Monday 31 December, 2007

नए साल में इस गुनाह से बचाना मेरे मौला

अभी-अभी एक मनोहारी धुन कानों में बजी। एक सुंदर एहसास मन के ऊपर से निकल गया। एक मुलायम-सी सुंदर अनुभूति लहराती हुई पास से गुजरी। किसी कोमल भाव का पंख पलकों की बरौनियों को सहलाता हुआ उड़ गया। रंग-बिरंगी तितलियां छोटी-बड़ी, खूबसूरत परिंदे छोटे-बड़े-मझोले। तेज़ी से तय-ताल में उड़ते झुंड के झुंड। चारो तरफ मंडराती लगातार बहती हुई रंग-बिरंगी छवियां जैसे रिमझिम फुहारों में उड़ते अनंत इंद्रधनुष। इस पल हैं, अगले पल फ्रेम से बाहर, दिल-दिमाग आंखों से ओझल। सेकंड भी नहीं लगे और उड़ गईं छवियां। जितनी देर में झुकी पलक ऊपर उठी, आंख खुली, बस इत्ते में ही छवियां-आकृतियां गायब हो गईं।

यहां-वहां, जहां-तहां, नीचे से ऊपर, दिग-दिगंत हर तरफ निहारा, ढूंढा। कहीं नहीं दिखतीं। बस, रह गए तो गालों और बालों पर लगे तितलियों के रंग, फूलों के पराग कण, कपड़ों से उलझे खूबसूरत परिंदों के इक्का-दुक्का पंख। सब अपने निशान छोड़कर चले गए। और, जो चला गया, वह कहां लौटकर आता है उसी रूप में? वक्त के साथ सारे के सारे झुंड उड़ गए। एक रिक्तता का एहसास पीछे छोड़कर। उन्हें दर्ज न करने के अपराध बोध की फांस में जकड़कर रह गए हम। लेकिन हे सुंदर छवियों, एहसास के उमड़ते बादलों! वादा रहा तुमसे कि जब कभी भी दोबारा लौटकर पास से गुजरोगे, तुम्हें दर्ज न करने की गलती दोबारा नहीं करेंगे हम। मेरे मालिक, मेरे मौला, मेरे परवरदिगार! तुझसे भी मेरी यही गुजारिश है कि नए साल में इस गुनाह से बचा लेना मुझे।

सोचता हूं क्या हूं मैं, क्या हो तुम, क्या हैं हम? खास दौर के अदने-से चश्मदीद! बहती धारा की एक बूंद! नहीं, शायद इससे कहीं ज्यादा, क्योंकि हम मनुष्य हैं। ऊपर से हालात ने हमें वह फुरसत बख्शी है कि हम गुजरते वक्त की नब्ज़ थाम सकते हैं। हालात ने हमें वह संवेदना दी है, ज्ञान हासिल करने का वह हौसला दिया है, अभिव्यक्ति का वो माध्यम दिया है जिसके दम पर हम अपने दौर की विसंगतियों की शिनाख्त कर सकते हैं, उनके बारे में सबको बता सकते हैं। हम दंतकथाओं वाले Pied Piper of Hamelin तो नहीं हैं, लेकिन इतना ज़रूर है कि तान लगाकर बैठ जाएं तो सुंदर अनुभूतियां, गहरे मनोभाव और अनकही कथाएं नीर-क्षीर विवेक के साथ झुंड की झुंड हमारे पीछे दौड़ी चली आती हैं।

हां, इतना ज़रूर है कि निश्छलता इसकी अपरिहार्य शर्त है। छल और कपट की मानसिकता वालों को सच के दीदार नहीं हो सकते। लेकिन यह छल और कपट सायास ही नहीं, अनायास भी होता है। जीवन स्थितियां इसका आधार बनती हैं। फिर, अतीत से मिले तमाम ऐसे विचार और धाराएं हैं, धारणाएं हैं जो हमारी दृष्टि को इतना धुंधला कर देती हैं कि कोई भी रीडिंग ग्लास, भले ही कितना भी ‘प्रोगेसिव’ क्यों न हो, हमारे काम नहीं आता। नए साल में मेरा संकल्प है कि ऐसे हर विचार से मैं लडूंगा जो मेरी नज़रों को धुंधला कर देते हैं।

हमें कमज़ोर बनानेवाले हर विचार की चिंदी-चिंदी बिखेरनी होगी नए साल में। तभी हम उस सच को सामने ला सकेंगे जो लोकतंत्र और राष्ट्र-विरोधी ताकतों को बेनकाब करेगा। एक सुंदर इंसान बनने और बनाने का संकल्प है मेरा, तुम्हारा, हमारा। एक सच्चे लोकतांत्रिक भारत का स्वप्न है हमारा। एक मजबूत राष्ट्र का सपना है हमारा। निष्छल, निष्कलुष इंसानों की बस्ती बनाना चाहते हैं हम, धवल आत्माओं की आकाशगंगा में विचरना चाहते हैं हम। अगर आप सब की दुआ रही तो हमारा यह संकल्प ज़रूर पूरा होगा, इस साल नहीं तो अगले साल, अगले साल नहीं तो उसके अगले साल।

ये सच है कि गुजरा वक्त कभी वापस नहीं आता। लेकिन वक्त की हर बूंद को निचोड़ने की चाहत और तैयारी हो तो उसका जाना कभी नहीं सालता। मैं तो आज, साल के आखिरी दिन 31 दिसंबर 2007 को खुद को यही ढांढस बंधा रहा हूं कि खोयी हुई छवियां कल फिर लौटकर आएंगी पहले से ज्यादा सघन रूप में। सुंदर मनोभाव लौटेंगे पूरे दल-बल के साथ। तितलियों और परिंदों के झुंड फिर गुजरेंगे अपनी छत से। नए साल में उन्हें बिना दर्ज किए ओझल हो जाने का मौका मैं नहीं दूंगा। अब अपने मोबाइल में तो कैमरा भी हैं और लिखने के लिए पड़ा है पूरा ब्लॉग।


साल 2008 प्रमाद से मुक्ति और सक्रियता का साल हो, यही मेरी ख्वाहिश है अपने लिए, आपके लिए। नए साल की ढेर सारी शुभकामनाएं...

Monday 24 December, 2007

मोदी ही महात्मा गांधी के असली वारिस हैं

सारे के सारे मोदी-मुदित ब्लॉगिए कल से ही मंद-मंद मुस्करा रहे हैं। कोई लगातार मोदी-पुराण लिख रहा है तो कोई नतीजे आने से पहले तक मोदी के खिलाफ लिखनेवालों से पंगा ले रहा है। कोई कह रहा है रात गई, बात गई। मोदी की ऐतिहासिक जीत के साथ ही उस पर आई प्रतिक्रियाओं के विश्लेषण हो रहे हैं। नमो के खिलाफ भी लिखा जा रहा है, लेकिन उसमें पहले जैसी तल्खी नहीं है। दिक्कत ये भी है जो तल्खी से लिख सकते थे वे अभी लव स्टोरी लिखने में व्यस्त हैं। मैं अभी तक इस मसले पर नहीं लिख सका, इसके लिए अंदर ही अंदर अजीब-सा अपराध बोध महसूस कर रहा था। इसलिए न-न करते हुए भी लिखने बैठ गया।

पहली बात। मैं अपनी सीमित जानकारी के आधार पर कह सकता हूं कि व्यक्तिगत जीवन में मोहनदास कर्मचंद गांधी जितने पाक-साफ थे, नरेंद्र दामोदरदास मोदी उतने ही पाक-साफ हैं। गुजराती होने के अलावा इन दोनों में एक और समानता है। जिस तरह गांधी ने पूरी आज़ादी की लड़ाई के दौरान हमेशा संगठन और संस्थाओं की अनदेखी की, कभी भी निचले स्तर के संगठनों को नहीं बनने दिया, उसी तरह मोदी ने भी सरकारी संस्थाओं की ही नहीं, बीजेपी और संघ तक की अनदेखी की है। जिस तरह जनता और गांधी के बीच कोई भी कद्दावर नेता नहीं आता था, उसी तरह मोदी ने भी अपने आगे सभी नेताओं को अर्थहीन और बौना बना दिया है। इस मायने में मुझे लगता है कि नरेंद्र दामोदरदास मोदी ही आज मोहनदास कर्मचंद गांधी के असली राजनीतिक उत्तराधिकारी हैं।

गांधी की करनी का नतीजा ये हुआ है कि आजा़दी के बाद भी हम औपनिवेशिक लूट के लिए अंग्रेजों द्वारा बनाई गई संस्थाओं के मोहताज बने रहे क्योंकि वैक्यूम को भरने के लिए कांग्रेस ने अपना कुछ बनाया ही नहीं था। गांधी ने तो कांग्रेस तक को भंग करने की बात कही थी। मोदी आज भले ही केंद्रीय नेतृत्व के मार्गदर्शन और लाखों कार्यकर्ताओं की मेहनत को अपनी जीत का श्रेय दे रहे हों, लेकिन राजनीति का यह चालाक लोमड़ जानता है कि कब किसको पुचकारना है और कब किसको ठुकराना है। उसने छह सालों के अपने शासन में लोकतंत्र के तीनों स्तंभों न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका को जब जैसे चाहा, अपनी उंगलियों पर नचाया। इन सभी की विश्वसनीयता को उसने दो कौड़ी का बना दिया। व्यक्ति के रूप में मोदी कुशल प्रशासक हो सकते हैं। लेकिन कल को वो न रहे तो जिन साढ़े पांच करोड़ गुजरातियों की बात वो कर रहे हैं, उनकी ख्वाहिशों और लोकतांत्रिक चाहतों को कौन पूरा करेगा? इसी वजह से मुझे आशंका है कि आज जो लोग मोदी की जीत पर मुदित हैं, कहीं ऐसा न हो कि कल उन्हें इसी मोदी को गुजरात का सत्यानाश करने के लिए गालियां देनी पड़े।

कहा जा रहा है कि मोदी के शासन में हुए विकास के कारण गुजरात के अवाम ने मोदी को जिताया है। अगर ऐसा ही है तो मोदी सरकार के सात मंत्री क्यों हार गए, जिसमें शहरी विकास मंत्री आई के जडेजा, कृषि मंत्री भूपेंद्रसिंग चुडासामा और राजस्व मंत्री कौशिक पटेल शामिल हैं? फिर विकास के नाम पर बड़े उद्योगपतियों ने अगर गुजरात में अरबों का निवेश किया है तो मोदी के शासन में बिजली चोरी के नाम पर करीब सवा लाख किसानों को सताया गया और तीन हज़ार से ज्यादा किसानों को हथकड़ियां लगाकर जेल की हवा खिलाई गई। खुद बीजेपी से जुड़ा किसान संगठन, भारतीय किसान संघ इस मुद्दे को उठा चुका है। पूंजी निवेश आने से विकास होता है, लेकिन इस विकास से किसकी चांदी हो रही है और किससे इसकी कीमत वसूली जा रही है, इस पर भी बराबर नज़र रखनी ज़रूरी है।

तीसरी बात। हमने अंग्रज़ों से संसदीय लोकतंत्र की जो प्रणाली उधार ली है, उसकी एक बुनियादी शर्त अभी तक देश में पूरी नहीं हुई है। ब्रिटेन में चुनावों के साथ ही पार्टियों का लोकतांत्रिक ढांचा बहुत मजबूत है। इसके विपरीत हमारे यहां लेफ्ट और बीजेपी के अलावा बाकी सभी पार्टियां व्यक्ति आधारित हैं। कांग्रेस को गांधी परिवार ने अपनी जागीर बना रखा है। मायावती की बीएसपी में सभी नेता उनकी कृपा के मोहताज हैं। लालू से लेकर नीतीश और रामविलास पासवान की पार्टी का भी यही हाल है। अब मोदी लोकतंत्र के इस कोढ़ में खाज बनकर उभरे हैं। वे मुंह से भले ही बीजेपी के सर्वोपरि होने की बात कह रहे हों, लेकिन गुजरात में उन्होंने दिखा दिया है कि उनके आगे पार्टी की कोई अहमियत नहीं है। इसलिए भी मोदी इस देश में स्वस्थ लोकतंत्र के विकास में बहुत बड़ी बाधा हैं।

चौथी और आखिरी बात। गुजरात में इस बार करीब 60 फीसदी मतदान हुआ, जिसमें से बीजेपी/मोदी को 48 फीसदी वोट मिले हैं। यानी साढ़े पांच करोड़ गुजरातियों में से करीब 1.60 करोड़ (29 फीसदी) लोगों ने मोदी को अपना नेता माना है। जिन 40 फीसदी गुजरातियों ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया, उसमें से ज्यादातर हमारे-आप जैसे ‘पढ़े-लिखे’ लोग हैं, जो घरों में, चौराहों पर बहस तो खूब करते हैं, लेकिन पोलिंग बूथ तक जाने की जहमत नही उठाते। इसलिए मेरा कहना है कि देश में वोट देना कानूनन अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए और जो मतदाता ठीकठाक होने के बावजूद वोट न डालने जाएं, उस पर तगड़ा जुर्माना लगाया जाना चाहिए।

Friday 21 December, 2007

तुम किसकी चाकरी करते हो, कमलनाथ!

