खबर की बात करते हो, न तीन में, न तेरह में!!!
लोकतंत्र का चौथा खंभा, जागरूक प्रहरी, राष्ट्र की चेतना का निर्धारक, सूचनाओं से सुसज्जित नागर समाज का निर्माता। इन शाश्वत ‘शास्त्र-सम्मत’ मानकों पर कब तक मीडिया को तौला जाता रहेगा? कब तक छाती पीटी जाती रहेगी कि हाय-हाय! मीडिया से न्यूज़ गायब हो गई, खबर गायब हो गई, सामाजिक सरोकार गायब हो गए? किसने तय कर दी है न्यूज़ की ‘धार्मिक परिभाषा’ कि कर्नाटक के चुनाव खबर हैं, गोवा का राजनीतिक संकट खबर है, नाभिकीय संधि खबर है और अश्लील हरकतें करनेवाले टीचर की पिटाई, बेवफा बीवी का कत्ल, आरुषि का कत्ल, प्रेम-त्रिकोण में हत्याएं खबर नहीं है? राजनीतिक टूटन खबर है और पारिवारिक रिश्तों की टूटन खबर नहीं है?
इधर खबरों की शुचिता पर बोलने का सिलसिला चला है। कथाकार राजेंद्र यादव का पुराना लेख छापकर इरविन वालेस के उपन्यास ऑलमाइटी का जिक्र किया जा रहा है तो हिंदी की हकलाती खबरों के सबसे बड़े ब्रांड पुण्य प्रसून वाजपेयी कह रहे हैं कि चैनलों के न्यूज़-रूम में खबरों को खारिज़ करने पर आम सहमति बन चुकी है। जैसे, हर जगह दु:शासन बैठे हैं और द्रौपदी (खबर) के चीरहरण पर उतारू हैं। न खबर समय और समाज से ऊपर की चीज़ है और न ही पत्रकारिता के कोई शाश्वत निरपेक्ष मूल्य हैं। मीडिया कोई धर्मार्थ संस्था नहीं है, न ही पत्रकारिता कोई मिशन है। हां, इतना ज़रूर है कि विकसित और विकासशील देश की पत्रकारिता की ज़रूरत और तेवर भिन्न हैं तो मीडिया के मुनाफे व विस्तार की डगर भी अलग-अलग होगी।
दिक्कत यह है कि हमारी मीडिया कंपनियां ठहराव व मंदी का शिकार हो चुके विकसित देशों की अंधी नकल कर रही हैं। आज अमेरिका या ब्रिटेन में विज्ञापन-आय एक सीमा पर जाकर ठहर चुकी है तो वहां के प्रिंट और टेलिविजन उद्योग के लिए कॉस्ट-कटिंग ज़रूरी हो गई है। खबरों के लिए न्यूज़ एजेंसियों पर निर्भरता बढ़ गई है। संवाददाताओं की संख्या घटाई जा रही है। विदेशी सेवाएं बंद की जा रही हैं। ऐसे में क्राइम, सेलेब्रिटी, मनोरंजन शोज़ जैसी सस्ती खबरें कवर करना उनके लिए काफी मुफीद साबित हो रहा है और गांव, गरीबी, बेरोज़गारी और पर्यावरण से जुड़ी खबरों को कवर करना घाटे का सौदा बन गया है।
लेकिन जिस भारत में मीडिया के विस्तार ही नहीं, विस्फोट की गुंजाइश बाकी है, जहां विज्ञापन की आमद 20-22 फीसदी सालाना की दर से बढ़ रही है, वहां सभी चैनलों को क्रिकेट, क्राइम, सेक्स, सेलेब्रिटी और मनोरंजन के पीछे भागने में ही टीआरपी क्यों दिखती है? उन्होंने व्यापक अवाम से जुड़े मुद्दों से क्यों हाथ खींच लिए हैं!!! ये सच है कि विज्ञापन की आमदनी पर निर्भर समाचार माध्यम उबाऊ खबरें दिखाकर दर्शक नहीं गंवाना चाहते। लेकिन जिन मध्यवर्गीय दर्शकों को वो पकड़ना चाहते हैं, वे क्राइम, अंधविश्वास, सेलेब्रिटी और टीवी सीरियलों के लटकों-झटकों के अलावा बहुत कुछ देखना चाहते हैं। फिर अगर आप केवल मौजूदा मध्यवर्ग को ही दर्शक मानते हैं, तो इसे धंधे का दूरगामी नज़रिया नहीं कहा जा सकता क्योंकि जिन 70-80 करोड़ लोगों को आप नज़रअंदाज़ कर रहे हैं, वो देश का कल तय करते हैं, वो राजनीतिक रूप से किसी की किस्मत बना-बिगाड़ सकते हैं।
