प्यार का राजनीतिक नाम भी कभी हुआ करता था
शीतयुद्ध की समाप्ति (3 दिसंबर 1989) और बर्लिन दीवार के ढहने (9 नवंबर 1989) के बाद 18 साल से ज्यादा का वक्त बीत चुका है। उस वक्त कहा गया था कि समाजवादी खेमे ने जो अवरोध खड़े कर रखे थे, उनके हटने के बाद सारी दुनिया तेज़ी से तरक्की करेगी। सामाजिक विषमता दूर होगी। हर तरफ अमन-चैन होगा। लेकिन न तो अमन-चैन कायम हुआ है और न ही सामाजिक विषमता मिटी है। इस समय दुनिया की आबादी लगभग 6.6 अरब है। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक इसमें से दो-तिहाई लोग गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं, जबकि करीब 1.4 अरब लोग ठीक गरीबी रेखा पर हैं यानी उनकी रोज़ की आमदनी एक अमेरिकी डॉलर (40 रुपए) के आसपास है। इनमें से 85.40 करोड़ लोग भयंकर भुखमरी का शिकार हैं।
500 अरब डॉलर दुनिया के ज्यादातर लोगों को भुखमरी की हालत से निकालने के लिए पर्याप्त हैं, लेकिन आज दुनिया के रहनुमा भूख और गरीबी के आंकड़े तो जुटाते हैं, मगर हर साल इसकी दोगुनी रकम हथियारों पर खर्च देते हैं। मौत में निवेश करो, संहार में निवेश करो, जीवन में नहीं। यह है पूंजीवादी व्यवस्था का तर्क। लेकिन सवाल उठता है कि सिद्धांत में पूंजीवाद का मानवीय विकल्प पेश करने का दावा करनेवाला समाजवाद व्यवहार में फिसड्डी क्यों साबित हो गया? यूरोप से लेकर एशिया तक इसके परखच्चे क्यों उड़ गए?
इसके कई जवाब हैं। एक, पूंजीवाद कमज़ोर नहीं, बल्कि बड़ा शातिर निकला। इसने स्वामित्व का आधार बढ़ा दिया। प्रबंधन में श्रमिकों की भागीदारी, कर्मचारियों को स्टॉक ऑप्शन में कंपनी के हज़ारों-लाखों शेयर देना और शेयरधारिता की संस्कृति। आज रिलायंस के दो हिस्सों के मालिक अनिल और मुकेश अंबानी ही हैं, लेकिन कहने को इस उद्योग समूह का मालिकाना 25 लाख से ज्यादा आम निवेशकों के बीच बंटा हुआ है।
पूंजीवाद आज भी सपने बेचने और उनके सच होने की सूरत दिखाने में सफल है। झुग्गी में बैठे हुए बीमार को भी लगता है कि किसी दिन उसकी लॉटरी निकल आएगी और वह करोड़पति बन जाएगा। अभी हाल ही में तो मुंबई में बीएमसी का एक सफाईकर्मी ऐसे ही करोड़पति बना है। तीसरे, इसने लोगों को बोलने का, शिकायत करने का मौका दे रखा है। स्वास्थ्य सेवा से लेकर बुढ़ापे के इंतज़ाम तक की कल्याणकारी योजनाएं चला रखी हैं। पूंजीवाद यह भ्रम बनाए रखने में कामयाब रहा है कि दोष व्यक्तियों का है, उनके भ्रष्टाचार का है, वरना इस व्यवस्था में जन कल्याण और प्रगति की सारी चीजें, सारे मौके उपलब्ध हैं।
इसके विपरीत समाजवाद ने सबके भले की बात करते हुए सारी सहूलियतों को पार्टी तंत्र और नौकरशाही के हाथों में केंद्रित कर दिया, उनका निजीकरण कर दिया। सारे उद्योग सरकार के, अंतिम फैसला पार्टी के नेताओं का। आप ज्यादा बोलोगे तो गोलियों से उड़ा दिए जाओगे, लोगों के हुजूम का मुकाबला टैंकों से किया जाएगा। सिविल सोसायटी की स्वायत्तता इसने तोड़ डाली। हज़ार फूलों को खिलने दो, हज़ारों विचार-शाखाओं में होड़ होने दो ...यह सब कुछ बस कहने भर को रह गया। व्यवहार में आलोचना करनेवालों को प्रति-क्रांतिकारी घोषित कर दिया गया। सत्ता में बैठे लोग अलग जाति में बदल गए और व्यापक अवाम से उनके फासले बढ़ते चले गए।