यह सवाल मैं किसी और से नहीं, छिंदवाड़ा के एमपी और वाणिज्य व उद्योग मंत्री कमलनाथ से पूछना चाहता हूं। इसकी वजह यह है कि एक खबर के मुताबिक कमलनाथ ने 15-20 दिन पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को चिट्ठी लिखकर मांग की है कि अमेरिकी मोटरसाइकिल Harley Davidson पर आयात शुल्क 60 फीसदी से घटा दिया जाए। 105 साल पुराने Harley Davidson को अमेरिका का नास्टैल्जिया बाइक ब्रांड माना जाता है। इसकी सबसे कम पावर वाली बाइक 883 सीसी की है, जबकि सबसे ज्यादा पावर वाली बाइक 1450 सीसी की है। कंपनी दो सालों से जुगाड़ में लगी है कि उसे किसी तरह अपना माल भारतीय बाज़ार में खपाने की सहूलियत मिल जाए।

हमारे वाणिज्य मंत्री कंपनी की इसी सहूलियत के लिए प्रधानमंत्री से गुजारिश कर रहे हैं। दिक्कत यह है कि Harley Davidson की सबसे सस्ती बाइक की कीमत 6600 डॉलर है, जबकि अगले साल लांच होनेवाली बाइक की कीमत 17,600 डॉलर से ज्यादा है। 60 फीसदी ड्यूटी लगने के बाद भारत में इनकी कीमत 4 लाख से 12 लाख रुपए तक हो जाएगी। इसलिए कंपनी लगातार लॉबीइंग कर रही है कि ड्यूटी कम से कम कर दी जाए। कंपनी भारत में इन मोटरसाइकिलों को बनाने की सुविधा लगाने को तैयार नहीं है। वह अमेरिका में बनी मोटसाइकिलें आयात करेगी और अगले तीन सालों में 2000 मोटरसाइकिलें भारत में बेचने का उसका लक्ष्य है। कमाल की बात है कि मंत्री कमलनाथ को भी उसने अपनी लॉबीइंग में खींच लिया है।

अब ज़रा कमलनाथ के तर्कों पर गौर कर लीजिए। उनका कहना है कि Harley Davidson अमेरिका और उसकी संस्कृति की प्रतीक है और इसके आयात को आसान बनाने से बहुत गहरा राजनीतिक सिग्नल जाएगा। इससे भारत-अमेरिका की दोस्ती में मजबूती आएगी। उनका कहना है कि Harley Davidson पर आयात शुल्क घटाने का प्रस्ताव इंडो-यूएस ट्रेड पॉलिसी फोरम ने रखा है और अमेरिकी सीनेट में बहुमत के नेता हैरी रीड का वरदहस्त इसके ऊपर है। इसलिए प्रधानमंत्री को शुल्क को घटाने का फैसला कर ही लेना चाहिए। सोचिए, एक मंत्री जब एक मोटरसाइकिल कंपनी के लिए इस हद तक जा सकता है तो भारत-अमेरिका परमाणु संधि पर तमाम मंत्रियों की आवाज़ कितनी तेज़ हो सकती है।


यूपीए सरकार ने इसी साल अप्रैल में 800 सीसी से ज्यादा की मोटरसाइकिलों को देश में आयात किए जाने की इजाज़त दी है। बताया गया कि क्योंकि अमेरिका ने अपने देश में भारतीय आम आयात करने को हरी झंडी दे दी है, इसलिए हमें कुछ न कुछ तो करना ही था। हकीकत ये है कि इस तरह की मोटरसाइकिलें अभी भारत में दोपहिया वाहनों के लिए तय मानक से छह गुना ज्यादा प्रदूषण फैलाती हैं। फिलहाल देश में मोटरसाइकिलें बनानेवाली तीन बड़ी कंपनियां हीरो होंडा, बजाज और टीवीएस हैं। ये सभी 350 सीसी से कम पावर की मोटरसाइकिलें बनाती हैं। इसलिए कमलनाथ का कहना है कि Harley Davidson के आने से इनके धंधे पर कोई असर नहीं पड़ेगा।

सवाल उठता है कि देश में अमीरों की नई खेप तैयार होने के बाद अगर 800 सीसी से ज्यादा पावर वाली मोटरसाइकिलों का बाज़ार बना है तो उस पर पहला हक अमेरिका या यूरोप की किसी कंपनी को कैसे दिया जा सकता है? जब हमारे आम कारीगर सालों-साल से ऐसी मोटरसाइकिलें असेम्बल करके बना रहे हैं, तब क्या भारतीय कंपनियों में इन्हें बनाने की क्षमता नहीं है? भारतीय निर्यात को बढ़ावा देने का दम भरनेवाले पढ़े-लिखे जानकार वाणिज्य मंत्री कमलनाथ यही साबित करना चाहते हैं कि भारतीय कंपनियां अक्षम हैं। लेकिन जिस तरह उन्होंने एक अमेरिकी कंपनी के लिए लॉबीइंग की है, उससे उनका दलाल चरित्र साफ हो गया है। और आप जानते ही हैं कि दलाल किसी का नहीं होता। उसे सिर्फ अपनी दलाली से मतलब होता है। बाकी वह जो कुछ भी चीख-चीख कर बोलता है, उसका मकसद केवल और केवल अपनी विश्वसनीयता बनाना होता है ताकि दलाली करने के बावजूद लोग उसे पाक-साफ समझते रहें।

न होता मैं तो क्या होता? कुछ नहीं होता...

इधर काफी दिनों से मन एकदम बुझा-बुझा हुआ है। न कुछ लिखने का दिल करता है, न पढ़ने का। सिर को जब तक हाथ से पकड़े रहो, तभी तक सीधा रहता है। टेक हटते ही मुर्दे के सिर की मानिंद इधर-उधर लुढ़क जाता है। ऐसा नहीं कि दिमाग में कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, विचार और भाव नहीं आते, लेकिन वे इस तरह डूब जाते हैं जैसे उस कहानी में गन्ने के रस में पूड़ियां डूब जाती थीं। हुआ यह कि दो यादव भाई जबरदस्त भोजनभट्ट थे। बड़ा भाई शादीशुदा था, जबकि छोटे के लिए अभी देख-नहरू चक्कर लगा रहे थे। बड़ा भाई ससुराल गया तो छोटा भी पीछे लग गया। ससुराल वाले उनके खाने की ख्याति से भलीभांति वाकिफ थे।

अभी की तरह यही कोई दिसंबर-जनवरी का महीना था। गन्ना कटकर घरों में आने लगा था। तो, घर में भीतर-बाहर बात करने के बाद ससुराल वालों ने तय किया कि पहले दोनों भाइयों को जमकर गन्ने का रस पिलाया जाएगा और उसके बाद पूड़ी वगैरह खिलाई जाएगी। गन्ने के रस से पेट भर जाता है तो दोनों भाई पूड़ी ज्यादा नहीं खा पाएंगे। गन्ने का रस पेश किया गया तो दोनों भाई कई बाल्टी रस डकार गए। फिर खाने बैठे। पूड़ियां आती गईं, दोनों निगलते गए। करीब सौ पूड़िया खाने के बाद छोटा भाई बड़े भाई से बोला – ये भइया, पूड़िया तो रसवा में डब-डब डूबत चलि जाति हा। तो इसी तरह विचार मन की अतल गहराइयों में डब-डब करके डूबते जा रहे हैं। कोई छोर दिखता है तो पकड़ने की कोशिश करते ही सतह के नीचे सरक जाता है।

जेहन में अनावश्यक और निरर्थक हो जाने का भाव गहरा हो जाता है। सोचता हूं इस ढीलेपन और पस्ती की वजह क्या है? मन की चादर गुड़ीमुड़ी क्यों हो गई है? अलगनी से कपड़ा उड़कर नीचे क्यों गिर गया? सीधी-सी बात है कि क्लिप नहीं लगाओगे तो हवा का ज़रा-सा झोंका भी कपड़े को उड़ा ले जाएगा। सामाजिक रिश्तों ने चादर को तानकर नहीं रखा तो वह गुड़ीमुड़ी हो ही जाएगी। खुद को redundant महसूस करने का आधार यही है। जब तक उत्पादन के रिश्ते और रिश्तों की डोर आपको ताने रहती है तब तक निरर्थकता के बोध को आने का मौका ही नहीं मिलता। लेकिन जैसे ही काम का अभाव और आसपास की दुनिया की खिलंदड़ी से आपका साबका पड़ता है, सब कुछ निरर्थक लगने लगता है। पूरा वजूद सौ साल के बूढ़े के चेहरे की झुर्रियों की तरह नीचे लटक जाता है। और आप सोचने लगते हैं कि मेरे होने या न होने से किसी को क्या फर्क पड़ता है!! फिर यही भाव किसी दिन आपको अवसाद और आत्महंता मानसिकता के गर्त में खींच ले जाता है।

ध्यान दें कि शहरों में बूढ़े या नौजवान व्यक्तिगत निरर्थकता के अहसास में खुदकुशी करते हैं, जबकि महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश या बुंदेलखंड का किसान अपने सामाजिक-आर्थिक वजूद और साख के खतरे में पड़ जाने के चलते खुदकुशी करता है। बिजनेसमैन घाटे में फंसकर दिवालियेपन की कगार पर पहुंचकर अपनी जान लेता है। लेकिन आईआईटी का छात्र निरर्थकता के बोध में डूबकर अपनी जान लेता है। आज सामाजिक तानेबाने के ढीले पड़ने और कायदे का मनमाफिक काम न मिल पाने की वजह से देश के लाखों लोग खुद को फालतू महसूस करने लगे हैं। उनके लिए जीवन और मौत के बीच बेहद पतली रेखा खिंची हुई है, जिसे वो हमेशा पार करने को बेताब रहते हैं।

जब तक हम लोगों को यह अहसास नहीं कराते कि जो भी इस देश, दुनिया, समाज में पैदा हुआ है, वह वेशकीमती है, उसकी उपयोगिता है, तब तक हम उनकी अवसादग्रस्त मानसिकता को दूर नहीं कर सकते। सिर्फ सड़कों, पुलों और बिजलीघरों के बनाने से देश नहीं बना करते। राष्ट्र-निर्माण के लिए लोगों के मन को सुंदर भविष्य से बांधना भी एक बुनियादी शर्त है। नहीं तो बहुतेरे दफ्तर और घर निरर्थकता के बोध से घिरे लोगों की कब्रगाह बनने को तैयार बैठे हैं।
फोटो सौजन्य : mike _1360

Thursday 20 December, 2007

शंकर का दर्शन मिटेगा, गीता किताब भर बचेगी

किसी राष्ट्र की सोच और संस्कृति बहुत धीरे-धीरे बदलती है। राजनीति तो पांच-दस साल में ही उलट की पुलट हो सकती है, लेकिन सोच और संस्कृति के लिए पचास-सौ साल भी कुछ नहीं होते। लेकिन कभी-कभी यह अचानक इतनी तेज़ी से बदलने लगती है जैसे कहीं से कोई भूचाल आ गया हो। मुझे लगता है कि हम लोग द्रुत परिवर्तन के इसी दौर के साक्षी हैं। शायद 25 से 45-50 साल की हमारी पीढ़ी वो आखिरी पीढ़ी होगी जो ब्रह्म सत्यम् जगत मिथ्या जैसे दार्शनिक सूत्रों को गुनती है। इसके बाद की पीढ़ी के लिए तो रामायण, महाभारत, उपनिषद और गीता-पुराण बस रोचक कहानियों के स्रोत होंगे। जिस तरह लोग बुद्ध की जातक कथाएं पढ़ते हैं, सीत-बसंत की कहानी पढ़ते हैं, अगिया-वैताल की कथा सुनते हैं, वैसे ही इन पोथियों को भी बांचेंगे-पढ़ेंगे।

गांवों में 85 फीसदी का आंकड़ा बनानेवाली दलित व पिछड़ी आबादी के लिए गीता, महाभारत, उपनिषद या रामायण कभी भी प्रेरणा के स्रोत नहीं रहे। कबीर या रैदास जैसे संत ही उनका सहारा रहे। बाकी 15 फीसदी सवर्णों को ज़िंदगी ने इतना झिंझोड़कर रख दिया है कि वे संभवत: पुरानी पीढ़ी के साथ इन ग्रंथों का भी क्रियाकर्म कर देंगे। नगरों-महानगरों में 15 से 25 साल तक के बच्चे इतने दुनियादार हो गए हैं कि उन्हें ये सारी बातें और ज्ञान फिज़ूल का लगता है। मां-बाप के कहने पर पूजा में बैठ तो जाते हैं, लेकिन बस कहने भर को। उनके icons अलग हैं, प्रेरणा के स्रोत अलग हैं। लेकिन अपनी ऊर्जा को channelise करना वो बखूबी जानते हैं। करियर के बारे में अपने से ठीक पहले की पीढ़ी से कहीं ज्यादा साफ सोच रखते हैं।

यह सिर्फ पीढ़ी का अंतर नहीं है। उससे कुछ अधिक है क्योंकि जो सवाल 60-65 साल पहले लोगों को मथते थे, उनकी प्रासंगिकता हमारी पीढी पर आकर समाप्त हो गई। जैसे, मुक्तिबोध 1939 में प्रकाशित एक लेख में कहते हैं, “श्रीमद् भगवत्गीता का कर्मयोग जन साधारण के लिए अत्यंत सुंदर तत्व-शास्त्र होते हुए भी वे उस ओर न झुककर शंकराचार्य के मायावाद और कबीर के दार्शनिक मतों के भ्रष्ट रूप पर अधिक जल्दी झुकते हैं क्योंकि आशावाद महान कठिनाइयों, ठोकरों के सम्मुख रहते हुए आत्मा की सबलता का चिह्न है, और क्योंकि उनकी आत्मा इस तरह की कष्टपूर्ण परिस्थितियों में दुख को सहनकर रास्ता खोजने के काम नहीं कर सकती। अपनी कमज़ोरियों को दार्शनिक रूप में उपस्थित कर उसके उच्चत्व की माया में अपने को भुलाना भारतीय जन-साधारण की मनोवृत्ति का सूचक है।”

हो सकता है कि भारतीय जन-साधारण की मूल मनोवृत्ति अब भी वैसी ही हो। लेकिन शंकर का दर्शन अब नई पीढ़ी के लिए बकवास बन चुका है, जबकि गीता के श्लोक भी किसी की पुण्यतिथि के विज्ञापन की पंक्तियों तक सिमटकर रह गए हैं। ये अलग बात है कि गीता के निष्काम कर्मवाद में किसी भी वेंचर-एडवेंचर के जोखिम से निपटने का जबरदस्त संबल है। फल के बारे में आप ज़रूर सोचेंगे, लेकिन फल की चिंता नहीं करने के भाव से ही आप अनावश्यक संशय और अवसाद से बच जाते हैं। इस लिहाज से गीता आत्मनिर्भर कृषि अर्थव्यवस्था से निकलकर उद्योग-धंधे में कूदने के लिए तैयार करने का दर्शन पेश करती है और उसकी प्रासंगिकता आज भी किसी भी गांधीवाद या एकात्म मानववाद से कहीं ज्यादा है।

मुक्तिबोध ने इस लेख में सवाल पूछा है जो आज भी प्रासंगिक है। सवाल है : इस हिंदुस्तानी खराबी का कारण क्या है? क्या भारतीय ऋषि-मुनि गलत थे? क्या बात है कि भारतीय साधारण समाज अपनी उसी पुरानी बौद्धिक अवस्था पर है जिस पर वह पहले से विराजमान है? फिर कारणों की तलाश करते हुए वे लिखते हैं : भौगोलिक, ऐतिहासिक तथा आर्थिक आदि कारणों के अलावा कुछ ऐसे भी कारण हैं जिनको हम भारतीय विचारकों की मूल वृत्ति कह सकते हैं। भारतीय कलाकार, चिंतक तथा साहित्यिकों ने अपनी व्यक्तिगत उन्नति को पराकाष्ठा तक पहुंचा दिया किंतु अपने साथ वे समाज को न ला सके।

व्यक्तिगत उन्नति की पराकाष्ठा, मगर समाज से दूरी। ज्ञान दूर, क्रिया कुछ भिन्न। सच है, चिंतकों के ज्ञान और कर्म का फासला जन-साधारण को दर्शन की ताज़गी और नएपन से दूर रखता है। वैसे, पीढियां कितनी भी बदल जाएं, दर्शन और जीवन-दृष्टि की ज़रूरत तो हमेशा रहेगी। कहीं शून्य में छलांग लगाती नई पीढ़ी अराजकता का शिकार न हो जाए, इस आशंका को निराधार बनाना हमारी उस पीढ़ी की ज़िम्मेदारी है जिसकी उम्र अभी 25 से लेकर 45-50 साल तक की है।
फोटो साभार : सरमैक्स

Wednesday 19 December, 2007

दिमाग बंदकर सुनना हमारी राष्ट्रीय आदत है

सोचिए, कितनी अजीब बात है कि हम किसी को सुनने से पहले ही अपनी सहमति-असहमति तय किए रहते हैं। हम किसी को या तो उससे सहमत होने के लिए सुनते हैं या उसे नकारने के लिए। उसकी बातों के तर्क से हमारा कोई वास्ता नहीं होता। हां तय कर लिया तो सामनेवाले की बस उन्हीं बातों को नोटिस करेंगे जो हमारी मान्यता की पुष्टि करती हों और नहीं तय कर लिया तो बस मीनमेख ही निकालेंगे। असल में हम ज्यादातर सुनते नहीं, सुनने का स्वांग भर करते हैं और कहां खूंटा गड़ेगा, इसका फैसला पहले से किए रहते हैं।

