Monday 10 March, 2008

देश पर कुर्बानी का जज्बा सच्चा है, एकतरफा है

कोई अगर मुझसे पूछे कि तुम देश के बारे में क्या सोचते हो तो मैं कहूंगा कि देश मेरे लिए ममता भरी मां की गोद की तरह है जहां पहुंचकर कोई बच्चा अपनी सारी चिंताएं भूलकर निश्चिंत हो जाता है। देश मेरे लिए उस संयुक्त परिवार की तरह है जहां मैं अपनी पूरी काबिलियत के साथ मेहनत और लगन से काम करूंगा, परिवार के हित को कभी आंच नहीं आने दूंगा, लेकिन अपनी सारी निजी चिंताओं से मुक्त रहूंगा क्योंकि इनका जिम्मा तो संयुक्त परिवार के मुखिया ने उठा रखा है। देश मेरे लिए उस प्रेमिका की तरह है जिसने एक बार अपना मान लिया तो मान लिया। बार-बार मुझसे प्रेम करने का सबूत नहीं मांगती।

लेकिन भारत देश में पैदा होने और इसके लिए कुर्बान हो जाने का जज्बा रखने के बावजूद मैं खुद को इतना निश्चिंत नहीं महसूस कर पाता। बल्कि ईमानदारी से कहूं तो इसके विपरीत एक पराए मुल्क जर्मनी में दो साल रहने के दौरान मैं खुद को ज्यादा सुरक्षित और बेफिक्र महसूस करता था। हारी-बीमारी से लेकर पेंशन तक का सारा ज़िम्मा सरकार नाम की अदृश्य सत्ता ने उठा रखा था। मैं ही नहीं, कोई जवान लड़की या बूढ़ी महिला तक कभी भी कहीं भी बेधड़क आ जा सकती थी। सड़क चलते किसी अपराध की गुंजाइश न के बराबर थी, लेकिन अगर कुछ हो गया तो हर चालीस-पचास कदम पर सड़क किनारे खंभों में बटन लगे रहते थे जिन्हें दबा देने पर मिनटों में पी-पों करती पुलिस की गाड़ी आपके पास पहुंच सकती थी।

बच्चे के जन्म के बाद ही आप निश्चिंत हो जाते थे। पढ़ने की उम्र होते ही आपके घर के सबसे पास वाले स्कूल से पत्र आ जाता था कि आप आकर अपने बच्चे का एडमिशन करा लीजिए। कोई भी बीमारी हो या दुर्घटना आपका मुफ्त इलाज़ किया जाएगा। हां, इसके एवज़ में आपकी तनख्वाह से अच्छी-खासी राशि काट ली जाती है। लेकिन क्योंकि ये कटौती रूटीन है, इसलिए लोगबाग इसे अपनी तनख्वाह का हिस्सा गिनते ही नहीं है वैसे ही जैसे हम पीएफ या दूसरी कटौतियों को न गिनकर टेकहोम सैलरी की बात सोचते हैं। ऑफिस का माहौल भी घर जैसा बनाकर रखा गया था। छुट्टी के दिन भी आप वहां जाकर आराम से अपना काम कर सकते हैं।

ये सारा सुकून कैसे मिल जाता था, दिखता ही नहीं था। केंद्र की सरकार थी, प्रांत की सरकार थी, स्थानीय प्रशासन भी था, लेकिन कहीं कुछ दिखता नहीं था। सरकार थी, लेकिन नहीं भी थी। होते हुए भी अदृश्य थी। कभी किसी पार्टी की भारी भरकम जनसभा नहीं देखी। कभी किसी नेता या मंत्री के आने-जाने पर विशेष सुरक्षा इंतज़ाम और ट्रैफिक जाम नहीं देखा। हो सकता है कि जर्मनी मेरे लिए किसी विकसित देश का पहला अनुभव था, इसलिए मैं उससे इतना अभिभूत रहा हूंगा कि मुझे तस्वीर का दूसरा पहलू नहीं दिखा। लेकिन देश का व्यावहारिक और ठोस अर्थ मेरे अंदर वहीं पैदा हुआ।

देश से क्या-क्या मिल सकता है, यह मैंने वहीं जाना। वरना, जब तक भारत में था तब तक तो देश को सिर्फ देने की सोचता था, देशहित में कु्र्बान हो जाने की बात सोचता था। देश की बात सोचकर शरीर के रोम-रोम में सिहरन दौड़ जाती थी। अफसोस था तो बस इतना कि मैंने देश के लिए जो करने की ठानी थी, वह नहीं कर पाया। इसी के चलते कभी-कभी लगता कि कितना निरर्थक जीवन हो गया है मेरा।

आज सोचता हूं कितना फर्क है जर्मनी और भारत के बीच। वहां जन्म लेनेवाले किसी विदेशी के भी बच्चे को जर्मन नागरिकता पाने का हक मिल जाता है, जबकि अपने यहां कई-कई पुश्तों से रहने के बावजूद करोड़ों लोगों की वतन-परस्ती और नागरिकता को शक की नज़र से देखा जाता है। हकीकत यह है कि जिसने भी इस भारतभूमि पर जन्म लिया है और किसान या कामगार पृष्ठभूमि से आता है, उन सभी के लिए देश एक श्रेष्ठ भावना है, एक पवित्र अहसास है, मां जैसी एक सत्ता है जिसके लिए हम हंसते-हंसते कुर्बान हो सकते हैं। और, इसके लिए किसी लिटमस टेस्ट की जरूरत नहीं है।
फोटो सौजन्य: सानिध्य

3 comments:

Gyan Dutt Pandey said...

मैने जर्मन इतिहास नहीं पढ़ा। पता नहीं वहां जयचन्द और मीरजाफर थे या नहीं। भारत में समस्या शायद विविधता के कारण है। कई लोग धर्म/जाति/वर्ग को देश पर वरीयता देते हैं। टण्टा उससे खड़ा हो जाता है।

Dr. Chandra Kumar Jain said...

desh-bhakti bahut bade dil valon ko naseeb hoti hai.aapmen ye jo zazbaa hai uska koi vikalp nahin ho sakta...kaha hai na ...
AGAR HAM NAHIN DESH KE KAAM AAYE,
DHARAA KYA KAHEGI?
GAGAN KYA KAHEGA?

aapke dard se ittafaq rakhta hun,lekin yah bhi ki desh-prem ka pravah kahin rukna nahin chahiye...

Unknown said...

अमूमन सभी पाश्चात्य देश अपने नागरिकों का ज़्यादा अच्छा ख़याल रखते हैं - नागरिक भी अधिकार मांगता / पाता है - राज पाट तो सुएज़ के पूरब ही बढ़ता है - जहाँ सियासती खैरात बंटती है - उम्मीद है फ़िर भी - मनीष