काटजू को तो देश का चीफ जस्टिस होना चाहिए
जी हां, मैं सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू की बात कर रहा हूं। उन्होंने आज ही फैसला सुनाया है कि हर भारतीय को देश में किसी भी कोने में जाकर बसने का अधिकार है। न्यायमूर्ति एच के सेमा और मार्कण्डेय काटजू की खंडपीठ का कहना है कि, “भारत राज्यों का कोई एसोसिएशन (संगठन) या कनफेडरेशन (महासंघ) नहीं है। यह राज्यों का यूनियन (संघ) है। यहां केवल एक राष्ट्रीयता है और वह है भारतीयता। इसलिए हर भारतीय को देश में कहीं भी जाने का अधिकार है, कहीं भी बसने का अधिकार है, देश के किसी भी हिस्से में शांतिपूर्वक अपनी पसंद का काम-धंधा करने का हक है।” यानी अगर राज ठाकरे जैसे लोग मुंबई और महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों के खिलाफ ‘जेहाद’ चलाते हैं, तो वे कानून और संविधान के मुजरिम हैं।
मार्कण्डेय काटजू अपने न्यायिक करियर में अब तक कई शानदार, मगर विवादास्पद फैसले सुना चुके हैं। आपको याद होगा कि साल भर पहले उन्होंने चारा घोटाले में दोषी करार दिए गए एक सरकारी अधिकारी की जमानत पर सुनवाई करते वक्त कहा था कि, “हर कोई इस देश को लूटना चाहता है। इसे रोकने का एक ही जरिया है कि कुछ भ्रष्ट लोगों को लैंप-पोस्ट से लटकाकर फांसी दे दी जाए। लेकिन कानून हमें इजाज़त नहीं देता, वरना हम भ्रष्टाचारियों को फांसी पर लटका देते।” इससे पहले साल 2005 में मद्रास हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस रहने के दौरान भी उन्होंने एक समारोह में जबरदस्त बात कही थी कि, “आम लोगों को न्यायपालिका की आलोचना करने का अधिकार है क्योंकि लोकतंत्र में जनता सर्वोच्च होती है और जजों समेत सारे सरकारी अधिकारी जनता के नौकर हैं।”
जस्टिस काटजू सुप्रीम कोर्ट में 10 अप्रैल 2006 से आए हैं और 20 सितंबर 2011 को रिटायर होंगे। मेरी दिली ख्वाहिश है कि उनको देर-सबेर भारत का चीफ जस्टिस बना देना चाहिए। इसकी एक वजह तो यह है कि कानून की उनकी समझ बड़ी लोकतांत्रिक और जनोन्मुखी है। दूसरे वे कानून की बारीकियों को बखूबी समझते हैं। बचपन से ही इसी माहौल में पले पढ़े हैं। उनके पिता एस एन काटजू इलाहाबाद हाईकोर्ट के पूर्व जज थे। उनके बाबा डॉक्टर के एन काटजू देश के गृहमंत्री और रक्षामंत्री थे और बाद में उड़ीसा के राज्यपाल और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे। उनके चाचा बी एन काटजू इलाहाबाद हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस थे। कहने का मतलब यह है कि मार्कण्डेय काटजू को कानून से लेकर सत्ता संरचना का बड़ा करीबी अनुभव है।
मार्कण्डेय काटजू की एक और खासियत है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढाई के दौरान वे बड़े क्रांतिकारी विचारों के हुआ करते थे। उन्होंने 1967 में एलएलबी इलाहाबाद विश्वविद्यालय से किया था। तब उनकी उम्र 21 साल की थी। शायद इसी के आसपास की बात है। उस वक्त दुनिया भर में छात्रों और युवाओं के आंदोलन का ज़ोर था। अपने यहां भी नक्सल आंदोलन की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी। मार्कण्डेय काटजू के दिमाग में अचानक आया कि नौकरी करने के बजाय गांवों में जाकर गरीब किसानों के बीच काम किया जाए।