घर में यही होता है, बाहर भी यही होता है। हम संस्कृति में यही करते हैं, राजनीति में भी यही करते हैं; और अर्थनीति में तो माने बैठे रहते हैं कि सरकार जो भी कर रही है या आगे करेगी, सब गलत है क्योंकि सब कुछ आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक के इशारे पर हो रहा है। यह अलग बात है कि आज आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक के सामने खुद को बचाने के लाले पड़े हुए हैं। आईटी सेक्टर में अगर लाखों नौकरियों के अवसर बन रहे हैं तो कहेंगे कि सब बुलबुला है, इसके फटने का इंतज़ार कीजिए। किसी भी नीति को उसकी मेरिट या कमी के आधार पर नहीं परखते। माने बैठे रहते हैं कि हर नीति छलावा है तो मूल्यांकन करने का सवाल ही नहीं उठता। बिना कुछ जाने-समझे फरमान जारी करने के आदी हो गए हैं हम।

प्यार करते हैं तो इसी अदा से कि तुम दिन को अगर रात कहो, रात कहेंगे। किसी को दोस्त बना लिया तो उसके सात खून माफ और जिसको दुश्मन मान लिया, उसमें रत्ती भर भी अच्छाई कभी नज़र नहीं आती। अंदर ही अंदर एक दुनिया बना लेते हैं, फिर उसी में जीते हैं और एक दिन उसी में मर जाते हैं। सबके अपने-अपने खोल हैं, अपने-अपने शून्य हैं। अपने-अपने लोग हैं, अपनी-अपनी खेमेबंदियां हैं। निर्णायक होते हैं हमारे निजी स्वार्थ, हमारी अपनी सामाजिक-आर्थिक-मानसिक सुरक्षा। असहज स्थितियों से भागते हैं, असहज सवालों को फौरन टाल जाते हैं। विरोध को स्वीकारने से डरते हैं हम। ना सुनने की आदत नहीं है हमें।

यही हम भारतीयों का राष्ट्रीय स्वभाव बन गया है। आज से नहीं, बहुत पहले से। बताते हैं कि सन् 1962-63 की बात है। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इलाहाबाद आए थे। समाजवादी लेखक और विचारक विजयदेव नारायण शाही ने उनके खिलाफ जुलूस निकाला। नेहरू से मिलने आनंद भवन जा पहुंचे और... नेहरू ने बिना कोई बात किए इस संयत शांत विचारक का कुर्ता गले से पकड़कर नीचे तक फाड़ डाला। नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी अपने विरोधियों से क्या सुलूक करती थीं, इसके लिए किसी दृष्टांत की ज़रूरत नहीं। आज बीजेपी में नरेंद्र मोदी इसी तरह ना नहीं सुनने के लती बन चुके हैं।

लेफ्ट भी अपने आगे किसी की नहीं सुनता। कार्यकर्ता के लिए नेता की बात अकाट्य होती है। दसियों धड़े हैं और सबकी अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग। कितनी अजीब बात है कि जैसे ही कोई मार्क्सवादी पार्टी में दाखिल होता है, बिना किसी जिरह और पुराने दार्शनिक आग्रहों को छोड़े द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का प्रवक्ता बन जाता है। लाल रंग का मुलम्मा चढ़ा नहीं कि वह वैज्ञानिक समाजवादी हो जाता है। फिर वह जो कुछ बोलता है, वही जनता और क्रांति के हित में होता है। बाकी लोग या तो दलाल होते हैं या गद्दार।

यह भी गजब बात है कि जिन लोगों ने बीजेपी में रहते हुए ईसाई धर्म-परिवर्तन के खिलाफ जेहाद छेड़ा था, दंगों में उद्घोष करते हुए मुसलमानों का कत्लेआम किया था, वही लोग कांग्रेस में शामिल होते ही घनघोर सेक्यूलरवादी हो गए, सोनिया गांधी के प्रिय हो गए। कल तक जो घोर ब्राह्मणवादी थे, वही नेता बहनजी के साथ आते ही दलितों के उद्धार की कसमें खाने लगे। हम उछल-उछलकर खेमे बदलते हैं। मुझे लगता है, यह अवसरवाद के साथ-साथ हमारी राष्ट्रीय आदत भी है। अपनी स्थिति को बचाने के लिए तर्क करना या दूसरे की स्थिति को स्वीकार करने के लिए तर्क करना हम एक सिरे से भूल चुके हैं।

इसी तरह की लीपापोती हम अपने घर-परिवार और नौकरी-पेशे में भी करते हैं। या तो हां में हां मिलाते हैं या सिर्फ नकारते रहते हैं। लेकिन इस तरह सामंजस्य और शांति बनाए रखने की कोशिश में हमें जो कुछ भी मिलता है, वह दिखावटी होता है, क्षणिक होता है। पाश के शब्दों में कहूं तो, “शांति मांगने का अर्थ युद्ध को जिल्लत के स्तर पर लड़ना है, शांति कहीं नहीं होती।”

Tuesday 18 December, 2007

ब्लॉग ने खोले हैं अनंत अभिव्यक्तियों के द्वार

"एक बड़ा ही अजीब दृश्य है कि कई सुंदरतम अनुभूतियां विविध नर-नारियों के मन में गुप्त रह जाती हैं। ...और वे अनुभूतियां ऐसी होती हैं जिनके एकत्रीकरण से सर्वोत्तम विश्व साहित्य तैयार हो सकता है। साधारण मनुष्य जिसके पास कलम का ज़ोर या वाणी की प्रतिभा नहीं है, इस विषय में बहुत अधिक दुर्भाग्यशाली है क्योंकि उसकी अभिव्यक्ति का मार्ग रुका हुआ है।" गजानन माधव मुक्तिबोध ने 65 साल पहले छपे अपने एक लेख में यह बात कही थी। लेकिन आज इंटरनेट और हिंदी ब्लॉगिंग ने ‘साधारण मनुष्य’ के इस दुर्भाग्य को खत्म कर दिया है। उसकी अभिव्यक्ति का मार्ग खोल दिया है। और, अब सचमुच ऐसी-ऐसी अनुभूतियां सामने आ रही हैं और आगे आएंगी कि मुक्तिबोध के शब्दों में, “जिनके एकत्रीकरण से सर्वोत्तम विश्व साहित्य तैयार हो सकता है।” मैं तो इस समय ब्लॉगिंग और साहित्य पर छिड़ी बहस को लेकर यही कहना चाहता हूं।

ऐसा नहीं है कि पहले आम लोग लिखते नहीं थे। डायरी लिखते थे। कविताएं और कहानियां लिखते थे। कुछ जिद्दी लोग उपन्यास भी लिखते थे। लेकिन उन्हें पढ़नेवाले गिने-चुने थे। आज जहां हिंदी साहित्य में जब कोई किताब 600 प्रतियां बिकने पर बेस्टसेलर बन जाती हैं, तब हिंदी के ब्लॉगरों की ही संख्या 1400 के करीब पहुंच चुकी है। और, ऐसे बहुत से पाठक हैं जो ब्लॉगर नहीं है। इस आधार पर माना जा सकता है कि आप अगर अपने ब्लॉग पर कुछ लिखते हैं तो उसे आज की तारीख में भी देर-सबेर 2000 पाठक मिल ही सकते हैं। वैसे, सचमुच कितनी कसक और अफसोस की बात है कि 40 करोड़ हिंदीभाषियों के होते हुए भी हमें 2000 पाठकों को बड़ी संख्या बतानी पड़ रही है।

आज हिंदी ब्लॉगिंग की दुनिया में जो भी लोग की-बोर्ड खटखटा रहे हैं, उनमें से ज्यादा से ज्यादा सौ लेखकों को छोड़ दें तो बाकी सभी साधारण मनुष्य हैं। कोई कुवैत में बैठकर अपनी अंतर्कथा लिख रहा है तो कोई टोरंटो से। यहां लखनऊ भी है, ठाणे भी, गुड़गांव, वाराणसी और पटना भी। सभी कोशिश कर रहे हैं कि वो अपने अनुभवों और अनुभूतियों के अलावा भी ऐसा कुछ लिखें जो दूसरों के काम का हो। तुर्की के मशहूर नोबेल पुरस्कार विजेता लेखक व उपन्यासकार ओरहान पामुक का कहना है, “लेखक की कलाकारी इसमें हैं कि वो अपनी कहानी को इस अंदाज़ में बताए जैसे वे दूसरों की कहानियां हों और दूसरों की कहानियों को इस तरह कहे जैसे कि वे खुद उसकी हों, क्योंकि यही होता है साहित्य।”

मैं कोई समालोचक नहीं है, लेकिन आज मैं पामुक की इस परिभाषा को हिंदी ब्लॉगिंग की दुनिया पर लागू करके देखता हूं तो मुझे एक साथ कई साहित्यकार नज़र आने लगते हैं। आनंद का चिट्ठा पढ़कर तो मैं अचंभित रह गया। हर पोस्ट में आनंद दूसरे के चरित्र में घुसकर बेहद तार्किक कथा सुना रहे होते हैं। कभी वे जेपी पांडे होते हैं, कभी भरत कुमार थपलियाल, कभी कैलाश वर्मा तो कभी मंत्रीजी के ड्राइवर रामशरण बन जाते हैं। अब विकास की ताज़ा कहानी की ही बात ले लीजिए। अगर इसमें कुशल संवेदनशील संपादकों के दो-चार हाथ लग जाएं, कहीं-कहीं अनुभूतियों को और गहरा कर दिया जाए, इसे फाइन-ट्यून कर दिया जाए तो यह गुलेरी की उसने कहा था कहानी जैसा असर छोड़ सकती है।

असल में हिंदी साहित्य और ब्लॉगिंग में कोई टकराव नहीं है। बल्कि सच कहा जाए तो ब्लॉगिंग हिंदी साहित्य की जड़ता को तोड़ने का एक अल्टीमेटम है। वैसे, जो साहित्यकार भयवश ज़िंदगी के झंझावात में कूदने से भागते रहे हैं और इसीलिए उनके पास ताज़ा अनुभवों का हमेशा टोंटा रहता है, उनके लिए अब हिंदी ब्लॉगरों के आने से काफी सहूलियत हो गई है। मेरी उनको सलाह है कि चिट्ठाजगत या ब्लॉगवाणी पर नियमित दो घंटे बिताएं तो उन्हें असली ज़िंदगी की झलक मिलेगी, ताज़ा अनुभव मिलेंगे और साथ ही लिखने का नया माल भी मिल जाया करेगा।

Monday 17 December, 2007

आईआईटी-आईआईएम तक में मची है खलबली

जबरदस्त संक्रमण का दौर है। भयंकर मंथन चल रहा है। लोग विचलित हैं कि सब कुछ दुरुस्त क्यों नहीं हो रहा। सर्वे भवंति सुखिन: सर्वे संतु निरामया की स्थिति क्यों नहीं आ रही? आस्था का संकट क्यों है, मूल्य क्यों मिट रहे हैं, परंपराएं विकृत क्यों हो जा रही है? हमारे लोकतंत्र में इतनी खोट क्यों है? इतना भ्रष्टाचार क्यों है? ये मंथन हर आम संवेदनशील हिंदुस्तानी के मन में चल रहा है। यहां तक कि जिनके सामने सुरक्षित भविष्य के सबसे शानदार अवसर है, वो भी इन सवालों से बेचैन होकर कॉरपोरेट करियर को लात मार रहे हैं। जी हां, आईआईटी और आईआईएम के कैम्पस तक में समाज को बेहतर बनाने की पहल हो रही है और जिसको जितना समझ में आ रहा है, वह उतना कर रहा है।

जैसे, आईआईएम कोलकाता के अरीब खान को ही ले लीजिए। इसी साल अप्रैल में उनका ग्रेजुएशन पूरा हुआ है; और उन्होंने किसी देशी-विदेशी कंपनी में जाने के बजाय एक वेबसाइट बना डाली, जिसका नाम रखा है पर्दाफाश डॉट कॉम। इनका मिशन है कि आम आदमी अपने अधिकारों के वाकिफ हो और सिस्टम से दो-दो हाथ करने को तैयार हो जाए। आज पर्दाफाश के पास पूरी टीम है। इसके खास सदस्यों में शामिल हैं आईआईटी खड़कपुर के ग्रेजुएट सिद्धार्थ बनर्जी और दिल्ली यूनिवर्सिटी से पत्रकारिता कर रही नाज़िया इरम। सीएनएन-आईबीएन और तहलका के कुछ लोग भी इनके साथ जुड़े हैं। इन्होंने अपना एक ब्लॉग भी बना रखा है। हालांकि ये वेबसाइट और ब्लॉग दोनों ही मूलत: अंग्रेज़ी में हैं। फिर भी इनकी पहल यकीनन न्यायप्रिय व लोकतांत्रिक समाज बनाने में मददगार होगी।

दिलचस्प बात ये है कि अरीब खान अपनी इस पहल को महज जन-कल्याण के एक साधन के तौर पर नहीं देखते। उन्होंने किसी निवेशक से पैसा लेकर अपना ये वेंचर खड़ा किया है और इससे वो इतनी कमाई करना चाहते हैं ताकि उनकी पूरी टीम और सहयोगियों का खर्चा निकल जाए। साइट की पहुंच बढ़ेगी तो विज्ञापन भी लेंगे, लेकिन उनका दावा है कि व्यावसायिक हितों को कभी भी बुनियादी वसूल पर छाने नहीं दिया जाएगा। वो असल में उन सचेत लोगों को एक प्लेटफॉर्म देना चाहते हैं जिन्हें सिटिजन जर्नलिस्ट कहा जाता है।

वैसे, अगर हम हर आईआईटी और आईआईएम से पता करें तो वहां से अरीब खान जैसे लोगों के निकलने का लंबा इतिहास है। इन संस्थानों ने क्रांतिकारी सोच के नौजवान पैदा किए हैं। लीक से हटकर चलनेवाले अक्सर यहां से निकलते रहते हैं। कानपुर से लेकर दिल्ली, अहमदाबाद से लेकर बैंगलोर तक की अपनी अलग-अलग कहानियां होंगी। मेरा तो बस यही कहना है कि हमें बदलाव की इन चिनगारियों की खोज़खबर रखनी चाहिए क्योंकि इनमें छिपी है समाज में सार्थक बदलाव लाने की आग। बाकी डिब्बाबंद क्रांतिकारी तो बस अपनी खोल में ही उलट-पुलट करते रहते हैं। उनसे केवल आवाज़ आएगी और होगा कुछ नहीं।

