किसी गैर के हाथ की कठपुतलियां नहीं हैं हम

हरिमोहन बड़े भाई की तरह डपट पड़े कि आपका इरादा क्या है? यशवंत बोल पड़े - ए महराज, सबेरे-सबेरे रोवाएंगे क्या? समीरलाल उडनतश्तरी से उड़ते हुए तसल्ली देकर चले गए कि आप तो नाहक ही भावुक हो गए। हम हैं न। फिर भी आते रहेंगे टिपियाने। नई पोस्ट नहीं मिलेगी तो भी पुरानी पर टिपिया जाएंगे। शिवकुमार मिश्र ने तो पूरी पोस्ट ही ठेल दी और ब्लॉगर हलकान ‘विद्रोही’ की ब्लॉग वसीयत लिख मारी। कई दिन बीत गए। समीरभाई ने फिर पुकारा – कहां गुम हो गए भाई! स्वदेशियों के अलावा कुछ परदेशियों ने भी ई-मेल पर शिकायत की कि मैं कुछ लिख क्यों नहीं रहा। फिर भी मैं अपनी तंद्रा में पड़ा रहा। ब्लॉग पर न अपना कुछ लिखा, न ही औरों का लिखा पढ़ा। 28 अप्रैल से 11 मई तक। इस तरह आज तेरहवीं हो गईं तो ख्याल आया कि चलो फिर से उठ बैठा जाए।

दिक्कत यह है कि मैंने जिस असाध्य अटल समस्या को इंगित करने की कोशिश की थी, उसे कोई समझ नहीं सका। फिलहाल ब्लॉग की रूह तलाशते चंद्रभूषण ने तो पढ़कर ऐसा मुंह बिराया कि बोल पड़े - Oh Dear, this regular morbidity is soooooooo boooooooring! हां, संजय ने दार्शनिक अंदाज़ में ही सही, पर कुछ ऐसी बात कही जो मेरी चिंता के काफी करीब थी। उनकी बात में बासुदेव कृष्ण का अंदाज़ साफ दिख रहा था - मैंने लिखा ही क्या? वही जो ब्रह्माडरूपी सर्वर में एनकोडेड था। मेरा ब्लॉग बंद हो सकता है सर्वर तो तब भी रहेगा। यानी ‘मैं’ तो रहूंगा ही। रूप बदल जाएगा, रंग बदल जाएगा, चेहरे बदल जाएंगे। लेकिन नाना रूपों में ‘मैं’ अभिव्यक्त होता रहूंगा। क्या पता इसी सोच का नतीजा है जो संजय भाई ने अपना नवजात कम्यूनिटी ब्लॉग विस्फोट स्थाई रूप से बंद कर दिया?

हारी-बीमारी तो लगी ही रहती है। लेकिन मैं जिस खास वजह से नहीं लिख रहा था, वह एक जिद थी कि अगर मै नहीं लिखूंगा तो कौन मुझसे लिखा सकता है। काफी पहले शास्त्री जी ने कहा था कि कोई दैवी शक्ति है जो मुझसे लिखा रही है। इस बात का खंडन तो मैंने किया, लेकिन जानते ही है कि हम गंवई किसान पृष्ठभूमि से आए लोगों में तमाम विश्वास-अंधविश्वास ऐसे बैठे रहते हैं कि ज़रा-सा मौका पाते ही बोतल से बाहर उछल पड़ते हैं। तो, मुझे भी गुमान हो गया कि कोई दैवी शक्ति है जो मुझे संचालित कर रही है। फिर तो मैं जिद ही कर बैठा कि नहीं लिखूंगा। जिसको लिखवाना है वो लिखवा कर तो दिखाए!!!

किसी दृश्य-अदृश्य, नीचे या ऊपरवाले के हाथों की कठपुतलियां नहीं हैं हम। न ही दुनिया कोई रंगमंच है जहां हम महज एक अभिनेता हैं। हमारे सोच और कर्म में कार्य-कारण संबंध जरूर है। हो सकता है कि कल को विज्ञान यह भी सिद्ध कर दें कि इनका बहुत हद तक निर्धारण हमारे जीन्स की संरचना से होता है। लेकिन अंतत: हमारी free will ही निर्णायक है। आपको बता दूं कि मनोवैज्ञानिकों ने हाल ही एक प्रयोग किया है जिसका निष्कर्ष ये है कि जो लोग विधि के विधान को मानते हैं, जो मानते हैं कि वे तो महज ऊपरवाले के हाथ की कठपुलती हैं, वे बड़े से बड़ा दुष्कर्म भी बगैर किसी संकोच के कर डालते हैं। जबकि अपनी स्वतंत्र इयत्ता और free will को माननेवाले लोग हमेशा खुद को अपने कर्मों के लिए जिम्मेदार/जवाबदेह मानते हैं। इसलिए सही-गलत की बराबर परख करते हैं और हमेशा नैतिक दायित्व का पालन करते हैं।