अंतरिक्ष में यान भेजते रहे, युद्ध के शानदार हथियारों पर अरबों पर लुटाते रहे, लेकिन आम लोगों को ब्रेड तक के लाले पड़ गए। जवान लड़कियां ब्रेड के लिए अपना जिस्म लुटाने लगीं। नतीज़ा सामने है, एक समय जिस समाजवाद और मार्क्सवादी दर्शन का लोहा दुश्मन तक मानता था, आज वह दुनिया भर में उपहास का पात्र बन गया है, उसे गुजरे ज़माने की विलुप्त होती चीज़ माना जाता है।
तो क्या फुकुयामा के कथन को सच मान लिया जाए कि अब मानवजाति का विचारधारात्मक विकासक्रम आखिरी मुकाम तक पहुंच चुका है और पश्चिमी उदार लोकतंत्र का सार्वभौमिकीकरण ही मानव विकास का अंतिम साधन है? मुझे लगता है, ऐसा मानना प्रचार के झांसे में आने जैसा होगा। सच यही है कि जो व्यवस्था जीवन के बजाय मौत में निवेश करती हो, वह मानवजाति के विकास का अंतिम सोपान नहीं हो सकती। यह व्यवस्था वो नया इंसान नहीं बना सकती जो सामूहिक हितों में निजी हितों की पूर्ति देखता हो, जो नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों से ओतप्रोत हो। एक समय में समाजवाद को प्यार का राजनीतिक नाम कहा जाता था। आज भी प्यार का सिर्फ और सिर्फ एक ही राजनीतिक नाम है और वह है समाजवाद।
संदर्भ: Frei Betto का एक लेख/ फोटो सौजन्य: Artchestra
500 अरब डॉलर दुनिया के ज्यादातर लोगों को भुखमरी की हालत से निकालने के लिए पर्याप्त हैं, लेकिन आज दुनिया के रहनुमा भूख और गरीबी के आंकड़े तो जुटाते हैं, मगर हर साल इसकी दोगुनी रकम हथियारों पर खर्च देते हैं। मौत में निवेश करो, संहार में निवेश करो, जीवन में नहीं। यह है पूंजीवादी व्यवस्था का तर्क। लेकिन सवाल उठता है कि सिद्धांत में पूंजीवाद का मानवीय विकल्प पेश करने का दावा करनेवाला समाजवाद व्यवहार में फिसड्डी क्यों साबित हो गया? यूरोप से लेकर एशिया तक इसके परखच्चे क्यों उड़ गए?
इसके कई जवाब हैं। एक, पूंजीवाद कमज़ोर नहीं, बल्कि बड़ा शातिर निकला। इसने स्वामित्व का आधार बढ़ा दिया। प्रबंधन में श्रमिकों की भागीदारी, कर्मचारियों को स्टॉक ऑप्शन में कंपनी के हज़ारों-लाखों शेयर देना और शेयरधारिता की संस्कृति। आज रिलायंस के दो हिस्सों के मालिक अनिल और मुकेश अंबानी ही हैं, लेकिन कहने को इस उद्योग समूह का मालिकाना 25 लाख से ज्यादा आम निवेशकों के बीच बंटा हुआ है।
पूंजीवाद आज भी सपने बेचने और उनके सच होने की सूरत दिखाने में सफल है। झुग्गी में बैठे हुए बीमार को भी लगता है कि किसी दिन उसकी लॉटरी निकल आएगी और वह करोड़पति बन जाएगा। अभी हाल ही में तो मुंबई में बीएमसी का एक सफाईकर्मी ऐसे ही करोड़पति बना है। तीसरे, इसने लोगों को बोलने का, शिकायत करने का मौका दे रखा है। स्वास्थ्य सेवा से लेकर बुढ़ापे के इंतज़ाम तक की कल्याणकारी योजनाएं चला रखी हैं। पूंजीवाद यह भ्रम बनाए रखने में कामयाब रहा है कि दोष व्यक्तियों का है, उनके भ्रष्टाचार का है, वरना इस व्यवस्था में जन कल्याण और प्रगति की सारी चीजें, सारे मौके उपलब्ध हैं।