आज देश का ज्यादा से ज्यादा लोकतंत्रीकरण मीडिया के विकास की बुनियादी शर्त है। इसलिए Infotainment में Entertainment रहे, यहां तक तो ठीक है, लेकिन ज़िंदगी के ज़रूरी Info अगर न्यूज़ से गायब रहेंगे तो इसमें न तो मीडिया के मालिकों का भला है, न संपादकों का और न ही मीडिया के उपभोक्ता का। राजनीति से लेकर समाज और पारिवार तक जहां-जहां लोकतांत्रिक कचोट है, लोग उसकी पूर्ति चाहते हैं। फॉर्मूलों फिल्मों के प्रोड्यूसरों की तरह यह कहना आसान है कि हम वही दिखा रहे हैं जो लोग देखना चाहते हैं। लेकिन हमें यह भी तो देखने की ज़रूरत है कि आज चक दे, रंग दे बसंती, खोसला का घोसला और तारे ज़मीं पर जैसी फिल्में सुपरहिट हो रही हैं, जबकि ज्यादातर मसाला फिल्में पिट रही हैं।
अब कुछ आंकड़े। इस समय हिंदी समाचारों के 12 न्यूज़ चैनल हैं। जल्दी ही त्रिवेणी के वॉयस ऑफ इंडिया के जुड़ जाने के बाद ये संख्या 13 पहुंच जाएगी। लेकिन ऊपर के तीन चैनलों के पास ही दर्शकों का आधे से ज्यादा (53 फीसदी) हिस्सा है। आप समझ ही सकते हैं कि बाकी चैनलों की हालत न तीन में, न तेरह में जैसी होगी। फिर भी नए-नए न्यूज़ चैनलों के आने का सिलसिला नहीं रुक रहा क्योंकि इस धंधे में काफी मोटा मुनाफा है। एक अनुमान के मुताबिक कोई भी न्यूज़ चैनल शुरू करने पर कम से कम 100-125 करोड़ रुपए का खर्च आता है और ब्रेक-इवन तक पहुंचने में तीन से पांच साल लग जाते हैं। लेकिन जम गए तो उसके बाद नोटों की बारिश शुरू हो जाती है।
TAM Media के मुताबिक भारत में टेलिविजन विज्ञापन 22 फीसदी की दर से बढ़ रहा है और फिक्की के लिए प्राइस वाटरहाउस कूपर्स की एक रिपोर्ट को सच मानें तो 18 फीसदी की सालाना चक्रवृद्धि दर से बढ़ता हुआ भारतीय मीडिया और मनोरंजन उद्योग 2012 तक 1,16,000 करोड़ रुपए का हो जाएगा। एक ताज़ा अध्ययन के मुताबिक अभी भारत में टेलिविजन की पहुंच 50 फीसदी, रेडियो की पहुंच 20, अखबारों की पहुंच 38 फीसदी, पत्रिकाओं की पहुंच 10 फीसदी और इंटरनेट की पहुंच महज पांच फीसदी है। ज़ाहिर है भारतीय मीडिया उद्योग में अभी अरबों-खरबों कमाने की संभावना है। लेकिन दिक्कत यह है कि बाज़ार में उतर रहे नए-नए चैनल भी जल्दी ही एक-दूसरे का क्लोन बन जाते हैं, एनडीटीवी इंडिया को छोड़कर जिसकी हालत उन मुट्ठी भर लोगों की तरह है जो मजबूरी में ईमानदार बने रहते हैं क्योंकि चाहकर भी भ्रष्ट नहीं हो पाते।