आखिर में बस एक बात और कहनी है कि हम ऐसे दौर से गुज़र रहे हैं जहां सवालों की भरमार है। लेकिन जबाव भी विचारों के शक्ल में जूजू की तरह हमारे इर्दगिर्द मंडरा रहे हैं। आप ऊपर-नीचे, अगल-बगल झांकते रहेंगे तो हर हाल में इनमें से कुछ विचार आपके हाथ लग ही जाएंगे, कुछ मेरे हाथ भी लगेंगे। तो जो मेरे हाथ लगे, उसे मैं लिखूं, जो आपके हाथ लगे, उस पर आप लिखिए। इस तरह सार्थक विचारों का सिलसिला निर्बाध रूप से चलते रहना चाहिए। नपुंसक किस्म के कवि या साहित्यकार निर्वंश रहें तो कोई बात नहीं। लेकिन सार्थक विचारों का वंश चलते रहना चाहिए।

वैसे, कुछ लोग कहेंगे कि यह तो बड़ी घिसीपिटी बात है जिसे दुष्यंत बहुत पहले कह चुके हैं कि मेरे सीने में नहीं, तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, मगर आग जलनी चाहिए। लेकिन घिसपिटी ही सही, बात में तो आज भी दम है।
फोटो सौजन्य: law keven

Comments

PD said…
अजी हम भी नहीं लिखने की कसम खा कर बैठे हुए थे..
लगभग १० दिनों से कुछ नहीं लिखा..
मगर आज कसम तोरने बैठ ही गए हैं.. थोरी देर में कुछ मेरे यहाँ भी आ जायेगा.. :)
dpkraj said…
आदमी के पंख नहीं होते
जो वह आसमान में उड़ सके
पर उसका मन बिना पंख के ही
उड़ता चला जाता है
उसके पांव आदमी की काबू में होते नहीं
पंरिदे बनाते हैं लोगों के घर में भी घरोंदे
पर उनके बिस्तर पर सोते नहीं
खुशी में झूमकर नाचता इंसान
दुःख में अपने ही आंखो से बहती
अश्रुधारा में करता स्नान
पर परिंदे कभी रोते नहीं
अपने मन के इशारे पर
कठपुतली की तरह नाचता
कितने भी दावे करे कि
खुद ही चल रहा है इस जीवन पथ पर
अपनी अक्ल पर है उसका काबू
कराती है इंसान की जुबान दावे आजाद होने के
पर कभी वह सच्चे होते नहीं
अपनी जरूरतों से आगे नहीं उड़ते
इसलिये परिंदे कठपुतली नहीं होते
यह सच है
अपनी ख्वाहिशों के हमेशा गुलाम
रहने वाले इंसानों के लिये
साबित करना बहुत मुश्किल है कि
वह कठपुतली होते नहीं
....................
दीपक भारतदीप
vikas pandey said…
Hum to bas itna chahte hai ki aap likhte rahen.
This comment has been removed by the author.
पैले जे बताएं कि किधर गायब थे बड़े दिन बाद दिखे आप!

आपको पढ़कर तो हमने एक महीने बाद आज कुछ लिखा।
रघुराज भाई, अपन तो सोच रहे थे कि आप गर्मियों की छुट्टियों में गाँव चले गए हैं और लौटते ही धाँसू रपट पढ़ने को मिलेगी. खैर आप यहीं हैं तो अब इस उदासी भरे चिंतन से बाहर आ जाइए और जो मन में आए लिखिए. ब्लॉग का यही तो दर्शन है.
जय हो भाई..पर यह साहित्यकार कौन है जो नामर्द है...
आभा said…
तेरहवी की बात क्यों कर रहे हैं...हमें तो आपकी पोस्ट का इंतजार रहता है..आप और आपका ब्लॉग जुग-जुग जिएँ
Udan Tashtari said…
हमारी आवाज ने जगा ही दिया.

बात में तो दम है मगर
हमारी पुकार भी क्या कुछ कम है?

:)

आईये, इत्मिनान से लिखिये. शुभकामनाऐं.
Reetesh Gupta said…
"आपको बता दूं कि मनोवैज्ञानिकों ने हाल ही एक प्रयोग किया है जिसका निष्कर्ष ये है कि जो लोग विधि के विधान को मानते हैं, जो मानते हैं कि वे तो महज ऊपरवाले के हाथ की कठपुलती हैं, वे बड़े से बड़ा दुष्कर्म भी बगैर किसी संकोच के कर डालते हैं। जबकि अपनी स्वतंत्र इयत्ता और free will को माननेवाले लोग हमेशा खुद को अपने कर्मों के लिए जिम्मेदार/जवाबदेह मानते हैं। इसलिए सही-गलत की बराबर परख करते हैं और हमेशा नैतिक दायित्व का पालन करते हैं।"

आपका यह विचार सोचने को मजबूर करता है...मेरे जैसे लोगों के लिये लिखते रहिये जो दिमाग से नहीं मन से पढ़ते है...लिखें ताकी आपके विचार बीज रूप में अंकुरित होते रहें...धन्यवाद
Amit K Sagar said…
लिखते रहो भाई" कि यहाँ तो बात-बात पे लिखते ही बनता है...
---
सादर;
~अमित के. सागर~
आपको यहाँ पढ़कर सार्त्र का अस्तित्ववाद याद आ गया। देर से आये, लेकिन आते ही जम गये। साधुवाद।
Unknown said…
बिल्कुल जलनी चाहिए -चाहे कभी सुगबुगा कर - चाहे कभी धधक कर - मनीष

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