Friday 14 December, 2007

तर्क से निकली आधुनिकता फंसी है संकट में

हर शब्द के पीछे एक धारणा होती है और हर धारणा का एक इतिहास होता है। हां, इतना ज़रूर है कि ग्लोबीकरण के इस दौर में धारणाओं का भूगोल देशों की हदें पार कर गया है। अक्सर हम शब्दों का इस्तेमाल किए चले जाते हैं, लेकिन उनका ऐतिहासिक अर्थ नहीं जानते। ऐसा ही एक आम शब्द है आधुनिकता। कुछ दिनों पहले मुझे ब्राजील के लेखक और राजनीतिक कार्यकर्ता Frei Betto का एक छोटा-सा लेख पढ़ने को मिल गया, जिससे मुझे आधुनिकता को जानने-समझने में मदद मिली है। अगस्त 2004 में लिखा गया यह लेख शायद आपके भी काम का हो। पेश है उसका अनुवाद...
पिछली चार सदियों चला आ रहा आधुनिकता का युग अब संकट में है। इस युग की शुरुआत 17वीं सदी में यूरोप के सांस्कृतिक आंदोलन पुनर्जागरण (Renaissance), अमेरिका व ब्राज़ील की खोज और मध्यकाल व सामंती युग के खात्मे के बाद पूंजीवाद के आगमन से हुई थी। अब तो इक्कीसवीं सदी में कुछ ऐसा आ गया है जिसे हम मोटे तौर पर उत्तर-आधुनिकता कहते हैं। इससे हमारे अब तक के संदर्भ और प्रतिमान निश्चित तौर पर बदल जाएंगे।

मध्य युग में सभी संस्कृतियां देवी-देवता के इर्दगिर्द चक्कर काटती थी। इन सबके केंद्र में भगवान था। जबकि आधुनिकता के दौर में संस्कृति के केंद्र में आ गया इंसान। अगर कोई चीज़ इसे प्रतीकात्मक रूप से सबसे बेहतर दिखाती है तो वह है Sistine Chapel की छत पर बनी माइकेलएंजेलो की मशहूर पेंटिंग, The Creation of Adam... लंबी दाढ़ी वाला भगवान धर्म की केंद्रीय भूमिका को दर्शाता है, जबकि निर्वस्त्र आदम धरती की तरफ खिंचा चला जा रहा है। इस खिंचाव के बावजूद आदम अपनी उंगली बढ़ाता है ताकि भगवान से उसका संपर्क न टूट जाए। आदम की नग्नता उस बदलाव को दर्शाती है, आधुनिकता हमारी संस्कृति और धारणाओं में जिसकी वाहक बन रही थी।

आधुनिकता की एक और प्रेरक घटना 1682 में सामने आई, जब हैली ने, बिना किसी टेक्नोलॉजी की मदद से, क्योंकि तब आज की तरह टेक्नोलॉजी थी ही नहीं, केवल गणितीय हिसाब-किताब से अनुमान लगा दिया कि 76 सालों में एक और पुच्छलतारा नज़र आएगा। उस वक्त बहुत से लोगों ने हैली को पागल करार दिया। इस बीच 76 साल बीतने से पहले ही 1742 में हैली की मृत्यु हो गई। फिर भी कुछ लोग चौकन्ने रहे क्योंकि उन्होंने हैली के अनुमान को पूरी तरह खारिज़ नहीं किया था। कमाल की बात यह है कि ठीक अनुमानित साल 1758 में लंदन के आकाश पर एक पुच्छलतारा नज़र आया, जिसका नामकरण हैली के नाम पर ही किया गया।

इस घटना को तर्क की जीत माना गया। तर्क का गौरव माना गया। इससे संस्कृति के केंद्र में स्थापित सितारों की महत्ता घटने लगी। कहा गया कि जब तर्क से सितारों की गति का सटीक अनुमान लगाया जा सकता है, जिसे पहले भी कोपरनिकस और गैलीलियो दिखा चुके थे और बाद में न्यूटन ने भी साबित किया, तब तर्क मानवजाति के सामने मौजूद सभी अनिश्चितताओं को दूर कर सकता है। तर्क से दुख, तकलीफ, भूख और दासता का अंत हो जाएगा। इससे एक ऐसी दुनिया बनाई जा सकती है जिसमें उजाला होगा, प्रगति होगी, प्रचुरता होगी और खुशी होगी।

लेकिन चार सदियां बीत जाने के बाद भी ऐसा कुछ नहीं हो पाया है। वर्ल्ड फूड प्रोग्राम के कुछ तथ्य पेश हैं : धरती की आबादी इस समय लगभग 6 अरब है, जिसमें से 1.1 अरब लोग भुखमरी के शिकार हैं। कुछ लोग कहते हैं कि भुखमरी की वजह बढती आबादी है और जन्म-दर पर अंकुश लगाना ज़रूरी है। मैं छोटे परिवार का हिमायती हूं। लेकिन इस तर्क को स्वीकार नहीं करता। असल में मुख्य समस्या धन-दौलत के कुछ हाथों में सिमट जाने की है। आज धरती पर इतना अनाज पैदा हो रहा है जिससे मौजूदा आबादी से तकरीबन दोगुना, 10 अरब लोगों को भरपेट भोजन दिया जा सकता है।

आधुनिकता का मौजूदा संकट तब से शुरू हुआ है जब से पूर्वी यूरोप में समाजवाद के खात्मे के साथ पूंजीवाद का अक्षुण्ण प्रभुत्व कायम हो गया। इसके बाद तो पूंजीवाद ने एक नया चरित्र ही अख्तियार कर लिया है, जिसे नव-उपनिवेशवाद कहते हैं।

कैसी मायूसी या तवज्जो! ये तो सरासर झूठ है

क्या दिल्ली का कोई भी ब्लॉगर, सृजन शिल्पी के अलावा, कह सकता है कि 17 नवंबर को 11 बजे दिन से लेकर 24 नंवबर की शाम 4 बजे तक दिल्ली में रहने के दौरान मैं उनसे मिला या उन्हें फोन किया? मैं तो सालों से टलते आ रहे अपने जिन तीन-चार निजी कामों के सिलसिले में दिल्ली गया था, वो ही पूरा हफ्ता खा गए। फिर भी एक काम रह ही गया। हां, मेरी इच्छा ज़रूर थी कि दिल्ली के ब्लॉगर बंधुओं से एक साथ बैठकर कुछ गलचौर की जाए। लेकिन यह कहना कि ‘मुंबई से आए अनिल रघुराज को नियमित ब्लॉग लिखने के बावजूद दिल्ली में किसी ने खास तवज्जो नहीं दी’ मेरे ख्याल से सरासर गलत और निराधार है। फिर भी दिल्ली के विनीत जी ने जनसत्ता के साप्ताहिक कॉलम ब्लॉग-लिखी का जिक्र करते हुए मेरी मायूसी और चिंता की बात लिखी है और मेरे साथ सहानुभूति भी जताई है।

मैं विनीत जी की भावना की पूरी कद्र करता हूं और उन्हें अपने साथ सहानुभूति जताने के लिए धन्यवाद भी देता हूं। लेकिन मुझे लगता है कि वे जनसत्ता के कॉलम में लिखी बात को शायद गलत समझ गए। मैंने कल दिल्ली के अपने एक मित्र से बीते रविवार (9 दिसंबर 2007) की ब्लॉग-लिखी को फोन पर पढ़वाकर पूरा सुना। यह कॉलम मोहल्ला वाले अविनाश लिखते हैं। इसमें मेरी पोस्ट ‘हम ब्लॉगर साहित्य से बहिष्कृत हैं’ का जिक्र है। उसकी कुछ पंक्तियां उद्धृत भी की गई हैं। साहित्य की मुख्यधारा की उलझन, साहित्य के आभिजात्यीकरण और हिंदी ब्लॉगिंग की विकास की बात है। लेकिन ऐसा कहीं नहीं लिखा है कि दिल्ली के ब्लॉग बंधुओं ने नियमित ब्लॉग लिखने के बावजूद अनिल रघुराज को खास तवज्जो नहीं दी। अब अगर दिल्ली के विनीत जी, अविनाश जी और बाकी ब्लॉगर बंधुओं के दिल में कोई बात हो तो मैं कुछ नहीं कह सकता।

वैसे, सत्ता के केंद्र में बैठे ब्लॉगर मित्र मुझ जैसे नाचीज़ को तवज्जो दें या न दें, ये पूरी तरह उन पर निर्भर है। लेकिन नहीं भी देंगे तो कम से कम मुझे कोई मायूसी नहीं होगी। मैं तो भीड़ में गुम होकर सुकून पानेवाला आदमी हूं। लिखना मेरे लिए खुद को अन्वेषित करने का माध्यम है, बाहरी परिवेश के साथ अपने बदलते रिश्ते को समझने का ज़रिया है। न तो मुझे किसी प्रशस्ति की दरकार है और न ही किसी पहचान की। मुझे अंदर से यह भी अहसास है कि साहित्य की मुख्यधारा मेरे लिए वर्जित क्षेत्र जैसी है। मुझे कोई गफलत नहीं है कि मैं हिंदी साहित्य की वर्तमान धारा का हिस्सा हूं। मैं तो अपने जैसे लाखों लोगों की अंदर और बाहर की रोज़-ब-रोज़ की उलझनों को सुलझाने के सूत्र खोज रहा हूं, इसीलिए लिख रहा हूं।

चलते-चलते यह भी साफ कर दूं कि लोगों से मिलना मुझे अच्छा लगता है। उनके व्यक्तित्व को परत-दर-परत जानने का कुतूहल मेरे अंदर भरा पड़ा है। लेकिन दिल्ली के कई ब्लॉगर हैं जिन्हें मैं इतना जानता हूं कि अब उनसे नया कुछ जानने का कुतूहल ही नहीं बचा। फिर कुछ और ब्लॉगर हैं जो इतने सांचाबद्ध हो चुके हैं कि उनके अंदर झांक पाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। लेकिन ताज़गी और नयेपन से भरे दिल्ली के कई ऐसे ब्लॉगर हैं जिनसे मैं मिलना चाहता हूं, जिनको मैं जानना-समझना चाहता हूं। इनमें एक हैं संजय तिवारी जी, जिनसे मेरी मिलने की जबरदस्त इच्छा थी। मैंने सोचा था कि शनिवार 24 नवंबर को निकलने से पहले उनसे फोन करके ज़रूर आधे-एक घंटे के लिए मिल लूंगा। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। चलिए फिर कभी सही। समय जरूर भागा जा रहा है। लेकिन जिंदगी अभी काफी लंबी है और समय अनंत है।

Thursday 13 December, 2007

अहा! अद्भुत आनंद है भीड़ की सुरक्षा में

भीड़ से घिरे रहने में किसको आनंद नहीं आता। नेता टाइप लोगों को चेले-चापटों की भीड़ चाहिए होती है। आसपास दस-पांच लोग न रहें तो उन्हें मज़ा नहीं आता। भीड़ जितनी बढ़ती जाती है, उनके भाषण में उतना ओज आता जाता है। लेकिन इनसे इतर बाकी असंख्य लोगों को भीड़ का हल्ला नहीं, उसका एकांत बेहद सुकून देता है। घर में या दफ्तर में तो आप हमेशा सतर्क रहते हैं, सचेत रहते हैं। हमेशा बचाव की मुद्रा में ही रहते हैं। कछुए का कवच बराबर आप पर चढ़ा रहता है। आप उतना ही हाथ-पैर, आंख-मुंह बाहर निकालते हैं जितना बेहद ज़रूरी होता है। बाकी आपका 90-95 फीसदी वजूद खोल के भीतर छिपा रहता है। लेकिन भीड़ के भीतर पहुंचते ही आप उसी तरह खुल जाते हैं जैसे कछुआ पानी के भीतर पहुंचते ही मस्त अदा से तैरने लगता है।

भीड़ की यह सुरक्षा अपने गांव, कस्बे या मोहल्ले में नहीं मिल पाती। जहां भी जान-पहचान वाले लोग होते हैं, आप अपनी पहचान के साथ बंधे होते हैं। मास्टर साहब है, बाबूजी है, पत्रकार हैं, अफसर हैं, फलाने के पापा है, फलनवां के बेटे हैं, बड़के लम्बरदार के नाती हैं। इसीलिए इन जगहों पर कभी आप खुल नहीं पाते, अपने में नहीं आ पाते। जी खोलकर गाने का मन हो तो नहीं गा सकते। नाक में उंगली डालने की इच्छा हो तो नहीं कर सकते क्योंकि सभ्यता का तकाज़ा है। बच्चों की तरह कुलांचे भरने की चाहत हो तो भी नहीं कर सकते क्योंकि लोग देख लेंगे तो क्या कहेंगे!

लेकिन हमारे महानगर भीड़ के इस एकांत की भरपूर सहूलियत देते हैं। घर-सोसायटी से निकलिए और भीड़ में गुम हो जाइए। बसों में, ट्रेनों में, बाज़ार में, जुलूस में, जलसों में, सड़कों पर, चौराहों पर, चौपाटी पर। सैकड़ों-हज़ारों सिरों में एक सिर आपका होता है जो आप न चाहें तो औरों से ज्यादा भिन्न नहीं होता। हां, अगर आप मुंबई की लोकल में कोट और टाई पहनकर घुसेंगे तो ज़रूर पानी में तेल की तरह नज़र आएंगे और सबकी निगाहों में चुभ जाएंगे। बाकी बहुत सारी असमानताएं चल जाती हैं क्योंकि अगर आप किसी दिन काली शर्ट और बादामी पैंट पहनकर गए तो बहुत मुमकिन है कि आप से चार कदम दूर खड़ा शख्स भी उसी परिधान में हो।

भीड़ में पहुंचकर अपने डैने खोलकर फैल जाइए। चाहें तो बेझिझक अपने में डूब जाइए और चाहें तो भीड़ की भिन्नता का आनंद लीजिए। महानगरों में इतने सारे लाखों लोग रहते हैं कि कभी भी आपको लोगों का एक समुच्चय नहीं मिलता। ज़रा गिनिए। डेढ़ करोड़ की आबादी में सौ-पचास लोगों के कितने परमुटेशन-कॉम्बिनेशन बन सकते हैं। इसीलिए होता यह है कि सौ की भीड़ में हर दिन आपके अलावा बाकी निन्यानबे लोग नए होते हैं। कभी-कभी अपवादस्वरूप कोई परिचित दिख जाता है, आपको देखकर मुस्कराता है या हाथ हिला देता है तो सारे एकांत में खलल पड़ जाता है। लेकिन यह अपवाद है जो साल में एकाध बार ही हो सकता है। बाकी 360-362 दिन भीड़ में आपका एकांत पूरी तरह महफूज़ रहता है।

वैसे, भीड़ के बीच एकांत के इस सुकून के साथ कुछ शर्तें जुड़ी हैं। शर्त ये है कि आपकी नीयत में कोई खोट नहीं होना चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि आप भीड़ का फायदा उठाने की जुगत में हों। जेबकतरों को भीड़ में कभी सुकून नहीं मिलता क्योंकि उन्हें हमेशा पकड़े जाने का डर सताता रहता है। लेकिन अगर आप अंदर से बेधड़क हैं तो आनंद ही आनंद है। न देखे जाने का डर, न टोके जाने का डर। आपकी पहचान भीड़ में गायब रहती है। न कोई जाति, न कोई धर्म। भीड़ के बीच आप नवजात शिशु की तरह टटके इंसान होते हैं। हर सीमा से पार, हर बंधन से आज़ाद।

