तस्वीर में क्लॉक-वाइज़: सृजन शिल्पी, राजेश, हर्षवर्धन, शशि सिंह, अनिल, प्रमोद, विकास। तस्वीर अभय ने खींची है, सो वे इसमें नज़र नहीं आ रहे हैं...
बहुत सारी बातों में से मैं यहां केवल एक मुद्दे पर चर्चा करना चाहूंगा। शिल्पी और राजेश आए थे पुणे में विकसित किए जा रहे अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद के सॉफ्टवेयर की मॉनीटरिंग करने। उन्होंने बताया कि एक खास डोमेन, जैसे संसद की कार्यवाही में इस्तेमाल होनेवाले शब्दों के अनुवाद का सॉफ्टवेयर विकसित किया जा सकता है। इसमें भी उन्हें करीब तीन लाख शब्दों का डाटाबैंक बनाया है। लेकिन इसकी सीमाएं हैं। मसलन चेयरमैन शब्द के लिए इसमें दो ही शब्द हैं – सभापति और अध्यक्ष। चेयरमैन शब्द का हिंदी में कोई और अनुवाद यह सॉफ्टवेयर नहीं कर सकता।
चर्चा आगे बढ़ी तो एक तर्क यह आया कि अगर हम शाब्दिक और सरकारी अनुवाद के चक्कर में उलझे रहे तो ऐसी अपठनीय हिंदी तैयार होगी जिसे समझने के लिए उसका ‘अनुवाद’ करना पड़ेगा हिंदी में। यहीं से बात निकली कि शब्द शरीर हैं, जबकि व्याकरण ही भाषा की आत्मा है। हम चाहकर भी व्याकरण से तोड़मरोड़ नहीं कर सकते, क्योंकि तब वह समझ से बाहर हो जाएगी। लेकिन शब्द हमें लोक व देसी भाषाओं से लेकर विदेशी भाषाओं तक से लेने पड़ेंगे। अंग्रेज़ी अगर इतनी प्रवहमान भाषा है तो इसीलिए कि उसने फ्रांसीसी या जर्मन जैसी यूरोपीय भाषाओं को छोड़ दीजिए, हिंदी तक से पंडित, गुरु, डकैत जैसे बहुतेरे शब्द जस के तस ले लिए हैं। Kaput जर्मन शब्द है, लेकिन अंग्रेज़ी से उसे ऐसे ले लिया, जैसे सदियों से यह उसी का शब्द था।
हमारी देसी भाषाओं में भी तमाम शब्द हैं, जिनका कोई समानार्थी शब्द हिंदी में नहीं मिलता। जैसे गुजराती शब्द शाता के लिए हम ठंडक का इस्तेमाल करें तो वह बात नहीं आ पाती। अवधी या भोजपुरी के शब्द अँकवार को अगर हिंदी ने लिया है, तो वह समृद्ध ही हुई है। पंजाबी से लेकर मराठी और तमिल, मलयालम, कन्नड़ में भी बहुतेरे शब्द होंगे, जिनसे हिंदी का खज़ाना भर सकता है। कबीर की भाषा ऐसे ही घुमक्कड़ अंदाज़ में बनी थी। अब कोई की-बोर्ड को कुंजीपट और कंप्यूटर को संगणक कहता है तो कितना अटपटा लगता है। हां, मराठी भाषा कैंसर के लिए कर्करोग शब्द को आसानी से पचा लेती है। शब्दों का चयन अगर लोकजीवन के चलन और परंपरा से किया जाए तभी उनकी स्वीकृति संभव है।
असल में ध्वनियों और संकेतों से शुरू हुआ भाषा का सफर सदियों का है जो मानव जाति के आगे बढ़ने के साथ अनंत समय तक जारी रहेगा। हम हिंदी वालों के साथ समस्या यह है कि हम शब्दों की वायवी शुद्धता के चक्कर में पड़े रहते हैं जिसका मूल वहां है जहां हम शब्दों को ब्रह्म की रचना मानते थे। हम मानते थे कि हिंदी भाषा के सभी सोलह स्वर शक्ति-स्वरूप हैं और सभी व्यंजन शिव-स्वरूप। इन्हीं के आपस में मिलने से नामरूपात्मक सृष्टि की अभिव्यक्ति होती है। यह सारी सृष्टि ऊर्ध्वमूल अध:शाखा वाला अश्वस्थ है। इस संसार-रूप अश्वस्थ का बीज ईश्वर, ब्रह्म या शिव है। महद् उसकी योनि (माँ) है और परमात्मा शिव बीजप्रद पिता। गीता में इसे यूं कहा गया है:
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तय: संभवन्ति या:।
तासां ब्रह्म महद् योनिरहम बीजप्रद: पिता।।
मुझे लगता है, आज हमें शब्दों के इस ब्रह्मजाल से बाहर निकलकर सोचना होगा। और, अगर हम व्याकरण को भाषा की आत्मा मान लें तो हिंदी-उर्दू का राजनीतिक झगड़ा भी मिट जाएगा। मुझे बस इतना कहना था। मुंबई की ब्लॉगर मीट की और बातें इसके दूसरे सहभागी लिखें तो वैल्यू-एडिशन हो जाएगा।
8 comments:
shirshak nae man moh liyaa , post to hamesha uttam hii hotee haen
नहीं भाई! आपके शीर्षक से असहमति है .
शब्द-शरीर की आत्मा तो अर्थ होता है,व्याकरण आत्मा कैसे हो सकता है . व्याकरण भाषा-सरिता को बांधने वाला किनारा -- तटबंध -- हो सकता है . बांध इसे मैंने जान-बूझकर नहीं कहा है . बहुत नकारात्मक लगता है . शायद भाषा की पारिस्थितिकी के खिलाफ़ भी. पर जितना आपने दिया ,व्याकरण को उतना महत्व तो व्याकरणशास्त्री भी नहीं देते .
व्याकरण को लगाम कह लिजीये.
चलिये आप लोगो ने सार्थक बहस की, वरना अब तक चाय-पार्टियाँ ही हुआ करती थी.
मेरी भी प्रियंकर जी से सहमति.
शब्द शरीर और भाव आत्मा.
व्याकरण तो केवल जंजीरें है,
आपकी ब्लागर मीट अच्छी लगी
मुझे लगता है फिर से विद्यालय जाना पड़ेगा सीखने कि आत्मा का क्या मतलब है?
दिनेशजी रायजी द्विवेदीजी, विद्यालय जाने के रास्ते पर साथ के लिए मुझे भी उठवा लीजिएगा. ओह, बाल की खाल, और खालो के बाल..
शब्द को शरीर कहा ही नहीं जा सकता... व्याकरण अगर भाषा की आत्मा है तो भाषा शरीर हुआ... इस लिहाज़ से शब्द रोमकूप हुए... स्वस्थ भाषा के लिए शब्दों का शुद्ध होना ज़रूरी है. इसके लिए व्याकरण रूपी आत्मा के वर्ण, शब्द और वाक्य विचार रूपी तत्त्वों को जानना होगा.
आजकल पढ़ना अच्छा लग रहा है सो टिप्पणी देने से रोक न पाए.
सर, इत्तफाकन मेरे घर पर सारे ब्लॉगर मिले थे। इसिलए मुझे पोस्ट लिखनी थी लेकिन, अच्छा हुआ मैंने नहीं लिखा। ये बात मैं इस तरह से लिख ही नहीं पाता। और, अनिलजी ने इसको सच में वही भाव दिया है जो, ध्वनि हम लोगों की आपस की बातचीत में आ रही थी।
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