Saturday 16 February, 2008

अतृप्त आत्माओं से भरा है हमारा हिंदी समाज

हमारे हिंदी समाज में अतृप्त आत्माओं की भरमार है। हर कोई भुनभुना रहा है, जैसे कोई मंत्र जप रहा हो। कान के पास, सिर के ऊपर से सूं-सां कर गुजरती आवाज़ों का शोर है। हर किसी के अंदर एक आग धधक रही है। एक बेचैनी है। एक अजीब किस्म की प्यास है। हर किसी के गले में कुछ अटका हुआ है। इन्हें भी कुछ कहना है, उन्हें भी कुछ कहना है और मुझे भी कुछ कहना है। कुछ कहना है तो बहुत कुछ सुनना है। अनगिनत सवाल है। कुछ के जवाब होने का भरोसा है और बहुतों के जवाब हासिल करने हैं।

यह सारा कुछ हमारी हिंदी ब्लॉगिंग में झलक रहा है। यहां कोई कायदे का मुद्दा उछलते ही झौंझौं-कौंचो शुरू हो जाती है। इनके बीच कुछ भी कहकर आप मोहल्ले से तो छोड़िए, पतली गली तक से नहीं निकल सकते। महिलाओं के बारे में कुछ कह दीजिए तो चोखेर बालियां तैयार बैठी हैं और सचमुख इनकी धार बहुत चोख (अवधी में चोख का मतलब तेज़ धार होता है) है। जाति व्यवस्था पर कुछ बोल दिया तो पिनकने वाले लोग तैयार बैठे हैं। सांप्रदायिकता का मामला इन दिनों ठंडा है। नहीं तो हालत तो यही थी कि इधर मोदी के खिलाफ कुछ कहा नहीं कि उधर से हल्ला शुरू।

असल में हमारे हिंदी समाज की ऐतिहासिक बुनावट ही ऐसी है। अमर्त्य सेन ने इसे Argumentative समाज ठहराया है। यहां तर्क और बहस के साथ-साथ साहित्य, संस्कृति और दर्शन की अमिट प्यास है। लोगों को जो भी मिलता है, उसी से अपनी प्यास बुझाते हैं। जीवन के हर क्षेत्र को समेटने वाली रामचरित मानस जैसी कोई रचना सदियों से नहीं मिली तो हमारी बुजुर्ग पीढ़ी अभी तक उसी से काम चलाती है। आज की खाती-पीती, पढ़ी-लिखी पीढ़ी की बात करें तो जिस भी किताब को नोबेल या बुकर्स पुरस्कार मिलता है, वह ज्यादा दिन तक उसकी किताबों की रैक से बाहर नहीं रह पाती। इसका एक लक्षण हम इस रूप में देख सकते हैं कि पुरस्कृत होते ही उसके पाइरेटेड संस्करण नगरों-महानगरों के फुटपाथों पर 50 से 100 रुपए में मिलने लगते हैं।

हिंदी समाज में जीवन की उलझनों को समझने की तड़प है, किताबों से मदद पाने की जबरदस्त लालसा है। लेकिन मुश्किल यह है कि उसकी धड़कनों में बसी भाषा का साहित्य उसको यह सब देने में बहुत हद तक नाकाम रहा है। किताबें आती भी होंगी तो उनका प्रचार और वितरण तंत्र इतना सिमटा हुआ है कि पाठकों के बड़े समुदाय तक वो नहीं पहुंच पातीं। पाठकों तक किताबें पहुंचती ही नहीं तो उनका रिस्पांस प्रकाशक या लेखक को कहां से मिलेगा? यही वजह है कि हिंदी के लेखक-साहित्यकार मायूस हैं और प्रकाशक उनकी मायूसी का वणिक अंदाज़ में फायदा उठाते हैं।