लेकिन कहते हैं कि परिवार, समाज और पेशे में मिसफिट लोगों को ही भीड़ में गायब होने से सुकून मिलता है। यहां उनको सुकून मिलता है जो स्वभाव से ही पलायनवादी हैं, खुलकर सच्चाई का सामना करने की जिनमें हिम्मत नहीं होती। बाकी जिन लोगों की फितरत लड़ने की होती है, वो तो हमेशा अपनी पहचान कायम करने के लिए जद्दोजहद करते हैं। हर इंसान अनोखा है तो वे इस अनोखेपन को निखारने के लिए बेचैन रहते हैं। वे दुनिया से लड़कर अपना मुकाम, अपनी जगह हासिल करते हैं, मां-बीवी की गोद या अनाम चेहरों की भीड़ में जाकर अपना चेहरा नहीं छिपाते।

Wednesday 12 December, 2007

गिनी कहती है, सदियों से वैसी ही है विषमता

गिनी बड़ी छलिया है। उसका रूप तो है, मगर वह दिखती नहीं। लेकिन दुनिया भर के नीति-नियामकों के लिए वह बड़े काम की चीज़ है क्योंकि यह वो पैमाना है जिसके किसी भी देश में अमीरी और गरीबी के बीच की खाईं की गहराई नापी जाती है। इसके दो रूप हैं गिनी कोफिसिएंट और गिनी इंडेक्स। इनमें फर्क बस इतना है कि कोफिसिएंट को प्रतिशत में दर्शा दें तो वो इंडेक्स बन जाता है। अगर किसी देश का गिनी इंडेक्स एक है तो मतलब हुआ कि वहां गरीबी-अमीरी में कोई खाईं है ही नहीं और अगर यह 100 है तो मतलब देश में गरीबी-अमीरी में जबरदस्त खाईं है।

आज सुबह मैंने मिंट अखबार में एक लेख पढ़ा तो यह जानकर दंग रह गया कि भारत में मुगलकाल से लेकर अब तक गिनी इंडेक्स का आंकड़ा कमोवेश एक जैसा रहा है। मुगल साम्राज्य का पतन हुआ। अंग्रेज आए और चले गए। देश का विभाजन हुआ, आज़ादी मिली। नेहरू का समाजवाद लागू रहा। आर्थिक उदारीकरण की लहर चली। भारत की गिनती दुनिया की आर्थिक महाशक्तियों में होने लगी। लेकिन इस दौरान हम विषमता के मामले में जहां के तहां ठहरे रहे। वाकई गिनी इंडेक्स का आंकड़ा बेहद चौंकानेवाला है।

कोई सवाल उठा सकता है कि मुगलकाल में विषमता के आंकडे कैसे जुटाए जा सकते हैं? लेकिन लेख में तीन अर्थशास्त्रियों – ब्रैंको मिलानोविच, जेफ्री जी. विलियमसन और पीटर एच. लिनडर्ट के नए शोधपत्र Measuring Ancient Inequality को आधार बनाया गया है जिन्होंने अर्थशास्त्री आंगुस मैडिसन के मूल आंकड़ों का इस्तेमाल किया है। इस शोधपत्र के मुताबिक मुगलकाल में सन् 1750 के आसपास नवाब और ज़मीदार आबादी का एक फीसदी हिस्सा थे, जबकि उनके पास देश की कुल संपत्ति का 15 फीसदी हिस्सा था। इस आधार पर उस दौरान गिनी इंडेक्स 43.7 था।

1947 में आज़ादी के ठीक पहले ब्रिटिश भारत में गिनी इंडेक्स 48.9 था। उस समय ब्रिटिश अधिकारियों और व्यापारियों की संख्या आबादी की महज 0.06 फीसदी थी, जबकि उनके कब्ज़े में देश की कुल आमदनी का 5 फीसदी हिस्सा था। उस समय भारतीय कुलीनों और कारोबारियों की संख्या आबादी में 0.94 फीसदी थी, जिनके पास देश की 9 फीसदी संपदा थी। इस तरह ब्रिटिश भारत में एक फीसदी सबसे अमीर लोग देश की 15 फीसदी संपत्ति पर काबिज़ थे। गौर कीजिए, यही आंकड़ा 1750 में मुगलकाल के दौरान भी था।

आज़ादी के बाद देश में पहले नेशनल सैंपल सर्वे साल 1951 में हुआ। उसके मुताबिक छह सालों में ही गिनी इंडेक्स तेजी से घटकर 36 पर आ गया था। शायद अंग्रेज़ों के चले जाने का यह सीधा असर रहा हो। उसके बाद के पचास सालों तक गरीबी-अमीरी की खाईं को नापने वाला यह सूचकांक 36 से 38 के बीच झूलता रहा। 1997 में यह गिनी इंडेक्स 37.8 था जो 2005 तक गिरकर 36.8 पर आ गया। अर्थशास्त्री इसका मतलब बताते हैं कि उदारीकरण के दौर में देश में आर्थिक विषमता घट गई है।

इन आंकड़ों की भाषा में गरीबी-अमीरी की खाईं को समझना हमारे-आप जैसे ले-मैन के लिए थोड़ा मुश्किल है। लेकिन नीति-नियामकों के लिए इन्हीं आंकड़ों की अहमियत है। वैसे, ट्रेन में सफर के दौरान जब मैं देखता हूं कि दिल्ली और मुंबई से अपने ‘वतन’ लौटने वाले मजदूर अब जनरल कोच के बजाय रिजर्वेशन में चल रहे हैं और सुराही के पानी के बजाय बोतलबंद पानी का इस्तेमाल कर रहे हैं, तब ज़रूर मुझे लगता है कि आम भारतीय की औसत कमाई और क्रय-शक्ति पहले से बढ़ी है। हालांकि आंकड़े भी कहते हैं और यह सच भी है कि देश में अमीरों-गरीबों की खाईं सदियों से जस की तस पड़ी हुई है।

पागल बोलते हैं तो गरियाने क्यों लगते हैं?

उसे अभी तक मैंने बोलते हुए नहीं देखा था। ऑफिस आते-जाते फुटपाथ पर वह रोज़ ही दिख जाता है। जटा-जूट जैसे बाल, बेतरतीब दाढ़ी, गंदे बास मारते कपड़े। अभी तक जब भी देखा तब या तो सोया हुआ रहता या बैठकर अपने-आप से बड़-बड़ कर रहा होता था। लेकिन कल ऑफिस से जल्दी निकलकर लोकल ट्रेन पकड़ने स्टेशन की तरफ जा रहा था तो देखा कि वह खड़ा होकर हाथ हिला-हिलाकर गालियां दे रहा है, वह भी मां-बहन की। कोई उसकी गालियों पर गौर नहीं कर रहा था। लोग एक आंख उठाकर देखते और आगे बढ़ जाते। मैंने भी ऐसा ही किया। लेकिन चलते-चलते सोचने लगा कि सालों से अपना संतुलन खो चुका यह अधेड़ शख्स किसे और क्यों गालियां दे रहा है? इसके मन में कौन-सी छवि अटक कर रह गई है जिसके लिए इसके मुंह से मां-बहन की गालियां निकल रही हैं?

एक और वाकया याद आ गया। लोकल ट्रेन में एक शराबी बूढ़ा गेट के पास किनारे खड़ा सामने देखकर गालियां दे रहा था। बीच के स्टेशन पर एक विद्यार्थी जोड़ा आकर किनारे खड़ा हो गया। बूढ़े को होश नहीं था, लेकिन वह ऊपर नीचे देखकर गालियां दिए जा रहा था। अचानक दो-तीन मिनट बाद क्या हुआ कि लड़के ने ताबड़तोड़ उसे लात-घूसों से मारना शुरू कर दिया। लड़की ने कहा – जाने दो। दूसरे लोगों ने भी कहा – शराबी है, जाने दो। लेकिन लड़का नहीं माना। बूढ़े को इतना मारा कि उसके मुंह से खून निकलने लगा। अगले स्टेशन पर वह जोड़ा उतर गया। लेकिन बूढ़ा कुर्ते की बांह से मुंह पोंछकर फिर किसी अनाम शख्स को धाराप्रवाह गालियां देने लगा। मैं सोचने लगा कि नशा छाते ही लोगों की कौन-सी गांठ खुल जाती है कि वो गरियाने पर उतर आते हैं?

आखिर वह कौन-सा दबा हुआ गुस्सा है जो नशे या पागलपन की हालत में दिमाग पर नियंत्रण खत्म होते ही जुबान से गालियां बनकर फूट निकलता है? मैंने आज तक किसी अमीर नशेड़ी या पागल को उन्माद में गालियां देते हुए नहीं सुना है। गरीब और औसत घरों के लोग ही ऐसी हरकत करते हैं। क्यों करते हैं? क्या पता? असली वजह तो हर किसी की अंतर्कथा जानकर ही पता लग सकती है। सामान्यीकृत वजह कोई मनोचिकित्सक ही बता सकता है। और, मैं न तो मनोचिकित्सक हूं और न ही मनोविज्ञान का क-ख-ग मुझे पता है। हां, पागल हो जाने का डर कई महीनों तक मैंने ज़रूर झेला है।

हुआ यह कि तब मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बीएससी सेंकड इयर का छात्र था। हॉस्टल के मेरे एक सहपाठी उपधिया जी ने मेरा हाथ देखा और बोले कि तुम्हारे मस्तिष्क की रेखा जिस तरह नीचे की तरफ गई है उससे तुम निश्चित रूप से पागल हो जाओगे। मैंने उस समय तो उसकी भविष्यवाणी को बाल झटककर खारिज कर दिया। लेकिन मन ही मन परेशान हो गया। बस यही सोचता रहता कि पागल हो जाने पर मैं क्या बड़-बड़ करूंगा। कहीं ऐसा न हो कि एब्सट्रैक्ट एलजेबरा के एक्ज़ियोम्स बोलने लग जाऊं या विवेकानंद की तरह सीने पर हाथ बांधकर भाषण करने लग जाऊं क्योंकि इन दोनों ही चीज़ों ने उन दिनों मुझे बहुत आक्रांत कर रखा था।

खैर, मैं कई महीनों तक जब पागल नहीं हुआ तो मैंने उपधिया जी को भरपूर जी भर कर गरियाया। लेकिन तभी हॉस्टल में मैंने एक दूसरा जादू फैला दिया। मैंने स्कूल में लोगों को प्लैनचेट बुलाते हुए देखा था और सीखा भी था। तो हॉस्टल में भी यह करामात दिखाने लगा। इसका खूब प्रचार हुआ। सिक्के में आत्माएं आने लगीं। मेरे शागिर्दों का भी दायरा बढ़ने लगा। फिर इन्हीं शागिर्दों में से कुछ खुद ही गुरु बन गए। इनमें एक जज साहब के बेटे थे। एक दिन कागज़ पर सिक्का चलते ही उनको इलहाम हुआ कि सिक्के में उनकी माता या दादी जी आ गई हैं और उनकी तबीयत खराब हो गई। एक दूसरे पढ़ने में धुरंधर शख्स थे पहाड़ के रहनेवाले अशोक ओली।

ओली ने कुछ दिन तक आत्मा बुलाने के बाद ऐलान किया कि उनमें अद्भुत शक्तियां आ गई हैं। एक दिन उन्होंने हॉस्टल के कॉरिडोर में बुलाकर मुझसे कहा कि सामने छत के छज्जे पर जो कौए बैठे हैं, वो उनके कहने पर उड़ जाएंगे। कौए उड़ गए तो उन्होंने कहा कि ऐसा उनके मन ही मन कहने पर ही हुआ है। इस घटना के करीब हफ्ते भर बाद पता चला कि अशोक ओली पागल हो गए हैं और लोगों से घूम-घूमकर कह रहे हैं कि वो अभी-अभी कैलाश पर्वत से आ रहे हैं और शंकर को खदेड़कर उन्होंने पार्वती को पटा लिया है। और यह भी कि इंदिरा गांधी से उनके शारीरिक संबंध रहे हैं।


इसके अलावा भी मैंने अब तक की ज़िंदगी में काफी पागल देखे हैं। एक पागल का किस्सा तो ऐसा है कि उस पर पूरी कहानी लिखी जा सकती है। वह प्रेमी किस्म का पागल था और पागलपन में उनकी बॉटनी की टीचर उसे पायल बजाकर बुलाती थीं। जो लोग क्रोमोज़ोम्स के असंतुलन से पैदाइशी पागल होते हैं, उनकी बात अलग है। लेकिन जो अच्छे-खासे होते हुए भी पागल हो जाते हैं, उनके पागल होने की सामाजिक और मनोवैज्ञानिक वजह मैं आज तक नहीं समझ पाया हूं। हां, मुझे इतना ज़रूर पता चल गया है कि पागल अनायास अनर्गल गालियां देते हैं। और इसका उल्टा भी सच है कि जो लोग अनायास ही अनर्गल मां-बहन की गालियां देते हैं, उनमें पागलपन का कुछ न कुछ अंश ज़रूर होता है।

Tuesday 11 December, 2007

मोदी के जलजले से जलकर डर गई बीजेपी

आज वडोदरा में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वही बात कह दी जो सुबह से ही बीजेपी की तरफ से आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाने की खबर पढ़ने के बाद मेरे मन में चल रही थी। अराजनीतिक कहे जानेवाले प्रधानमंत्री ने इस मौके पर बेहद राजनीतिक बात कही है कि, “मोदी से खतरा था, इसलिए बीजेपी ने आडवाणी की ताजपोशी कर दी।” यह सच है कि बीजेपी में लालकृष्ण आडवाणी का वरदहस्त नरेंद्र मोदी के ऊपर है और मोदी आडवाणी के काफी करीब हैं। लेकिन यह भी सच है कि इस बार गुजरात का चुनाव जीतते ही मोदी भारतीय जनता पार्टी और आडवाणी के लिए भस्मासुर बन जाएंगे।

मोदी ने अपने छह साल के शासन में जिस तरह तमाम संवैधानिक संस्थाओं को दो कौड़ी का बना दिया, उसे देखते हुए उनके सामने पार्टी या संघ परिवार की कोई औकात नहीं है। गुजरात में बीजेपी में छायी बगावत की सबसे बड़ी वजह यही है। वैसे, इधर राजनीति में अजीब-सी बात हो रही है। बीजेपी आलाकमान और संघ परिवार अंदर-अंदर मना रहा है कि मोदी यह चुनाव हार जाएं, जबकि कांग्रेस चाहती है कि मोदी यह चुनाव ज़रूर जीतें। वरना क्या कारण है कि मौत के सौदागर पर सही इल्जाम लगाने के बाद सोनिया गांधी कहने लगी हैं कि उन्होंने मोदी के लिए ऐसा नहीं कहा था। इसके पीछे सिर्फ कोर्ट की नोटिस से बचना नहीं हो सकता।

