होली ही नहीं, दीवाली जैसे सामूहिक त्योहारों ने कस्बों, शहरों और महानगरों का रुख कर लिया है। आज मैंने टीवी पर देखा कि आशाराम बापू कहीं सूरत में मंच से मशीनी पिचकारी के जरिए दसियों हज़ार की भीड़ पर रंग-गुलाल बिखेर रहे थे। चैनलों पर होली के रंग बिखरे हैं। बाज़ार और बाबाओं ने होली को हथिया लिया है।
जो होली कभी हमारा देशी कार्निवाल हुआ करती था, वह अब शहर का महज एक त्यौहार बनकर रह गई है। पहले लोग अपने-अपने दरवाज़ों के तंबू-कनात, चौखट-बाजू, तख्त-चारपाई बचाकर रखते थे कि कहीं कुछ मस्ताने शोहदे सारा कुछ होलिका दहन के हवाले न कर दें। लेकिन अब कोई डर नहीं। सब कुछ प्रायोजित और पहले से तय है। आखिर में उर्मिलेश ‘शंखधर’ की कविता की ये पंक्तियां पेश करना चाहता हूं कि ...
होंठ अब उसके भी इंचों में हँसा करते हैं।
उसकी सोहबत न बना दे कहीं शहरी हमको।।
गांव के बाहर होलिका सजाई जा चुकी है। खर-पतवार और गन्ने की पत्तियों से लेकर सूखे पेड़ की डालियां तक उसमें डाल दी गई होती हैं। शाम होते-होते हर घर के आंगन में बच्चों को उबटन (पिसे हुए सरसों का लेप) लगाकर उसका चूरा इकट्ठा कर लिया जाता है। चूरे में थोड़ा पानी और गोबर मिलाकर टिकिया जैसी बना ली जाती हैं। फिर उनके बीच अलसी के पौधों के तने डालकर लड़ी जैसी बना ली जाती है। बड़ों के साथ बच्चे भी मुकर्रर वक्त पर होलिया दहन के लिए जत्थे बनाकर पहुंचते हैं।
गांव का कोई निर्वंश (निरबसिया, अविवाहित अधेड़) आदमी या पंडित होलिका के फेरे लगाकर आग लगाता है। फिर शुरू होता है गालियों का दौर, जिन्हें कबीर या कबीरा कहते थे। अलसी के पौधे समेत हम लोग उबटन के चूरे और गोबर की टिकियों की लड़ी होलिका में फेंक देते थे। बाद में होलिका की आग शांत होने पर सभी कोई न कोई लड़ी लेकर घर लौटते थे, जो अगली होली तक घर के किसी आले या छत के किसी कोने में पड़ी रहती थी।
अगले दिन बड़ों की हिदायत रहती कि दोपहर तक घर से बाहर नहीं निकलना है क्योंकि उस वक्त कहीं से नाली या पंडोह का कीचड़ फेंका जा सकता था। दोपहर के बाद रंगों की बाल्टियां भर-भर के नौजवानों के जत्थे निकल पड़ते। हर घर के बाहर रुकते। फलाने की मां, फलाने की भौजी के नाम से गालियां लय-ताल में बोली जातीं और ऐसे-ऐसे प्रतीक कि लगता भूचाल आ गया हो। हर दरवाज़ें पर सूखे मेवे के साथ गुझिया, मालपूआ वगैरह रखा रहता है, जिसे चखकर जत्था आगे बढ़ जाता। जत्थे में और लोग जुड़ जाते। धीरे-धीरे रंगों की जगह अबीर-गुलाल ले लेता। शाम ढलते-ढलते कम से कम दो-तीन ठिकानों पर फगुआ गाया जाता। भांग और ठंडई का खास इंतज़ाम होता। गाना-बजाना कम से कम 9 बजे रात तक चलता। फिर सभी अपने-अपने घर। अगला दिन होली की खुमारी उतारने में चला जाता।
साल बीतते गए। होली में गालियां कम होती गईं। एक बार एक जत्थे के लोग काकी को गालियां सुना रहे थे तो फौजी काका ने कट्टा निकाल लिया और चला दी गोली। मौके पर ही एक की मौत हो गई। चार घायल हो गए। फिर तो होली पर दुश्मनी के ऐसे विस्फोट की वारदातें बढ़ती गईं। अब तो बताते हैं कि गांव में होली पर मातम-सा माहौल रहता है। जिनकी औकात है वो लोग अब भी गुझिया और मालपूआ बनाकर खा लेते हैं। बच्चे अबीर-गुलाल लगा लेते हैं। लेकिन रंग सूख चुके हैं। कीचड़ अब नालियों और पंडोहों में ही सड़ता रहता है। एक और बदलाव हुआ है कि पहले दलित समुदाय होली के जश्न से बाहर दक्खिन पट्टी में ही शांत बैठा रहता था। अब वहां भी होली मनाई जाती है। कुछ हद तक गाली-गलौच और मारपीट वहां भी होती है।
आज मुंबई में बैठे-बैठे मुझे लगता है कि गांवों में पहले होली का त्यौहार विदेशों के कार्निवाल की तरह हुआ करता था, जिसमें दबे हुए जज्बात और कुंठाएं फूटकर बाहर निकलती थीं। रबी की फसल कटकर घर आने के बाद कई महीनों का सुकून रहता था और इस सुकून में साल भर में मन और तन पर जमा हुई गंदगी बाहर निकाल दी जाती थी। लेकिन अब होली ही नहीं, दीवाली जैसे सामूहिक त्योहारों ने कस्बों, शहरों और महानगरों का रुख कर लिया है। आज मैंने टीवी पर देखा कि आशाराम बापू कहीं सूरत में मंच से मशीनी पिचकारी के जरिए दसियों हज़ार की भीड़ पर रंग-गुलाल बिखेर रहे थे। चैनलों पर होली के रंग बिखरे हैं। बाज़ार और बाबाओं ने होली को हथिया लिया है।
जो होली कभी हमारा देशी कार्निवाल हुआ करती था, वह अब शहर का महज एक त्यौहार बनकर रह गई है। पहले लोग अपने-अपने दरवाज़ों के तंबू-कनात, चौखट-बाजू, तख्त-चारपाई बचाकर रखते थे कि कहीं कुछ मस्ताने शोहदे सारा कुछ होलिका दहन के हवाले न कर दें। लेकिन अब कोई डर नहीं। सब कुछ प्रायोजित और पहले से तय है। आखिर में उर्मिलेश ‘शंखधर’ की कविता की ये पंक्तियां पेश करना चाहता हूं कि ...
होंठ अब उसके भी इंचों में हँसा करते हैं।
उसकी सोहबत न बना दे कहीं शहरी हमको।।
Comments
वो गाँव सी होली अब देखने कहाँ मिलती है . अब त्यौहार मनाने के तौर तरीको मे काफी बदलाव आ गए है बदलते समय के साथ साथ त्यौहार मनाने के माइने भी बदल गए है . अपने गाँव की होली को अपनी कलम से बखूबी से उकेरा है जिस हेतु आप धन्यवाद के पात्र है . होली की ढेरों शुभकामना के साथ
:(
आपको होली की बधाई !
सपरिवार आपको होली मुबारक हो।
बहुत सुन्दर। बहुत मुबारक होली।
(साम्यवाद में कोई सन्दर्भ है होली का?! :) )
Anshu Jain
Anshu Jain
22 March, 2008 11:52 AM
vipin