लेकिन नई संवेदना और नए कथ्य से भरी जो भी किताबें पाठकों तक पहुंच पाती हैं, उन्हें पाठक हाथोंहाथ भी लेते हैं। इसका एक छोटा-सा उदाहरण है विनोद शुक्ल का उपन्यास – दीवार में एक खिड़की रहती थी। अगर प्रतीक रूप में बात करूं तो हिंदी ब्लॉगिंग ने दीवार में रहनेवाली इसी खिड़की को खोल दिया है। इसके खुलते ही समाज का जबरदस्त शोर दीवार के भीतर आने लगा है। साथ ही आ रही है ऐसी ताज़ा और साफ हवा जो हमारे भाव संसार की ऊंघ को तोड़ सकती है।

इस मायने में हिंदी ब्लॉगिंग की चाल-ढाल और अंदाज़ अंग्रेज़ी से बहुत अलग है। अंग्रेजी में सबसे चर्चित भारतीय ब्लॉगर अमित वर्मा का अनकट देख लीजिए। आपको अंतर समझ में आ जाएगा। अंग्रेज़ी में सूचनाओं के लिंक भर होते हैं जबकि हिंदी की हर पोस्ट में कोई न कोई तड़प करवट ले रही होती है, कोई अनकही बात शब्दों के सांचे में ढल रही होती है। वहां दो-चार लाइन में बात खत्म हो जाती है, यहां पूरा का पूरा आख्यान लिखने पर भी लगता है कि बात अधूरी रह गई।
फोटो साभार: donna di mondo

9 comments:

बालकिशन said...

सर बहुत गहरी बात कही है आपने.

सुजाता said...

हाँ बहुत सही ।
अनगढ बेचैनियों वाला हिन्दी समाज , कई बार असमझ करवटें लेता है ,एक दूसरे को पटखनी देता है ....पर शायद यही प्रक्रिया है ..आहत अहम वाले समाज के लिये अस्मिता को पाने की .....

स्वप्नदर्शी said...

bahut sahee pakadaa

पारुल "पुखराज" said...
This comment has been removed by the author.
पारुल "पुखराज" said...

atrapt aatmao ka pataa nahi.magar hindi blogging ek sundar bandhan hai jo aapsi uthhapatak,bahas gussa garmi ke baavzuud apney aap me anuutha hai...aapki post munbhaayi

अजित वडनेरकर said...

अनिल भाई , बहुत सार्थक रहा अतृप्त आत्माओं का यह नया अवतार। मैं खुद को असहज महसूस कर रहा था और आपको लिखने भी वाला था कि अतृप्त आत्माओं का भला आप ही कर सकते हैं, सो आपने पहले ही कर डाला।

Uday Prakash said...

अनिल जी, सही कहा आपने. लेकिन सोचिये अगर कोई आत्मा, चाहे वो ब्लोग में हो, या इसके बाहर, अगर 'त्रिप्त' हो गयी तो क्या 'मोक्छ' को प्राप्त नही हो जायेगी? फिर तो वो पिन्ड्दान के लायक हो जायेगी. ये सारा समाज ही 'अत्रिप्त' आत्माओं का समाज है. जो वंचित हैं वो तो हैं ही, जो 'माल' चाभ रहे हैं, वे तो और भी 'अत्रिप्त' हैं. बस डरिये नहीं. लिखते रहिये.

सागर नाहर said...

आपसे शत प्रतिशत सहमत! ... और इसी वजह से मुझे कहीं टिप्पणी करने में भी डर लगता है कहीं अन्जाने में ऐसा कोई शब्द लिख दिया तो बस फिर तूफान आने में समय नहीं लगेगा।

ghughutibasuti said...

बढ़िया लिखा है । परन्तु लिखेगा तो अतृप्त ही ! जो तृप्त हो गया वह तो हिमालय की कन्दराओं में जाकर बसेरा करेगा । वैसे भी वाद विवाद करना हमारी संस्कृति का एक अभिन्न अंग रहा है । यह तभी रुका जब हम गुलाम हुए । जब शेष संसार को ढंग से बात करना नहीं आता था तबसे हमारे ‌ॠषि मुनि, विद्वान यह करते आ रहे हैं । कालिदास को भूल गए ? यदि वाद विवाद ना जीत सकते तो विवाह भी न हो पाता था तब !
घुघूती बासूती