हकीकत यह है कि मोदी जीत गए तो बीजेपी के सारे बड़े नेता उनके आगे बौने हो जाएंगे, जबकि उनकी जीत वह बिजूखा बन जाएगी, जिसका डर दिखाकर कांग्रेस साल 2009 के आम चुनावों में देश भर में अपनी जीत सुनिश्चित करने की फिराक में है। वैसे, कांग्रेस इंदिरा गांधी के जमाने से ही सॉफ्ट हिंदुत्व की हिमायती रही है। बल्कि सच कहें तो अगर इंदिरा गांधी ने भिंडरावाले को पैदा करने के बाद ऑपरेशन ब्लूस्टार नहीं चलाया होता तो बीजेपी कभी केंद्र की सत्ता में आ ही नहीं पाती। इंदिरा गांधी ने सिखों और हिंदुओं को लड़ाकर पहली बार हिंदू वोट बैंक बनाने की कोशिश की थी। लेकिन उनकी यह कोशिश उल्टी पड़ गई। भिंडरावाले का भस्मासुर खुद उन्हें निगल गया और उनके सुपुत्र राजीव गांधी ने जिस राम जन्मभूमि का ताला खुलवाया था, वह बीजेपी के लिए सत्ता हासिल करने का आधार बन गया।

आज भी कांग्रेस बार-बार झलक दिखला देती है कि अगर उसे मौका मिला तो वह घर के पिछवाड़े हिंदुत्व का परचम लहराने से बाज़ नहीं आएगी। प्रवीण तोगड़िया के भाई विठ्ठलभाई तोगड़िया का कांग्रेस में आना और सूरत के बजरंग दल के नेता निलेश लोहार को गुजरात यूथ कांग्रेस का महासचिव बनाना यही साबित करता है। आज के ज़माने में सांप्रदायिक तत्वों का हृदय परिवर्तन इस तरह रातोंरात नहीं हुआ करता है।

कांग्रेस अपनी इन्हीं हरकतों की वजह से मुसलमान समुदाय से दूर होती जा रही है। वह सचमुच महज़ तुष्टीकरण की राजनीति कर रही है। उसका मकसद इस समुदाय को कभी भी अशिक्षा और पिछड़ेपन से बाहर निकालने का नहीं रहा है। इस समय भी वह मोदी के नाम पर देश भर के मुसलमानों को डराकर उनका वोट हासिल करना चाहती है। इसीलिए उसकी चाल यही है कि मोदी गुजरात का विधानसभा चुनाव जीत जाएं। यह अलग बात है कि बीजेपी और संघ परिवार के भितरघाती लगातार मोदी के किले में सेंध लगा रहे हैं। अब तो सटोरिये भी अंदाज़ लगा रहे हैं कि मोदी को इस बार 182 में से 90-95 से ज्यादा सीटें नहीं मिलेंगी। वैसे, फिर भी मोदी जीतते हैं तो इससे यही साबित होगा कि हमारे यहां लोकतंत्र के बजाय झूठ-तंत्र का ही खोटा सिक्का चलता है।

ब्लॉगर मिलन में वो बात तो रह ही गई

समीरलाल से यह बात शायद अभय ने पूछी थी या हो सकता है बोधि ने पूछी हो, ठीक-ठीक याद नहीं आ रहा। खैर, जिसने भी जो भी पूछा, उसका सार यह था कि ब्लॉगिंग से आपने अभी तक क्या पाया और क्या खोया है। समीरलाल ठहरे फक्कड़ आदमी। वैसे मोटे लोग आमतौर पर फक्कड़ और हंसोड़ होते हैं। तो, मोटे समीरलाल ने कहा कि खोने की सूरत में तो आप सबको पता चल ही जाएगा। फिर गंभीर होते हुए माहौल को भांपकर बोले कि सबसे बड़ा तो ‘पाया’ यह है कि हर शहर में दोस्त हो गए हैं। कहीं जाकर किसी से यह नहीं बताना पड़ता कि हम फलांने के दोस्त हैं और उन्होंने ही हमें आपके पास भेजा है। न परिचय देने की जरूरत, न पहचान का कोई संकट। कहीं भी पहुंच जाओ, ब्लॉगिए मिल ही जाते हैं जो खुद भी मिलने को आतुर रहते हैं।
मुंबई में आरे कॉलोनी की घनी वादियों के बीच छोटा कश्मीर के पार्क में जब हम ग्यारह मुंबइया ब्लॉगर जुटे और घास पर गोला बनाकर बैठ गए तो अचानक मैं 25 साल पहले लौट गया। लगा, जैसे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सीनेट हॉल के सामनेवाले लॉन में बरगद के पेड़ के नीचे फिर से कोई स्टडी सर्किल शुरू होनेवाला हो। लेकिन जब शशि भाई के बैग से निकली बाटी खाने के बाद समीरलाल पर इधर-उधर से हर तरफ से सवालों की बौछार होने लगी तो उन्हें लगा (ऐसा मुझे लगता है) जैसे इंटरव्यू बोर्ड के घाघों के घेरे में फंस गए हों।

माहौल को हल्का करने के लिए मैंने पूछ डाला – समीर भाई आपके दांतों से लगता है कि आप नियमित पान खाते हैं तो आप कनाडा में पान पाते कहां से हैं? बोले – घर से 60 किलोमीटर एक दुकान है जहां पान भी मिलता है और दुकानदार इसके साथ ही माणिकचंद गुटखा भी चुपके से बेचता है। फिर तो बर्फ में कार के डूब जाने की बात हुई, घर से ऑफिस के 70 किलोमीटर के ट्रेन-सफर के दौरान टिप्पणियां करने की बातें हुईं, जबलपुर शहर और घर की बातें हुईं, मूलत: गोरखपुर के होने और भोजपुरी बोलने की अड़चनों की भी बातें हुईं। लेकिन वह बात नहीं हुई जिसे घर से तय मुकाम पर पहुंचने तक मैं बस में बैठा-बैठा सोचता आया था।

असल में जब अनूप शुक्ला के मुंबई आने पर पहली बार किसी ब्लॉगर-मीट में मेरा जाना हुआ था, तब अभय ने सभी से बड़ा मौजूं सवाल किया था कि आप लोग ब्लॉग क्यों लिखते हैं। मुझे लगा कि अगर इस बार बात हुई तो मैं अपनी पहली पोस्ट का जिक्र करते हुए कहूंगा कि मैं ऐसा कुछ लिखना चाहता हूं जिससे हमारे दौर की हर समस्या को सही-सही समझने की दृष्टि मिल सके। मैं इसे जीवन की प्रयोगशाला से निकालूंगा, जहां प्रयोग की वस्तु मैं खुद हूं। कुछ ऐसी रचना लिखना चाहता हूं जैसी रामचरित मानस है जिसकी पंक्तियां गांव के बुजुर्ग लोग आज भी उद्धृत करते रहते हैं। मैं मानव मन की, खुशी की, गम की, अवसाद की, उल्लास की हर हद को छूकर समझूंगा। बाहरी दुनिया के हर पेंच का, इकोनॉमिक्स से लेकर नानो-टेक्नोलॉजी की जटिलताओं को समझकर जीवन से जुड़ी भाषा में पेश कर दूंगा।

इतना कहने के बाद सभी को प्रेरित करूंगा कि हम सभी अपनी सोच और समस्याओं को सैंपल मानकर उनका समाधान तलाशें और ऐसी भाषा में पेश करें कि पढ़नेवाले को लगे कि हां, यही तो उसकी समस्या है और यही तो उसका समाधान है। लेकिन मेरे साथ सबसे बड़ी समस्या क्या है कि मैं चीजों के खुद-ब-खुद हो जाने का इंतज़ार करता हूं, खुद आगे बढ़कर हस्तक्षेप नहीं करता। इस चक्कर में बहुत-सी चीजें छूट जाती हैं। समय मुंह चिढ़ाता हुआ टाटा-बाय-बाय करके आगे निकल जाता है। खैर, तो रविवार 9 दिसंबर 2007 को आरे कॉलोनी की खूबसूरत वादियों में भी यही हुआ। विमल ने चलते-चलते हल्के से कुछ ऐसा कहा जैसे ब्लॉगर मिलन में स्पिरिट तो बढ़ रही है, लेकिन सार घट रहा है।

और हां, उस दिन एक और मसले पर काफी देर तक गिला-शिकवा, थुक्का-फजीहत हुई थी। लेकिन क्योंकि इसे सर्वसम्मति से ‘संसदीय कार्यवाही’ से निकाल देने का फैसला हो चुका है, इसलिए उसके बारे में मैं एक शब्द भी नहीं लिखूंगा। वैसे भी ईमानदारी के लेखन से उसका कोई वास्ता नहीं है।

Monday 10 December, 2007

जीवन में मरती जाति राजनीति में ज़िंदा क्यों है?

रोज़मर्रा के जीवन में जातियां मर रही हैं। इस प्रत्यक्ष सच को साबित करने के लिए किसी प्रमाण की ज़रूरत नहीं। न ही इसे देखने-समझने के लिए दस सिर और बीस आंखों की दरकार है। इसके लिए बस एक अदद दिमाग और एक जोड़ी आंखें ही काफी हैं। लेकिन आम भारतीय जनजीवन से अलग-थलग पड़ी सत्ता की संरचनाओं में, न्यायपालिका से लेकर नौकरशाही और राजनीति में जातिगत गोलबंदियां कमज़ोर होने के बजाय मजबूत हो रही हैं, इस सच से भी कोई इनकार नहीं कर सकता। यह अलग बात है कि यहां जातियां अपने सार में नहीं, केवल रूप में मौजूद हैं।

जाति के एक साथ मरने और ज़िंदा रहने के विरोधाभास को हम सामंती/पूंजीवादी उत्पादन संबंधों के अमूर्त व वायवी सूत्रीकरण से नहीं समझ सकते। न ही किसी ‘परमज्ञानी’ की तरह जाति के मिटने पर ऐसा कह सकते हैं कि, “कहीं ऐसा तो नहीं कि यह सामंतवाद की कोई चाल है क्योंकि सामंतवाद में खुद को ढाल लेने की जबरदस्त क्षमता है।” दिक्कत यह है कि हमारे जनवादी विद्वान लोग जब जाति पर बहस करते हैं तो उनका अंदाज़ वैसा ही होता है जैसे वो इतिहास में हुए किसी अन्याय का बदला ले रहे हों। सवर्णों की दुर्दशा पर चटखारे लेने में उन्हें वैसा ही आनंद आता है, जैसे हिंदू कट्टरवादियों को बाबरी मस्जिद के ध्वंस पर आता है।

हम अपने देश की जाति की मौजूदा स्थिति को सत्ता तंत्र के साथ व्यापक अवाम के अलगाव के संदर्भ में ही समझ सकते हैं। सरकार दावा करती है कि हमारा यहां कानून का राज है और कोई कानून से ऊपर नहीं है। लेकिन यह दावा ज्यादा से ज्यादा 20 फीसदी सच और कम से कम 80 फीसदी झूठ है। संविधान कहता है कि जाति या धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। लेकिन संविधान-प्रदत्त सुविधाओं का फायदा उठाने के लिए ज्यादातर जाति और धर्म ही काम आता है। जिले में अगर कोई यादव डीएम या एसपी होता है तो यादव लोगों का काम आसानी से हो जाता है। ब्राह्मण, ठाकुर या दलित के आने पर भी यही स्थिति होती है। कानून नियम कायदे किताबों से नहीं, अधिकारी और नेता की जुबान से चलते हैं।

असल में, हमारे लोकतंत्र ने पुलिस से लेकर अदालत और नौकरशाही का जो तंत्र पेश किया है, वहां चलता है पैसा, पहुंच और प्रभाव। सारा तंत्र गले तक भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है। लोग इस हकीकत से बखूबी परिचित हैं। इसका प्रमाण है ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल की ताज़ा रिपोर्ट, जिसके मुताबिक 90 फीसदी से ज्यादा भारतीय पुलिस, राजनीतिक पार्टियों और न्यायपालिका को थोड़ा या बहुत ज्यादा भ्रष्ट मानते हैं। वो नहीं मानते कि भारत में कानून का राज है। ज़ाहिर है, इन हालाता में लोगों को औपचारिक संस्थागत ढांचे से बाहर निकलकर प्रभाव हासिल करने की जरूरत पड़ती है।

लोगों को लोकतंत्र और संविधान की बौद्धिक बातों से नहीं, अपने काम से मतलब है। बौद्धिक लफ्फाज़ी का ज़िम्मा एनजीओ के कार्यकर्ताओं और लेफ्ट ने संभाल रखा है, जिनके पास व्यापक जनाधार नहीं है। बाकी राजनेता जनाधार पाने के लिए जाति का बेहद अवसरवादी इस्तेमाल कर रहे हैं। हालत ये है कि आज तमाम ठाकुर और ब्राह्मण सत्ता-सुख के लिए मायावती के चरण-वंदना कर रहे हैं। भ्रष्टाचार तो आज कोई मसला ही नहीं रहा। देश का सबसे दबा-कुचला समुदाय भी कहता है कि बहन जी ने भले ही करोड़ों का भ्रष्टाचार किया हो, लेकिन हैं तो हमारी अपनी जाति की, फिर बाकी नेता कोई दूध के धुले तो हैं नहीं! बात भी सच है कि जब हर दल के पास अपराधी हैं, बाहुबली है, भ्रष्टाचारी हैं, थैलीशाह हैं तब जाति ही तो निर्णायक होगी।

सीधी-सी बात है कि लोकतांत्रिक संस्थाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार ने मरती जाति को संजीवनी देकर राजनीति के शरीर में स्थापित कर दिया है। जीवन की कठोर चट्टान से टकराकर जाति का अहंकार चूर-चूर हुआ जा रहा है; तिलक, तराजू और तलवार के धुर्रे उड़ रहे हैं, लेकिन निहित स्वार्थों के चलते कुछ लोग जाति-व्यवस्था को ज़िंदा दिखाने की वर्जिश में जुटे हैं क्योंकि जाति आज सत्ता का सबसे मुफीद शार्टकट है। अगर आप सचमुच जातियों को खत्म करना चाहते हैं तो सरकारी संस्थाओं से भ्रष्टाचार को खत्म करवा दीजिए, जाति का सारा प्रपंच उसी दिन भर-भराकर गिर जाएगा क्योंकि इस दशानन की जान भ्रष्टाचार की नाभि में छिपी बैठी है।
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आखिर सवर्णों को गरियाने से क्या मिलेगा

Friday 7 December, 2007

आज़मगढ़ का कनवा दलित जो प्रोफेसर बन गया

एक हरवाह (बंधुआ मजदूर) का बेटा आज दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर है। जी, हां डॉ. तुलसीराम का जन्म आज़ादी के करीब दो साल बाद पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ ज़िले के एक दलित परिवार में हुआ था। इस समय लखनऊ से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका तद्भव में ‘मु्र्दहिया’ शीर्षक से उनकी आत्मकथा छापी जा रही है। इसकी पहली किश्त पढ़ने के बाद मुझे लगा कि शायद हमारे समय और ग्रामीण समाज का इससे अच्छा दस्तावेज़ कोई और नहीं हो सकता। बानगी के लिए इसके कुछ अंश पेश कर रहा हूं। पूरी किश्त आप तद्भव की साइट पर जाकर जरूर पढ़ें।
मूर्खता मेरी जन्मजात विरासत थी। मानव जाति का वह पहला व्यक्ति जो जैविक रूप से मेरा खानदानी पूर्वज था, उसके और मेरे बीच न जाने कितने पैदा हुए, किन्तु उनमें से कोई भी पढ़ा लिखा नहीं था। लगभग तेईस सौ वर्ष पूर्व यूनान देश से भारत आये मिनांदर ने कहा कि आम भारतीयों को लिपि का ज्ञान नहीं है, इसलिए वे पढ़-लिख नहीं सकते। उसके समकालीनों ने तो कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, किन्तु आधुनिक भारतीय पंडों ने मिनांदर का खूब खंडन मंडन किया। हकीकत तो यह है कि आज भी करोड़ों भारतीय मिनांदर की कसौटी पर खरा उतरते हैं। सदियों पुरानी इस अशिक्षा का परिणाम यह हुआ कि मूर्खता और मूर्खता के चलते अंधविश्वासों का बोझ मेरे पूर्वजों के सिर से कभी नहीं उतरा।