फौरन घर छोड़कर वे जा पहुंचे इलाहाबाद ज़िले की बारा तहसील के एक गांव संड़वा में। अब मुश्किल ये थी कि गरीब किसान कहां से पकड़े जाएं। गांव के सीवान से ही उन्होंने देखा कि खेतों में कुछ लोग धोती पहने खड़े हैं। पांव में न जूता है, न चप्पल। ऊपर बनियान तक नहीं पहन रखी थी। काटजू साहब को लगा कि हो न हो, यही गरीब किसान हैं। वे उनके पास गए। अपना परिचय दिया और अपना मकसद बताया। वो सभी लोग गांव के पंडित थे। मार्कण्डेय काटजू की कोई बात उन्हें समझ में नहीं आई। लेकिन भोला, मासूम नौजवान समझकर वे उन्हें अपने साथ घर ले गए। उसी दिन शाम को कहीं न्यौता था। काटजू को भी अपने साथ ले गए। वहां काटजू 10-12 इंच ब्यास वाली एकाध पूड़ी मुश्किल से खा पाए। लेकिन नाजुक पेट से उनका साथ नहीं दिया। उन्हें जबरदस्त पेचिश हो गई। और हफ्ते-दस दिन में ठीक होने के बाद गांव के पंडितों ने उन्हें इलाहाबाद की बस पर बैठा दिया।
यह वाकया सच है या नहीं, मुझे नहीं पता। असल में संयोग से इलाहाबाद से बीएससी करने के दौरान मैंने भी पंडितों के इसी गांव में कुछ दिन बिताए थे। मेरे साथ उसी गांव के एक मित्र भी थे। एक दिन शाम को बैठकी के दौरान मैंने राजनीतिक काम करने का अपना मकसद बताया तो गांव के एक बुजुर्ग ने मुझे मार्कण्डेय काटजू का यह किस्सा सुनाया था। अगर यह गलत हो तो जस्टिस काटजू मुझे माफ करेंगे क्योंकि सुना है कि वो फौरन कोर्ट की अवमानना का नोटिस भी जारी कर देते हैं।:=))
मार्कण्डेय काटजू अपने न्यायिक करियर में अब तक कई शानदार, मगर विवादास्पद फैसले सुना चुके हैं। आपको याद होगा कि साल भर पहले उन्होंने चारा घोटाले में दोषी करार दिए गए एक सरकारी अधिकारी की जमानत पर सुनवाई करते वक्त कहा था कि, “हर कोई इस देश को लूटना चाहता है। इसे रोकने का एक ही जरिया है कि कुछ भ्रष्ट लोगों को लैंप-पोस्ट से लटकाकर फांसी दे दी जाए। लेकिन कानून हमें इजाज़त नहीं देता, वरना हम भ्रष्टाचारियों को फांसी पर लटका देते।” इससे पहले साल 2005 में मद्रास हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस रहने के दौरान भी उन्होंने एक समारोह में जबरदस्त बात कही थी कि, “आम लोगों को न्यायपालिका की आलोचना करने का अधिकार है क्योंकि लोकतंत्र में जनता सर्वोच्च होती है और जजों समेत सारे सरकारी अधिकारी जनता के नौकर हैं।”
जस्टिस काटजू सुप्रीम कोर्ट में 10 अप्रैल 2006 से आए हैं और 20 सितंबर 2011 को रिटायर होंगे। मेरी दिली ख्वाहिश है कि उनको देर-सबेर भारत का चीफ जस्टिस बना देना चाहिए। इसकी एक वजह तो यह है कि कानून की उनकी समझ बड़ी लोकतांत्रिक और जनोन्मुखी है। दूसरे वे कानून की बारीकियों को बखूबी समझते हैं। बचपन से ही इसी माहौल में पले पढ़े हैं। उनके पिता एस एन काटजू इलाहाबाद हाईकोर्ट के पूर्व जज थे। उनके बाबा डॉक्टर के एन काटजू देश के गृहमंत्री और रक्षामंत्री थे और बाद में उड़ीसा के राज्यपाल और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे। उनके चाचा बी एन काटजू इलाहाबाद हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस थे। कहने का मतलब यह है कि मार्कण्डेय काटजू को कानून से लेकर सत्ता संरचना का बड़ा करीबी अनुभव है।
