Wednesday 20 February, 2008

जातियों के रंग तो शुरुआत में ही मिल गए थे

अपने यहां प्राचीन काल से ही जातिगत विभाजन के खिलाफ बार-बार आंदोलन होते रहे हैं। इन आंदोलनों में कुछ कम कामयाब हुए तो कुछ ज्यादा। लेकिन इन्होंने रूढ़िवादी मतों पर चोट करने के लिए मजबूत तर्क पेश किए। ऐसे बहुत सारे तर्क हमारे ग्रंथों में दर्ज हैं जिनसे पता चलता है कि जाति व्यवस्था के शुरुआती दौर में भी इसमें निहित ऊंच-नीच की धारणा का विरोध होता आया है। हमें नहीं पता कि जिन लेखकों ने ये तर्क पेश किए हैं, उन्होंने इन्हें खुद गढ़ा था या उन्होंने बस समाज में प्रचलित विचार को ही व्यक्त कर दिया। लेकिन भारतीय ग्रंथों और महाकाव्यों में इन असमानता-विरोधी तर्कों की मजबूत मौजूदगी साफ दिखाती है कि हमारे यहां तर्कवादी परंपरा की पहुंच कितनी व्यापक थी और वहां एकल हिंदू सोच जैसी कोई चीज़ नहीं थी।

उदाहरण के लिए महाभारत में भृगु जब भारद्वाज को बताते हैं कि जातियों के बंटवारे का वास्ता इंसान की शारीरिक बुनावट से भी है जो चमड़ी के रंग में झलकता है, तब भारद्वाज ने कहा था कि हर जाति के भीतर लोगों की चमडी के रंग में काफी भिन्नता है और अलग रंग अगर अलग जाति को दर्शाते हैं तो मैं कहना चाहता हूं कि सभी जातियां मिश्रित जातियां हैं। भारद्वाज ने यहां तक कहा कि, “हम सभी इच्छा, क्रोध, भय, दुख, चिंता, भूख और परिश्रम से समान रूप से प्रभावित होते हैं तो हम में जातिगत विभेद कैसे हो सकता है?” इसी तरह एक और महत्वपूर्ण ग्रंथ भविष्य पुराण में कहा गया है कि, “चारों जातियों के सदस्य ईश्वर की संतान हैं, इसलिए उन सभी की जाति एक है। जब सभी इंसानों के पिता एक हैं तो उसी पिता के बच्चों की जातियां अलग नहीं हो सकतीं।”

इसके काफी समय बाद हम पंद्रहवीं शताब्दी तक स्थापित हो चुकी ‘मध्यकालीन रहस्यवादी कवियों’ की परंपरा को देखें तो ऐसे बहुतेरे विचारक मिलते हैं जिन पर हिंदी भक्ति आंदोलन और सूफी आंदोलन की समतामूलक सोच का भरपूर असर नज़र आता है। भक्ति आंदोलन के संतों और सूफियों ने तमाम सामाजिक बंधनों को खारिज़ कर दिया था। उन्होंने जाति और वर्ग भेद के खिलाफ ऐसे जबरदस्त तर्क दिए जिनका समाज पर काफी असर पड़ा। इनमें से तमाम संत कवि आर्थिक और सामाजिक रूप से कमज़ोर तबकों से आए थे। इन्होंने सामाजिक विभाजन के साथ-साथ धार्मिक दीवारों पर प्रहार किया। इन संत-फकीरों ने धर्म और जाति की बंदिशों को बनावटी करार दिया और इनकी प्रासंगिकता को नकारने के गंभीर प्रयास किए।

देखने लायक बात यह है कि इन विधर्मी नज़रिये वाले संत चिंतकों में से ज्यादातर कामगार तबके से आए थे। उनमें से सबसे बड़े संत कवि कबीर एक जुलाहा थे। दादू धुनिया थे। रविदास मोची थे, जबकि सेना एक नाई थे। इसके अलावा इन आंदोलनों की कई अहम हस्तियां महिलाएं थीं। मीराबाई के भजन तो पांच सौ साल बाद भी गाए जाते हैं। इसके अलावा अंदल, दयाबाई, सहजोबाई और सेना जैसी कई महिलाएं जाति और धर्म के खिलाफ चले आंदोलन में शामिल थीं।

