Friday 22 February, 2008

गुरु की बातें गुरु ही जानें

यही कोई आठ-नौ साल का रहा हूंगा। सुलतानपुर में पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य आए हुए थे। अम्मा-बाबूजी अपने साथ मुझे और मुझसे साल भर बड़े भाई को भी उनकी सभा में ले गए। उन्होंने खुद मंत्र लेने के साथ ही हम दो भाइयों को भी गुरुजी से मंत्र दिलवा दिया। उस समय का ज्यादा कुछ तो याद नहीं है। बस, इतना याद है कि पहनी हुई पीली तौलिया मंत्र लेने के लिए बैठते वक्त खुल गई थी और उसे अम्मा ने यूं ही ढंक दिया था।

इस तरह इतनी छोटी-सी उम्र में ही मंत्रधारी बन गया। हालांकि बाद में मांस-मछली सब कुछ खाया। लेकिन मैंने बचपन से लेकर विश्वविद्यालय पहुंचने तक अखंड ज्योति, युग-निर्माण योजना जैसी पत्रिकाएं और श्रीराम शर्मा आचार्य की किताबें घर जाने पर बराबर पढ़ी हैं। आज उनकी एक पतली-सी किताब ‘मैं क्या हूं’ दिख गई। उसके कुछ अंश पेश कर रहा हूं। जानता हूं, इससे मेरे पूर्व वामपंथी मित्र थोड़ा भड़केंगे। लेकिन बाकी लोगों की राय मैं ज़रूर इस पर चाहूंगा। कम से कम ये ज़रूर बताएं कि गुरुजी की बातें आपके लिए सार्थक हैं या आज के ज़माने में इनका कोई मायने नहीं है।

किसी व्यक्ति से पूछा जाए कि आप कौन हैं तो वह अपने वर्ण, कुल व्यवसाय, पद या संप्रदाय का परिचय देगा। ब्राह्मण हूं, अग्रवाल हूं, बजाज हूं, तहसीलदार हूं, वैष्णव हूं आदि उत्तर होंगे। अधिक पूछने पर अपने निवास स्थान, वंश व्यवसाय आदि का अधिकाधिक विस्तृत परिचय देगा। प्रश्न के उत्तर के लिए ही यह सब वर्णन हों, सो नहीं, उत्तर देनेवाला यथार्थ में अपने को वैसा ही मानता है। शरीर भाव में मनुष्य इतना तल्लीन हो गया है कि अपने आपको शरीर ही समझने लगा है।

मनुष्य शरीर में रहता है, यह ठीक है। पर यह भी ठीक है कि वह शरीर नहीं है। जब प्राण निकल जाते हैं तो शरीर ज्यों का त्यों बना रहता है। उसमें से कोई वस्तु घटती नहीं तो भी वह मृत शरीर बेकाम हो जाता है। उसे थोड़ी देर रखा रहने दिया जाए तो लाश सड़ने लगती है। इससे प्रकट है कि मनुष्य शरीर में निवास तो करता है, पर वस्तुत: वह शरीर से भिन्न है। इस भिन्न सत्ता को आत्मा कहते हैं। वास्तव में यही मनुष्य है। मैं क्या हूं? इसका सही उत्तर यह है कि मैं आत्मा हूं।

आत्मा शरीर से पृथक है। शरीर और आत्मा के स्वार्थ भी पृथक हैं। शरीर के स्वार्थों का प्रतिनिधित्व इंद्रियां करती हैं। दस इंद्रियां और ग्यारहवां मन सदा ही शारीरिक दृष्टिकोण से सोचते और कार्य करते हैं। शरीर भाव में जागृत रहनेवाला मनुष्य यदि आहार, निद्रा, भय और मैथुन के साधारण कार्यक्रम पर चलता रहे तो भी उसे पशुवत जीवन में निरर्थता है, सार्थकता कुछ नहीं। इस दृष्टिकोण के व्यक्ति न तो स्वयं सुखी रहते हैं और न ही दूसरों को सुखी रहने देते हैं। शरीर-भावी दृष्टिकोण मनुष्य को पाप, ताप, तृष्णा तथा अशांति की ओर घसीट ले जाता है।

जीवन में वास्तविक सफलता और समृद्धि आत्मभाव में जागृत रहने में है। जब मनुष्य अपने को आत्मा अनुभव करने लगता है तो उसकी इच्छा, आकांक्षा, और अभिरुचि उन्हीं कामों की ओर मुड़ जाती है जिनसे आध्यात्मिक सुख मिलता है। आत्मा को तत्कालीन सुख सत्कर्मों में आता है। आत्मा का स्वार्थ पुण्य प्रयोजन में है। शरीर का स्वार्थ इसके विपरीत है। इंद्रियां और मन संसार के भोगों को अधिकाधिक मात्रा में चाहते हैं। इस तरह शरीर के स्वार्थ और आत्मा के स्वार्थ आपस में मेल नहीं खाते। एक के सुख में दूसरे का दुख होता है। इन दो विरोधी तत्वों में से हमें एक को चुनना होता है।

