गुरुजी आशीष दें, आप से जिरह ही मेरी दक्षिणा है

आप खुद ही कहा करते थे कि हर दिन को नए जन्म के रूप में देखो। आप हर दिन मरते हैं और हर दिन नया जीवन प्राप्त करते हैं। आप सही कहते थे। विज्ञान तो यहां तक कहता है कि हम जन्म लेने के साथ ही हमारे मरने का क्रम शुरू हो जाता है। हमारा शरीर खरबों कोशिकाओं से मिलकर बना है। इनमें से हर एक कोशिका उतनी ही जीवित होती है जितने कि हम। क्रोमोजोम, डीएनए, आरएनए की बड़ी जटिल, लेकिन जाननेवालों के लिए बड़ी सुलझी हुई संरचना है कोशिकाओं की। इन कोशिकाओं में बनने-बिगड़ने का सिलसिला अनवरत चलता रहता है। नतीजतन, कोशिकाओं के मामले में हमारा शरीर कुछ ही पलों में पूरा नया हो जाता है।
अरविंद शेष के ब्लॉग पर अमिताभ पांडे लिखते हैं, “बचपन में हमारे शरीर में कोशिकाएं ज्यादा बनती हैं और मरती कम हैं। लेकिन 18-20 की उम्र तक जन्म और मृत्यु का पलड़ा बराबरी पर आ जाता है। और फिर जिंदगी की ढलान शुरू हो जाती है। चालीस की उम्र हमारी प्राकृतिक सीमा है। उसके बाद की जिंदगी तो तकनीक और विज्ञान का गिफ्ट है।” स्पष्ट है कि जब कोशिकाएं अपने को पुनर्सृजित करना बंद कर देती हैं तो हमारी मृत्यु हो जाती है। यह मृत्यु भी कई चरणों में कई घंटों के दौरान होती है। इसीलिए शरीर के अंगों का प्रत्यारोपण कर पाना संभव होता है।
इस तरह मैं क्या हूं का उत्तर मैं आत्मा हूं नहीं हो सकता क्योंकि शरीर से भिन्न प्राण या आत्मा का कोई स्वतंत्र वजूद ही नहीं है उसी तरह जैसे किसी चुंबक में उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव का अलग-अलग अस्तित्व नहीं है। फिर भी चेतना तो होती है, जिसे हम शरीर नहीं कह सकते। यह चेतना हमारे पारिवारिक, सामाजिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक परिवेश से बनती है। यह चेतना भाषा से बनती है, शिक्षा से बनती है, ज्ञान से बनती है, संस्कार से बनती है।
किसी स्थिर बिंदु की पोजीशन समझनी हो तो हम लंबाई, चौड़ाई और ऊंचाई के एक्सिस पर उसके को-ऑर्डिनेट्स (x, y, z) का पता लगाते हैं और बिंदु गतिशील हो तो उसमें समय की एक और विमा व को-ऑर्डिनेट (t) जुड़ जाता है। उसी तरह बहुत सीधी-सी बात है कि हम मैं क्या हूं प्रश्न का सही उत्तर तभी जान सकते हैं जब हम अपने सामाजिक, ऐतिहासिक व सामयिक को-ऑर्डिनेट्स को अच्छी तरह समझ लें। इसीलिए अपने को जानना भी समाज और सभ्यता के विकास के सापेक्ष है। बुद्ध और कबीर के जमाने में अपने को जानना कुछ और था और आज कुछ और है।
अंत में अमिताभ पांडे के लेख का एक रोचक अंश देने से खुद को नहीं रोक पा रहा हूं, इस संस्तुति के साथ कि इस पूरे लेख को आप ज़रूर पढ़ें। इसमें कहा गया है, “एक तरह से देखें तो हम, हमारे सारे पुरखे और उनकी हर कोशिका गर्मी प्रेमी आदि बैक्टीरिया की संतान हैं जो आज से लगभग चार अरब साल पहले महासागर के गर्भ में ज्वालामुखियों की आंच में पैदा हुआ और पनपा था। इस मायने में तो हम अमर हैं। हम, पुरखों और संतानों की अटूट श्रृंखला हैं और हम अपने मन और विचारों को संस्कृति के द्वारा जिंदा रखने में कामयाब हैं।”
Comments
कोशिका का जन्म-मृत्यु या बनने-बिगड़ने का सिलसिला हमें "देह" से अलग एक बार में नहीं कर पाता जबकी "आत्मा" कर देती है , मेरा आशय तो आप समझ ही गये होंगे। इस विषय पर आचार्य श्रीराम शर्मा ही सही हैं आप अनावश्यक रूप से भ्रमित हो गए।
क्या अभी के तनावों और बिखरावों में मनुष्य सुगठित आत्मन् की किसी स्थायी अनुभूति को जी सकता है? आखिर वजह क्या है कि यह अनुभूति व्याख्यान पंडालों से निकलते ही जाती रहती है?
दूसरी तरफ चेतना की पदार्थवादी व्याख्या भी सवालों से परे नहीं है। इवोल्यूशन जैसी कुछ अपुष्ट प्रस्थापनाओं के आधार पर किसी जीव के होने या न होने की आधी-अधूरी वस्तुगत व्याख्या जरूर हो जाती है लेकिन आत्मगत धरातल पर इसके कोई मायने नहीं होते।
क्या ये दोनों धाराएं ईमानदारी से अपने सामने जीव-जगत के कष्टों से जुड़े कुछ नए सवाल रखने, अपनी बहस का समाधान होने के लिए कुछ और सदियों तक इंतजार करने और इस बीच मनुष्य की आम चिंताओं में साझीदार होने, उनके हल में मददगार होने का कष्ट करेंगी?
shabd hi ka prayog dekha h hamne to aaj tak