मार्कण्डेय काटजू की एक और खासियत है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढाई के दौरान वे बड़े क्रांतिकारी विचारों के हुआ करते थे। उन्होंने 1967 में एलएलबी इलाहाबाद विश्वविद्यालय से किया था। तब उनकी उम्र 21 साल की थी। शायद इसी के आसपास की बात है। उस वक्त दुनिया भर में छात्रों और युवाओं के आंदोलन का ज़ोर था। अपने यहां भी नक्सल आंदोलन की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी। मार्कण्डेय काटजू के दिमाग में अचानक आया कि नौकरी करने के बजाय गांवों में जाकर गरीब किसानों के बीच काम किया जाए।
फौरन घर छोड़कर वे जा पहुंचे इलाहाबाद ज़िले की बारा तहसील के एक गांव संड़वा में। अब मुश्किल ये थी कि गरीब किसान कहां से पकड़े जाएं। गांव के सीवान से ही उन्होंने देखा कि खेतों में कुछ लोग धोती पहने खड़े हैं। पांव में न जूता है, न चप्पल। ऊपर बनियान तक नहीं पहन रखी थी। काटजू साहब को लगा कि हो न हो, यही गरीब किसान हैं। वे उनके पास गए। अपना परिचय दिया और अपना मकसद बताया। वो सभी लोग गांव के पंडित थे। मार्कण्डेय काटजू की कोई बात उन्हें समझ में नहीं आई। लेकिन भोला, मासूम नौजवान समझकर वे उन्हें अपने साथ घर ले गए। उसी दिन शाम को कहीं न्यौता था। काटजू को भी अपने साथ ले गए। वहां काटजू 10-12 इंच ब्यास वाली एकाध पूड़ी मुश्किल से खा पाए। लेकिन नाजुक पेट से उनका साथ नहीं दिया। उन्हें जबरदस्त पेचिश हो गई। और हफ्ते-दस दिन में ठीक होने के बाद गांव के पंडितों ने उन्हें इलाहाबाद की बस पर बैठा दिया।
यह वाकया सच है या नहीं, मुझे नहीं पता। असल में संयोग से इलाहाबाद से बीएससी करने के दौरान मैंने भी पंडितों के इसी गांव में कुछ दिन बिताए थे। मेरे साथ उसी गांव के एक मित्र भी थे। एक दिन शाम को बैठकी के दौरान मैंने राजनीतिक काम करने का अपना मकसद बताया तो गांव के एक बुजुर्ग ने मुझे मार्कण्डेय काटजू का यह किस्सा सुनाया था। अगर यह गलत हो तो जस्टिस काटजू मुझे माफ करेंगे क्योंकि सुना है कि वो फौरन कोर्ट की अवमानना का नोटिस भी जारी कर देते हैं।:=))
Comments
काटजू भारत के चीफ जस्टिस जरूर बनेण्
आशीष्ा महर्षि
सच्चे आदर्शवाद और जन सेवा की भावना के बीज यदि किशोरावस्था में मानस में बैठ जाएं तो वे आखिर तक किसी न किसी रूप में अपना अस्तित्व बनाए रखते हैं और अनुकूल मौका पर पल्लवित हो जाते हैं। जस्टिस काटजू को शायद नियति और भारत का भविष्य यह अवसर प्रदान कर दे।
न्याय विशेषज्ञ के रूप में जनता के वेतनभोगी सेवक से अधिक अपने को कुछ नहीं समझने वाले न्यायाधीश आज विरले ही देश में हैं।
एक जज के मुँह से ये सुनना डरावना है.
आपकी इस पोस्ट से न्याय निष्ठ लोगों में अच्छा संदेश जाएगा .
यह भी कि देश की मिट्टी और उसकी गोद में
पले -बढ़े भारतवासियों को ऐसा संबल मिल सके तो
उनके लिए आत्मविश्वास का नया सेतु बनेगा .
जानकारी अच्छी लगी .