जानने योग्य इस संसार में अनेक वस्तुएं हैं। पर उन सब में प्रधान है अपने को जानना। जिसने अपने को जान लिया, उसने जीवन का रहस्य समझ लिया। भौतिक विज्ञान के अन्वेषकों ने अनेक आश्चर्यजनक आविष्कार किए हैं। प्रकृति के अंतराल में छिपी हुई विद्युत शक्ति, ईश्वर शक्ति, परमाणु शक्ति आदि को ढूंढ निकाला। आध्यात्म जगत के महाने अन्वेषकों ने जीवन सिंधु का मंथन करके आत्मारूपी अमृत उपलब्ध किया है। इस आत्मा को जाननेवाला सच्चा ज्ञानी हो जाता है और इसे प्राप्त करनेवाला विश्वविजयी मायातीत कहा जाता है। इसलिए हर व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अपने आपको जाने। मैं क्या हूं, इस प्रश्न का उत्तर अपने आपसे पूछे और विचार करे। चिंतन और मननपूर्वक उसका सही उत्तर प्राप्त करे।

7 comments:

Gyan Dutt Pandey said...

वाम पंथी तो भड़कते ही हैं। काम है भड़कना। उनके पास दूसरी सोच के लिये स्पेस नहीं बचता।
आचार्य जी बहुत अच्छा कहते हैं।
पर जब कोई मत इंस्टीट्यूशनलाइज हो जाता है तो ठहरे पानी सा होने लगता है।
शायद सब विचारों के लिये मन के दरवाजे खुले होने चाहियें!

संजय बेंगाणी said...

किसी भी मत के लिए दूराग्रह समझ से बाहर की बात है. आपकी मान्यता चाहे जो हो, नविन विचार के लिए मन की खिड़की खूली रखनी चाहिए.

नीरज गोस्वामी said...

जानने योग्य इस संसार में अनेक वस्तुएं हैं। पर उन सब में प्रधान है अपने को जानना। जिसने अपने को जान लिया, उसने जीवन का रहस्य समझ लिया।
अनिल भाई
ये बात जो कही आचार्य जी ने वो ध्रुव सत्य है...लोगों ने भी आचार्य जी की बहुत सी स्थूल बातों का ही जीवन में अनुसरण किया है उनकी शूक्ष्म बातें अभी भी पूरी तरह से नहीं समझी गयीं हैं...
नीरज

बालकिशन said...

मैं श्रीराम शर्मा आचार्य की बात से पूर्णतः सहमत हूँ.
हम सब तो मैं-मेरा, हम-हमारा मे उलझे हुए हैं इस उलझन मे सभी असली मैं को भुला बैठे है.
पर एक बात है कि ये सब शायद इतना सरल और सरस भी नही कि हम अपने अन्दर के मैं को पहचाने.
और एक बात शायद ये मानव प्रवृति है कि वो हमेशा सरल और सरस की तरफ़ ही आकर्षित होता है शायद इसलिए ही...................

Reetesh Gupta said...

अच्छा लगा आपका संस्मरण और गुरूदेव की बातें
....हम तो पढ़ने में वैसे ही अभी कमजोर हैं...आपके बहाने अच्छा लेख पढ़ने को मिल गया..धन्यवाद..

Unknown said...

धन्यवाद -चित्त शांत बल देने का - ऐसे ही बनाएं - अनेक से एक - मनीष

Sanjay Tiwari said...

आचार्य ने जिस क्रांति का सूत्रपात किया है वह युगानुकूल है. भूमंडलीकरण जो चुनौतियां प्रस्तुत कर रहा है उससे क्या हमारी सरकारें निपट रही हैं या एनजीओ? आप देखेंगे एक बार फिर जब मानवता संकट में आती दिखी तो ऐसे ही आचार्य लोग आये (और आ रहे हैं) और सत्य की सुरक्षा कर वापस चले गये. यह नियति की योजना होती है. इसे कोई पूरब का रहस्यवाद समझ ले तो भी क्या हर्ज है? प्रकट क्या है? और छिपा कहां है? जो प्रकट है वह है नहीं जो छिपा है वही सबओर है. नजर मिले तो सब कुछ दिखता है...नहीं तो हम विद्वान लोग तो हैं ही.