इसके विपरीत समाजवाद ने सबके भले की बात करते हुए सारी सहूलियतों को पार्टी तंत्र और नौकरशाही के हाथों में केंद्रित कर दिया, उनका निजीकरण कर दिया। सारे उद्योग सरकार के, अंतिम फैसला पार्टी के नेताओं का। आप ज्यादा बोलोगे तो गोलियों से उड़ा दिए जाओगे, लोगों के हुजूम का मुकाबला टैंकों से किया जाएगा। सिविल सोसायटी की स्वायत्तता इसने तोड़ डाली। हज़ार फूलों को खिलने दो, हज़ारों विचार-शाखाओं में होड़ होने दो ...यह सब कुछ बस कहने भर को रह गया। व्यवहार में आलोचना करनेवालों को प्रति-क्रांतिकारी घोषित कर दिया गया। सत्ता में बैठे लोग अलग जाति में बदल गए और व्यापक अवाम से उनके फासले बढ़ते चले गए।
अंतरिक्ष में यान भेजते रहे, युद्ध के शानदार हथियारों पर अरबों पर लुटाते रहे, लेकिन आम लोगों को ब्रेड तक के लाले पड़ गए। जवान लड़कियां ब्रेड के लिए अपना जिस्म लुटाने लगीं। नतीज़ा सामने है, एक समय जिस समाजवाद और मार्क्सवादी दर्शन का लोहा दुश्मन तक मानता था, आज वह दुनिया भर में उपहास का पात्र बन गया है, उसे गुजरे ज़माने की विलुप्त होती चीज़ माना जाता है।
तो क्या फुकुयामा के कथन को सच मान लिया जाए कि अब मानवजाति का विचारधारात्मक विकासक्रम आखिरी मुकाम तक पहुंच चुका है और पश्चिमी उदार लोकतंत्र का सार्वभौमिकीकरण ही मानव विकास का अंतिम साधन है? मुझे लगता है, ऐसा मानना प्रचार के झांसे में आने जैसा होगा। सच यही है कि जो व्यवस्था जीवन के बजाय मौत में निवेश करती हो, वह मानवजाति के विकास का अंतिम सोपान नहीं हो सकती। यह व्यवस्था वो नया इंसान नहीं बना सकती जो सामूहिक हितों में निजी हितों की पूर्ति देखता हो, जो नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों से ओतप्रोत हो। एक समय में समाजवाद को प्यार का राजनीतिक नाम कहा जाता था। आज भी प्यार का सिर्फ और सिर्फ एक ही राजनीतिक नाम है और वह है समाजवाद।
संदर्भ: Frei Betto का एक लेख/ फोटो सौजन्य: Artchestra
Comments
पूंजीवाद बनाम समाजवाद का ऐसा मर्म-उदघाटक चित्र !
इतने कम शब्दों में आँकड़ों से लेकर अन्तर्तम तक उडेल देने का माद्दा !
सचमुच अनिल जी ,आपको सारस्वत प्रतिभा का वरदान प्राप्त है .
ये सब मैं स्तुति-संस्तुति की खातिर नहीं बल्कि इसलिए कह रहा हूँ कि
मौत पर मर्सिया पड़ने वालों को अब,
ज़िंदगी को ठुकराने वालों की बदस्तूर जारी बदनीयती को भी समझना होगा.
आप जैसे कलमकार इस समझ के सच्चे वाहक की भूमिका निभा रहे हैं .
भूख,ग़रीबी ,फ़ाक़ापरस्ती से हो रही मौत को मात दिए बगैर
कई भी वाद , विवाद के दायरे से बाहर नहीं हो सकता !
पर शायद यह न लिखा जाये तो लिखने को विषय न मिलें रोज रोज!
समाजवाद ने बीसवी सदी की शुरुआत में मार्क्स आंदोलन के समय ज़ोर पकड़ा और तीसरी दुनिया मे भी कुछ हलचल हुई. भारत को जब आज़ादी मिली तो तो हमारे रहनुमाओं ने समाजवाद का नारा बुलंद किया. उनकी सोच एक उदार और बराबरी का समाज बनाने की थी. पर इंदिरा गाँधी के जमाने तक आते आते समाजवाद की परिभाषा काफ़ी बदल चुकी थी. Equal distribution of wealth के नियम का कत्ल हुआ और उदय हुआ पूंजीवाद का.
आज हालत ये है की समाजवाद के नाम पर राजनीति करने वाली पार्टियों मे वंशवाद हावी है. यहा तक की लेफ्ट खेमे के मसीहा, श्री ज्योति बसु तक को कहना पड़ा की भारत मे समाजवाद नही पनप सकता. पूंजीवाद है और चलेगा भी पर कब तक? सवाल लाख टके का है. एक अच्छी पोस्ट देने के लिए धन्यवाद.