शुरुआत यदि दादा से ही करूं तो पिता जी के अनुसार उन्हें एक भूत ने लाठियों से पीट पीट कर मार डाला था। अपने पांच भाइयों में पिता जी सबसे छोटे थे। घर में सभी का कहना था कि दादा जी जिनका नाम जूठन था, गांव से थोड़ा सा दूर झाड़ियों वाले टीले के पास छोटे से खेत में मटर की फसल को देर रात जानवरों से बचाने के उद्देश्य से गये थे। मटर के खेत में उन्हें फली खाता एक साही नामक जानवर दिखाई दिया, क्योंकि रात उजली थी। दादा जी ने अपनी लाठी से साही पर हमला बोल दिया। लाठी लगते ही साही रौद्र रूप धारण करते हुए अपने लम्बे लम्बे कटीले रोंगटों को फैला कर अंतरध्यान हो गया। घर वालों के अनुसार वह साही नहीं, बल्कि उस क्षेत्र का भूत था।

जब मैं तीन साल का हुआ, गांव में चेचक की महामारी आयी। मेरे ऊपर उसका गहरा प्रकोप पड़ा। चेचक से मैं मरणासन्न हो गया। घर में स्थानीय ग्रामीण देवी देवताओं की पूजा शुरू हो गयी। उस समय गांव में दलितों के अलग देवी देवता होते थे, जिनकी पूजा सवर्ण नहीं करते थे। हमारे गांव में भी चमरिया माई और डीह बाबा दो ऐसे ही देवी देवता थे, जिनकी पूजा दलित करते थे। इन दोनों को सूअर तथा बकरे की बलि दी जाती थी।

दादी मेरी मां से ज्यादा रोती रहती थी। अंततोगत्वा चेचक की आवश्यक बीमारी वाली अवधि समाप्त होने के साथ मैं ठीक होने लगा। घर वाले अटूट विश्वास के साथ कहते कि उनकी पूजा पाठ से जिन्दा बच गया। इस बीच विभिन्न मनौतियों में सूअरों, बकरों की बलि में भैंसा भी शामिल हो चुका था। मेरी जान तो बच गयी, किन्तु चेचक का प्रकोप हटते ही मेरी पूरी देह पर गहरे गहरे घाव के दाग पड़ गये। विशेष रूप से मेरा चेहरा इन दागों का भंडारण क्षेत्र बन गया। गांव में लोहार अनाज से मिट्टी या कंकड़ निकालने के लिए लोहे की पतली चद्दर काट कर उसे बड़ी चलनी का रूप देते थे और उसकी पेंदी में पतली छेनी से सैकड़ों छेद कर देते थे, जिसे आखा कहते थे। आखा की पेंदी का बाहरी हिस्सा छेनी के छेद से खुरदुरा हो जाता था। मेरा चेहरा इसी आखा के बाहरी हिस्से जैसा हो गया था। इस पूरे प्रकरण में मेरे शेष जीवन पर अत्यंत दूरगामी प्रभाव डालने वाली घटना घटी - चेचक से मेरी दायीं आंख की रोशनी हमेशा के लिए विलुप्त हो गयी।

मेरे गांव में मेरे अलावा कई अन्य व्यक्ति भी अपशकुन की श्रेणी में आते थे। एक थे करीब अस्सी वर्ष के बूढ़े ब्राह्मण जंगू पांडे। वे जीवन पर्यन्त कुंआरे रह गये थे। उनका अपना कोई नहीं था। शाम के समय वे अकसर घूमते हुए दलित बस्ती में आ जाते थे। उनके आते ही विभिन्न परिवारों में खलबली मच जाती थी। नयी नयी बहुओं को लोग घर के अंदर ही रहने के लिए हिदायत देते रहते थे। लोगों का मानना था कि जंगू पांडे की निगाह पड़ते ही बहुओं का अनिष्ट हो जाएगा। इसी तरह गांव की एक अन्य बुढ़िया ब्राह्मणी थी, जिसका नाम किसी को मालूम नहीं था। वह सिर्फ पंडिताइन के रूप में जानी जाती थी। पंडिताइन निर्वंश विधवा थी। उन्हें भी लोग देखना पसंद नहीं करते थे। गांव भर के लोगों का कहना था कि पंडिताइन का सामना हो जाने से किसी काम में सफलता नहीं मिलेगी।

अपने पांच भाइयों में मेरे पिता जी सबसे छोटे थे। सभी का एक संयुक्त परिवार था, जिसमें छोटे बड़े लगभग पचास व्यक्ति एक साथ रहते थे। पिता जी के बीच वाले भाई जो वरीयताक्रम में तीसरे नम्बर पर थे, अत्यंत क्रोधी एवं क्रूर पुरुष थे। अकारण कोई भी व्यक्ति उनकी भद्दी भद्दी गालियों का शिकार बन जाता। उनके दो बेटे एकदम उन्हीं जैसे क्रूर थे। वे सभी मुझे अकसर कनवा-कनवा कह कर पुकारते थे।
साभार : तद्भव

Thursday 6 December, 2007

हम ब्लॉगर साहित्य से बहिष्कृत हैं क्या?

जब से दिल्ली से लौटकर आया हूं, यह सवाल रह-रहकर मन में कील की तरह चुभ रहा है। लगता है कि जैसे हिंदी के हम ब्लॉगर कोई दलित हों, जिसे मंदिर के दरवाज़े से बाहर धकेल दिया गया हो। हुआ यह कि दिल्ली रहने के दौरान अपनी व्यस्तता के बीच से थोड़ा समय निकालकर मैं अपने एक परिचित साहित्कार-पत्रकार से मिलने उनके घर चला गया। वे एक न्यूज़ चैनल में न्यूज के एडिटर हैं। अब चूंकि वे भी ब्लॉगिंग करते हैं और एक नहीं, दो-दो ब्लॉग लिखते-लिखाते हैं, इसलिए न्यूज़ चैनलों की बात करने के बाद उनसे चलते-चलते मैंने हिंदी ब्लॉगिंग पर राय पूछ डाली तो उनका कहना था – जो लोग साहित्य में कुछ नहीं कर पाए या नहीं कर सकते, वही लोग अब ब्लॉगिंग कर रहे हैं। इनमें से गिने-चुने लोग ही काम का लिखते हैं, बाकी तो अखबार में छपने लायक भी नहीं लिखते। मैं यह सुनने के बाद इतना सकपका गया कि अपने ब्लॉग के बारे में उनकी राय पूछने की हिम्मत ही नहीं हुई।

इसके बाद अगले दिन न्यूज़ चैनल के दफ्तर में दूसरे ब्लॉगर मिल गए। उनसे मैंने कहा कि आप थोड़ा कठिन और लंबा लिखते हैं। निर्वैयक्तिक-सा लिखते हैं। पढ़ने वाले को दिक्कत होती है और वह आपके लिखे से खुद को जोड़ नहीं पाता। बोले, “मैं लोगों के लिए अपना स्तर तो नहीं गिरा सकता? वैसे भी मैं मुख्यत: स्थापित अखबारों के लिए लिखता हूं और मुझे ब्लॉग पर भी ऐसा ही लिखना है।” मुझे उनकी सोच से भी हल्का-सा आघात लगा। मुझे लगा कि इनको कोई सलाह देना ही बेकार है और चुप हो गया, इधर-उधर की दूसरी बातें करने लगा।

एक तीसरे मित्र की बात आपने शिल्पी जी के जरिए सुनी ही होगी, जिनकी राय में, “ब्लॉग एक सेफ्टी वॉल्व की तरह मन की बेचैनी, तड़प, सवाल और चिंताओं को भाप बनाकर रोज निकाल बाहर कर देता है और इस तरह से उन परिस्थितियों के संघनित होने की संभावना भी धूमिल पड़ जाती है जो शायद किसी दिन एक बड़े परिवर्तन की प्रेरणा बनकर ब्लॉगर के व्यक्तित्व को पूरी तरह बदल सकती है।”

साहित्यकार और पत्रकार मित्रों की इन बातों से और कुछ हुआ हो या न हो, मेरे अवचेतन में एक हीनता-बोध भर गया। लेकिन अंदर ही अंदर मैं इससे लगातार लड़ता रहा और हीनता-बोध को श्रेष्ठता-बोध में बदलने के तर्क ढूंढता रहा। पहली बात तो मैंने यह ढूंढ निकाली कि साहित्यकारों की दुनिया से जो जितना दूर है और ज़िंदगी से जितना करीब है, वह उतना ही अच्छा साहित्य लिख सकता है। यह बात मैंने मुक्तिबोध के किसी लेख में सालों पहले पढ़ी थी। मुझे यह भी लगता है कि हम साहित्य के आभिजात्य हलके से भले ही बेदखल हों, लेकिन हम हिंदी ब्लॉगर उसी तरह साहित्य का लोकतंत्रीकरण कर रहे हैं, जिस तरह बाबा रामदेव ने योग-विद्या का किया है।

दूसरी बात, ब्लॉगिंग की दुनिया उनके लिए है जिनको कोई अभाव सालता है, निस्संगता काट खाने को दौड़ती है और जो अपने होने का सामाजिक विस्तार चाहते हैं, अपने जैसे बहुत से लोगों से जुड़ना चाहते हैं। यह दुनिया उनके लिए है जो अपनी अधकचरी बातों को, सघन अनुभवों को, अपरिष्कृत अनुभूतियों को दूसरों के साथ बांटना चाहते हैं। ब्लॉगिंग उनके लिए कतई नहीं हो सकती है जो एकतरफा प्रवचन करना चाहते हैं, जो खुद को सारी दुनिया से न्यारा समझते हैं, श्रेष्ठ मानते हैं।

तीसरी बात है एक संभावना जो मुझे ब्लॉगिंग के ज़रिए पूरी होती दिख रही है। हिंदी समाज के सैकड़ों लोगों के अनुभवों को अगर किसी ने संपादित करके एक साथ किसी उपन्यास की शक्ल दे दी, तो उसकी पहुंच एक साथ लाखों लोगों तक हो सकती है क्योंकि अलग-अलग रेखाएं जब घिसकर किसी बिंदु की शक्ल अख्तियार कर लेती हैं तो वह बिंदु किसी भी संरचना का हिस्सा बन सकता है, किसी भी बुनावट के व्यक्ति को अपना लग सकता है। ऐसी रचना से एक कालखंड में जी रहे तमाम लोगों का तादात्म्य बन सकता है।
साहित्य का आभिजात्यीकरण मुर्दाबाद, साहित्य और जीवन का लोकतंत्रीकरण ज़िंदाबाद, हिंदी ब्लॉगिंग जिंदाबाद!!!

Wednesday 5 December, 2007

ताकि हम धर्म-प्रधान से तर्क-प्रधान देश बन जाएं

आज भी ब्रह्म सत्यम् जगत मिथ्या की बात बोलते जाना वैसा ही है, जैसा कि यह कहना कि सूरज धरती के चक्कर लगाता है। कितनी उल्टी बात स्थापित की गई है कि आत्मा सत्य है और शरीर मिथ्या है। जबकि हकीकत यह है कि जीवित शरीर ही पहला और अंतिम सत्य है क्योंकि भूत (संस्कार) और वर्तमान (माहौल) के मेल से जो चेतना बनती है, व्यक्तित्व बनता है, वह शरीर के मरते ही विलुप्त हो जाता है। जिसे हम आत्मा कहते हैं, मरने के बाद शरीर से निकलने वाली ज्योति कहते हैं, उसे हम करोड़ों-अरब जतन कर लें, शरीर से अलग, उसके बिना बना ही नहीं सकते। शरीर और आत्मा सामाजिक ऑर्गेनिक प्रक्रिया में एक साथ वजूद में आते हैं। दोनों को अलग-अलग नहीं बनाया जा सकता। मान लीजिए हम शरीर बना भी लें, लेकिन मानव जाति के हज़ारों सालों के स्थान विशेष के अनुभवों को सूक्ष्मीकृत करके हम उस शरीर में कैसे ट्रांसप्लांट करेंगे?

आत्मा-परमात्मा क्या है? यह तो एक सिमिट्री, संतुलन बैठानेवाली चीज़ है। अपने बाहरी संसार और अनुभवों को संतुलित करने के लिए इंसान उसी तरह इनकी रचना अपने अवचेतन, अंदर की दुनिया में करता है, जैसे किसी पेंटिंग को असंतुलित पाकर हम उसके दूसरे हिस्से या किसी उपयुक्त स्थान पर कोई गोला या आकृति बना देते हैं। असल में बीता हुआ कल ही बीतेते-बीतते भगवान जैसी अवधारणाओं को पैदा करता है। ये अवधारणाएं पीढ़ी-दर-पीढ़ी होनेवाले अमूर्तन का रूप हैं। जैसे रिले रेस में एक खिलाड़ी दूसरे खिलाड़ी को बैटन पकड़ा देता है, वैसे ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी की अनुभूतियां और ज्ञान संघनित और ठोस होकर आगे की पीढ़ी को मिल जाते हैं, जो उन्हें लेकर दौड़ पड़ती है।

हम आज की शब्दावली में यह भी कह सकते हैं कि भगवान एक ब्रांड है, जो बना तो हज़ारों साल में, लेकिन बनने की प्रक्रिया में वह बनानेवालों से बहुत-बहुत ज्यादा बड़ा होता गया। यह धीरे-धीरे एक ऐसा जबरदस्त पूर्वाग्रह बन गया जो हमारे और सच के बीच कोहरे की घनी चादर बनकर तन गया। वैसे, यह भी होता है कि अक्सर ईश्वर और गुरु की धारणा से हमारा जुड़ाव तभी तक रहता है जब तक लगता है कि वे हमारे लिए कुछ कर देंगे। लेकिन जैसे-जैसे हमें भान होता है कि गुरु, ईश्वर और उनसे जुड़ी साधना तो केवल अंदर की शक्तियों को जगाने का माध्यम भर हैं, तब हमारी आस्था डोलते-डोलते हवा में उड़ने को उतारू हो जाती है।