- ऊपर का लेख अमर्त्य सेन की किताब The Argumentative Indian के पहले अध्याय का एक अंश है। इससे साफ पता चलता है कि जाति व्यवस्था के खिलाफ हमारे समाज में शुरुआत से ही कितनी अस्वीकृति रही है। गौतम बुद्ध और महावीर ने भी पुरोहितवाद के खिलाफ जबरदस्त भूचाल खड़ा किया। अशोक और अकबर जैसे शासकों ने भी जाति व धर्म की विभेदकारी दीवारों को कमज़ोर करने की कोशिश की। लेकिन अंग्रेजों ने अपने शासन को मजबूत करने के लिए अप्रांसगिक होती जा रही इन संस्थाओं को फलने-फूलने का मौका दिया। आज़ादी के 15-20 सालों पहले तक इनका इस्तेमाल सामूहिक मोलतोल के लिए होने लगा। आज भी आम जीवन में मिट रही जाति व्यवस्था इसीलिए बची है क्योंकि ऊपर से लटकी सत्ता में बांट-बखरे के लिए यह मोलतोल का ज़रिया बनी हुई है।

7 comments:

स्वप्नदर्शी said...

bahut hee Badiyaa.
Infact there is a interesting study to correlate the sequence similarity among various athenic groups, brian Syke has written the sequence account in the "Seven daughters of Eve".

There is no scientific evidence that there is any conclusive genetic difference among the people of different races.

Another study of mitochondrial sequence shows most of the so called lineage of the Upper Caste in India have traces of the mothers of lower castes. Indeed looks like women of lower class have been assimilated in the higher caste often.

Gyan Dutt Pandey said...

मानव जतियां जेनेटिक नहीं उसका अपना समाजिक क्रियेशन है। जातियां बनती रहेंगी। उनकी घुटन जातियों के खिलाफ वह सब करती रहेगी जो आप कर रहे हैं। फिर घुटन से बाहर निकलने वाले अपनी एक जाति बना लेंगे। वह भी एक रेबल मूवमेण्ट से विखण्डित होगी।
यह सब बौद्धिक प्रपंचवाद है। चला है, चल रहा है, चलेगा।

Dr. Praveen Kumar Sharma said...

Haa aab ye lekh kuchh kuchh pura lag raha hai, pahale kuchh adhura sa tha.

अनिल रघुराज said...

प्रवीण जी, टेक्निकल समस्या थी। दरअसल draft blogger को पहली बार आजमा कर देखा था। पोस्ट रात में ही सुबह के लिए सिड्यूल करके लगा दी थी। लेकिन सुबह देखा तो ...आगे पढ़ें में कुछ आ ही नहीं रहा था। फिर से पब्लिश किया, तब जाकर पूरी पोस्ट दिख रही है।

काकेश said...

पढ लिया.

अजित वडनेरकर said...

बहुत अच्छा। इसी नज़रिये से पड़ताल की ज़रूरत है। ऐसे ही कई साक्ष्य और हैं। मैं भी लगा हुआ हूं। समानता की बातें नई नहीं हैं। कुछ लोगों की पढ़ाई-लिखाई और प्रतिभा सिर्फ नारेबाजी का निमित्त बन जाती है।

दिनेशराय द्विवेदी said...

जातियाँ बनी रहती है। इस से किसी को कोई आपत्ति नहीं है। मगर जब जाति के आधार पर भेद किया जाता है तब परेशानी होती है। जब यह शोषण का आधार बन जाए तब यह समाज के लिए कोढ़ बन जाता है। इस के उन्मूलन के प्रयास सामाजिक स्तर पर तीव्र होने चाहिए। समाज सुधार आंदोलनों ने इस के उन्मूलन के लिए अभूतपूर्व योगदान किया है। लेकिन जब से कानून बना, समाज सुधार के ये सभी आन्दोलन भी अपनी मौत मर गए और सब कुछ कानून पर छोड़ दिया गया।।