आस्था के डोलने और उड़ने का एक व्यापक सिलसिला देश में 500-600 साल पहले शुरू हुआ था कबीर, रैदास, ज्ञानेश्वर, नाभा सिंपी, सेना भाई जैसे शूद्र संतों के माध्यम से। फिर इस भक्ति आंदोलन के साथ ही सूफियों का सिलसिला चल निकला जो प्रेम को ही सबसे बड़ा सच और परमेश्वर मानने लगे। मुझे तो लगता है कि आज भी हमें दर्शन और सोच के स्तर उस टूट गए सिलसिले को नए संदर्भों में आगे बढ़ाने की ज़रूरत है। जीवन में तार्किकता को स्थापित करने के लिए दक्षिण से लेकर उत्तर भारत तक पूरे देश में ‘संतों’ को जमाने की ज़रूरत है। हिंदी ब्लॉगिंग यह काम बखूबी कर सकती है। इस तरह के ‘संत’ देश के प्रमुख ‘मठों’ में जम गए तो धर्म-प्रधान कहा जानेवाला भारत हमारा एक दिन यकीनन तर्क-प्रधान देश में तब्दील हो जाएगा और चंडीदास के ये शब्द ही सर्वोपरि होंगे कि...
शोनो मानुष भाई, शबार ऊपरे मानुष शत्ती, ताहार ऊपरे केऊ नाई।।

नोट : ये मेरे सुचिंतिंत विचार नहीं हैं। डायरी में लिखी गई फुटकर-फुटकर बातें थीं, जिन्हें एक जगह सजाकर मैंने लेख का रूप दे दिया है। आप लोग सोचें-विचारें और लिखें कि इनको कोई सुचिंतिंत आधार कैसे दिया जा सकता है।

Tuesday 4 December, 2007

कल और आज : दिल्ली के दो जनवादी बुद्धिजीवी

ये तस्वीरें महज तस्वीरें नहीं हैं। ये राजधानी दिल्ली में जनवादी बुद्धिजीवियों के कल और आज का प्रतीक हैं। पहली तस्वीर है आनंद स्वरूप वर्मा की और दूसरी तस्वीर है अविनाश की। दोनों के सांसारिक दर्शन, बौद्धिक सोच और प्रतिबद्धता में काफी समानता है। दोनों दिमागी तौर पर धुर क्रांतिकारी हैं। रंग इतना गाढ़ा है कि कोई और रंग चढ़ ही नहीं सकता। इसके अलावा दोनों में और भी बहुत सारी समानताएं हैं।

Disclaimer: इस पोस्ट को चेहरे मिलाने के मेरे पुराने शगल से जोड़कर देखा जाए, व्यक्तिगत छिद्रान्वेषण के रूप में नहीं।

माया ही सच है, भगवान तो बस एक पूर्वाग्रह है

हमारा भगवान हमें हिंसा से नहीं रोकता, व्यभिचार से नहीं रोकता, भ्रष्टाचार से नहीं रोकता। हां, कानून हमें ऐसा करने से ज़रूर रोकता है। लेकिन हम कानून की कम और भगवान की ज्यादा परवाह करते हैं। जिनको ज़रूरत नहीं, वो भी भगवान के दरबार में मत्था नंवाते हैं और जिसे दुनिया-समाज ने तंग कर रखा है, वह तो माने ही बैठे हैं कि भगवान के घर में देर है, अंधेर नहीं। यहां मैं इस पर बात नहीं कर रहा कि भगवान का वजूद है या नहीं। ये सब तो ऊपरवालों का काम है और वे ही इस पर बहस के अधिकारी भी हैं। मैं तो बस यह सवाल उठाना चाहता हूं कि क्या भगवान, आस्था या नैतिकता जैसी मान्यताओं से हकीकत और हमारे बीच का फासला बढ़ता है या मिटता है? प्रकृति से लड़ने की हमारी आदिम ताकत कमज़ोर होती है या बढ़ती है?

कहते हैं आस्था से क्या फर्क पड़ता है? एक कोने में पड़ी रहने दो। लेकिन हम इसे कोने में नहीं पड़े रहने दे सकते क्योंकि यह सोते-जागते, उठते-बैठते हमेशा तंग करती है। सोकर उठे तो सोमवार को हे शंभू-कैलाशपति, मंगलवार को जय हनुमान, बुधवार को ऊँ रांग राहवे नम:, गुरुवार को बृं बृहस्पतये नम: ... शुक्र के लिए भी कुछ न कुछ होगा, मुझे पता नहीं। फिर शनि कुपित न हो जाएं, इसके लिए क्या-क्या मशक्कत नहीं करता इंसान। रविवार को ऊँ सूर्याय नम:, आदित्याय नम:, भास्कराय नम : ... हर दिन का कोई न कोई देवता और वह नाराज़ न हो जाए, बराबर इसका डर। अनिश्चितता को नांथने के लिए यहां तक तो ठीक है कि हम सिक्का उछालें, ऐसी तमाम बातें सोचें कि नीचे वो वाला चौकीदार मिल गया, रास्ते में चितकबरी गाय दिख गई, बस पांच मिनट में आ गई तो काम हो जाएगा। लेकिन इसके आगे की आस्थाएं अच्छी-खासी आंखवाले को भी मोटे कांच का चश्मा पहना देती हैं।

ये भी कहते हैं कि दया, करुणा, सेवा, त्याग, ईमानदारी और नैतिकता जैसी पवित्र व श्रेष्ठ भावनाएं ही ईश्वर हैं। लेकिन ये श्रेष्ठ भावनाएं समाज की देन और ज़रूरत हैं। शुरू में तो इंसान था और प्रकृति थी। प्रकृति को वह बिना किसी पूर्वाग्रह के देखता है। समाज बना तो वह भी बाहरी प्रकृति में शामिल हो गया। बाहरी प्रकृति से लड़ाई तो विज्ञान सुलझाता गया, लेकिन समाज को वह ठीक से न देख सके, इसके लिए उस पर इंसानों द्वारा ही बनाए गए तमाम पूर्वाग्रह लाद दिए गए। कोई एक भ्रम टूटा तो जल्दी से उसे घिस-घिसकर नया भ्रम तैयार कर दिया गया। महावीर और बुद्ध जैसे तर्कवादी को भी भगवान बना दिया गया। और, अब श्रेष्ठ भावनाओं को ही ईश्वर मानने की बात करके दरअसल हम अच्छी-खासी आंखवाले को कॉन्टैक्ट लेंस पहनाने लगे हैं।

इससे घटता कुछ नहीं है। बस हमारे और सच के बीच कभी आभासी तो कभी पारदर्शी कांच की दीवार खड़ी हो जाती है। हम सच तक पहुंच पाएं, इससे पहले ही उस दीवार से टकराकर वापस लौट आते हैं। हम कर्मप्रधान विश्व करि राखा, मानते हुए भरसक कर्म जरूर करते हैं, लेकिन फिर भगवान और आस्थाओं से सच के नुकीले किनारों को गोल बनाकर असहाय हो जाते हैं। यही असहायता उठाकर फिर हमें भगवान की गोंद में फेंक देती है और कोई यह कहनेवाला नहीं मिलता कि का चुप साधि रहा बलवाना।

मजे की बात यह है कि हम क्रांति और राजनीतिक बदलाव जैसा बड़ा ठोस सामाजिक काम करने जा रहे होते हैं तब भी त्याग और बलिदान जैसी ‘पवित्र व श्रेष्ठ’ भावनाएं हमारे दिमाग में, आंखों के पीछे ऐसा धुआं भर देती हैं कि जिस समाज को हम बदलने चले हैं, वह समाज ही हमें दिखना बंद हो जाता है। हमें जो दिखता है, वह बस इतना कि हम बड़े महान और पवित्र काम के लिए अपना सर्वस्व होम करने जा रहे हैं। हम भले ही नास्तिक हों, लेकिन अपने भीतर कहीं न कहीं मान बैठते हैं कि हमारा जन्म इसी उद्देश्य के लिए हुआ था और हम तो अदृश्य शक्तियों के काम को पूरा करने के निमित्त मात्र हैं। जारी...

Monday 3 December, 2007

अंधा जा पहुंचा अप्सरा का नाच देखने!

आज मुझे दिल्ली वालों से जलन हो रही है, क्योंकि जिस समय मैं यह पोस्ट लिख रहा हूं, ठीक उसी समय दिल्ली के इंडिया हैबिटैट सेंटर में एक अद्भुत प्रेम कहानी पर बने नाटक ‘Bombay Black’ का मंचन हो रहा है, वह भी हिंदी में। करीब दो घंटे के इस नाटक का निर्देशन अनहिता ने किया है। वैसे, दिल्ली वाले इसे कल शाम भी सात बजे देख सकते हैं। लेकिन मैं बेचारा मुंबई से वहां नहीं पहुंच सकता।

इस नाटक की पृष्ठभूमि मुंबई की है। इसे लिखा है अनोश ईरानी ने। यह एक अंधे और एक नर्तकी की प्रेम कहानी है। कहानी में प्रेम का हर आवेग है, उफान है। धोखा है, बदला है। मुंबई के मुख्य इलाके कोलाबा में पद्मा नाम की एक कड़क किस्म की महिला है, जो अपनी बेटी अप्सरा का मनमोहित करनेवाला नाच दिखाने के लिए लोगों से अच्छी-खासी रकम लेती है। अप्सरा बेइंतिहा खूबसूरत है और उसका नाच जो भी देखता है, उस पर लट्टू हो जाता है।

एक दिन कमल का नाम का रहस्यमय अंधा व्यक्ति पद्मा के पास पहुंचता है और कहता कि वह उसकी बेटी अप्सरा का नाच अकेले में देखना चाहता है। सोचिए, अंधा नाच देखना चाहता है! कमल का रहस्य धीरे-धीरे खुलता है तो पता चलता है कि उसका मां-बेटी से पुराना वास्ता रहा है। फिर कहानी ऐसे-ऐसे मोड़ लेती है, जिसके बारे में मुझे पता नहीं है। हां, इतना पता है कि जो कुछ भी है, वह बड़ा रूमानी और रोमांचक है। अगर आप में से कोई भी इस नाटक को देखे तो मेरी गुजारिश है कि इस पर ठीक से ज़रूर लिखिएगा। मुझे तो एक अच्छी फोटो दिख गई तो खानापूरी के लिए मैंने लिख मारा।

Sunday 2 December, 2007

मस्त रहो, सब कुछ जानना ज़रूरी नहीं

कभी-कभी इच्छा होती है कि सब कुछ जान लें। दुनिया की अनंत सैर पर निकल जाएं। पुरानी सभ्यताओं के अवशेष देखें, नए का निर्माण देखें। घूम-घूमकर और पढ़कर राजनीति भी जान लें, अर्थनीति भी। साइंस, साहित्य, खगोलशास्त्र से लेकर इतिहास-भूगोल समेत दुनिया की कोई भी चीज़ ऐसी न हो जिनकी जानकारी हमें न हो। यानी, पूरे एनसाइक्लोपीडिया बन जाए। फिर लगा कि तब किसी कंप्यूटर की फाइल और हम में अंतर क्या रह जाएगा? इसी दौरान पुरानी डायरी पलटते-पलटते मुझे किसी विचारक की चंद लाइनें लिखी हुई नज़र आ गईं:
न सब कुछ देखना-पढ़ना उचित है, न अनिवार्य। व्यक्ति को प्रतिपल चुनाव करना चाहिए। ...हम अंधों की तरह टटोलते रहते हैं। एक हाथ ऊपर भी मारते हैं। एक हाथ नीचे भी मारते हैं। ...इस तरह हम अपनी ज़िंदगी को अपने ही हाथों काटते रहते हैं। हम अपनी ज़िंदगी को दोनों तरफ फैलाए रहते हैं और कहीं भी नहीं पहुंच पाते। ...हम सब कन्फ्यूज्ड हैं क्योंकि हम अनर्गल, असंगत चुनाव करते रहते हैं। अनेक तरह की नांव पर सवार हो जाते हैं। फिर जीवन टूटता है, जीवन नष्ट होता है और हम कहीं नहीं पहुंच पाते।
मैं सोचने लगा कि फिर रास्ता क्या है? मुझे एक पुराने साथी की बात याद आ गई कि हमारा 90 फीसदी से ज्यादा ज्ञान अप्रत्यक्ष होता है। हम आग को छूकर नहीं देखते कि वह जलाती है या नहीं। संत कबीर भी कह चुके हैं कि ढाई आखर का प्रेम का पढ़य सो पंडित होय। लेकिन आज के संदर्भों में प्रेम का ये ढाई आखर है क्या? मैं उलझन में पड़ गया कि करूं क्या? यहीं पर मुझे किसी और विद्वान-विचारक की लाइनें अपनी डायरी में दिख गईं: वह मत करो जो तुम चाहते हो और तब तुम वह कर सकते हो जो तुम्हें अच्छा लगता है।

यानी मन के राजा बनो, मस्त रहो। लेकिन मन के राजा ही बन पाते तो चिंतित और परेशान और साथ ही कन्फ्यूज्ड क्यों रहते? अपने को हर पल आधा-अधूरा क्यों महसूस करते?

Saturday 1 December, 2007

हँसो हँसो, जल्दी हँसो, कोई देख रहा है

स्कूलों-कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के लिए हमारे कोर्स बनाने वाले वाकई धन्य हैं। उन्हें यकीन है कि वो अब भी इमरजेंसी जैसे माहौल में रह रहे हैं और सरकार के खिलाफ लगनेवाली कोई सामग्री कोर्स में शामिल कर लेंगे तो उनकी मिट्टी पलीद कर दी जाएगी। इसलिए वो राजनीतिक कविता पर भी बड़ा निरामिष-सा, तटस्थ-सा मुलम्मा लगा देते हैं। नहीं तो क्या तुक है कि दिल्ली में 12वीं के हिंदी पाठ्यक्रम में शामिल रघुवीर सहाय की इस कविता की भूमिका में लिखा गया है कि कवि यहां हँसने की सलाह दे रहा है क्योंकि हँसना स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा होता है। तो चलिए आप भी थोड़ा ‘हँस’ लीजिए और पढ़िए यह कविता...

हँसो कि तुम पर निगाह रखी जा रही है
हँसो, मगर अपने पर मत हँसना क्योंकि उसकी कड़वाहट
पकड़ ली जाएगी और तुम मारे जाओगे
ऐसे हँसो कि बहुत खुश न मालूम हो, वरना शक होगा कि
यह शख्स शर्म में शामिल नहीं है और मारे जाओगे

हँसते-हँसते किसी को जानने मत दो कि किस पर हँसते हो
सबको मानने दो कि तुम सबकी तरह परास्त होकर
एक अपनापे की हँसी हँसते हो
जैसे सब हँसते हैं बोलने के बजाय


जितनी देर ऊंचा गोल गुंबद गूंजता रहे, उतनी देर
तुम बोल सकते हो अपने से, गूंज थमते-थमते फिस हँसना
क्योंकि तुम चुप मिले तो प्रतिवाद के जुर्म में फंसे
अंत में हँसे तो तुम पर सब हँसेंगे और तुम बच जाओगे
हँसो, पर चुटकुलों से बचो क्योंकि उनमें शब्द हैं
कहीं उनमें अर्थ न हों जो किसी ने सौ साल पहले दिए हों

बेहतर है कि जब कोई बात करो, तब हँसो
ताकि किसी बात का कोई मतलब न रहे
और ऐसे मौकों पर हँसो जो कि अनिवार्य हों
जैसे गरीब पर किसी ताकतवर की मार

जहां कोई कुछ नहीं कर सकता
उस गरीब के सिवाय
और वह भी अक्सर हँसता है

हँसो हँसो जल्दी हँसो
इससे पहले कि वह चले जाएं
उनसे हाथ मिलाते हुए, नज़रें नीची किए
उनको याद दिलाते हुए हँसो
कि तुम कल भी
हँसे थे...