इधर खबरों की शुचिता पर बोलने का सिलसिला चला है। कथाकार राजेंद्र यादव का पुराना लेख छापकर इरविन वालेस के उपन्यास ऑलमाइटी का जिक्र किया जा रहा है तो हिंदी की हकलाती खबरों के सबसे बड़े ब्रांड पुण्य प्रसून वाजपेयी कह रहे हैं कि चैनलों के न्यूज़-रूम में खबरों को खारिज़ करने पर आम सहमति बन चुकी है। जैसे, हर जगह दु:शासन बैठे हैं और द्रौपदी (खबर) के चीरहरण पर उतारू हैं। न खबर समय और समाज से ऊपर की चीज़ है और न ही पत्रकारिता के कोई शाश्वत निरपेक्ष मूल्य हैं। मीडिया कोई धर्मार्थ संस्था नहीं है, न ही पत्रकारिता कोई मिशन है। हां, इतना ज़रूर है कि विकसित और विकासशील देश की पत्रकारिता की ज़रूरत और तेवर भिन्न हैं तो मीडिया के मुनाफे व विस्तार की डगर भी अलग-अलग होगी।
दिक्कत यह है कि हमारी मीडिया कंपनियां ठहराव व मंदी का शिकार हो चुके विकसित देशों की अंधी नकल कर रही हैं। आज अमेरिका या ब्रिटेन में विज्ञापन-आय एक सीमा पर जाकर ठहर चुकी है तो वहां के प्रिंट और टेलिविजन उद्योग के लिए कॉस्ट-कटिंग ज़रूरी हो गई है। खबरों के लिए न्यूज़ एजेंसियों पर निर्भरता बढ़ गई है। संवाददाताओं की संख्या घटाई जा रही है। विदेशी सेवाएं बंद की जा रही हैं। ऐसे में क्राइम, सेलेब्रिटी, मनोरंजन शोज़ जैसी सस्ती खबरें कवर करना उनके लिए काफी मुफीद साबित हो रहा है और गांव, गरीबी, बेरोज़गारी और पर्यावरण से जुड़ी खबरों को कवर करना घाटे का सौदा बन गया है।
लेकिन जिस भारत में मीडिया के विस्तार ही नहीं, विस्फोट की गुंजाइश बाकी है, जहां विज्ञापन की आमद 20-22 फीसदी सालाना की दर से बढ़ रही है, वहां सभी चैनलों को क्रिकेट, क्राइम, सेक्स, सेलेब्रिटी और मनोरंजन के पीछे भागने में ही टीआरपी क्यों दिखती है? उन्होंने व्यापक अवाम से जुड़े मुद्दों से क्यों हाथ खींच लिए हैं!!! ये सच है कि विज्ञापन की आमदनी पर निर्भर समाचार माध्यम उबाऊ खबरें दिखाकर दर्शक नहीं गंवाना चाहते। लेकिन जिन मध्यवर्गीय दर्शकों को वो पकड़ना चाहते हैं, वे क्राइम, अंधविश्वास, सेलेब्रिटी और टीवी सीरियलों के लटकों-झटकों के अलावा बहुत कुछ देखना चाहते हैं। फिर अगर आप केवल मौजूदा मध्यवर्ग को ही दर्शक मानते हैं, तो इसे धंधे का दूरगामी नज़रिया नहीं कहा जा सकता क्योंकि जिन 70-80 करोड़ लोगों को आप नज़रअंदाज़ कर रहे हैं, वो देश का कल तय करते हैं, वो राजनीतिक रूप से किसी की किस्मत बना-बिगाड़ सकते हैं।
आज देश का ज्यादा से ज्यादा लोकतंत्रीकरण मीडिया के विकास की बुनियादी शर्त है। इसलिए Infotainment में Entertainment रहे, यहां तक तो ठीक है, लेकिन ज़िंदगी के ज़रूरी Info अगर न्यूज़ से गायब रहेंगे तो इसमें न तो मीडिया के मालिकों का भला है, न संपादकों का और न ही मीडिया के उपभोक्ता का। राजनीति से लेकर समाज और पारिवार तक जहां-जहां लोकतांत्रिक कचोट है, लोग उसकी पूर्ति चाहते हैं। फॉर्मूलों फिल्मों के प्रोड्यूसरों की तरह यह कहना आसान है कि हम वही दिखा रहे हैं जो लोग देखना चाहते हैं। लेकिन हमें यह भी तो देखने की ज़रूरत है कि आज चक दे, रंग दे बसंती, खोसला का घोसला और तारे ज़मीं पर जैसी फिल्में सुपरहिट हो रही हैं, जबकि ज्यादातर मसाला फिल्में पिट रही हैं।
अब कुछ आंकड़े। इस समय हिंदी समाचारों के 12 न्यूज़ चैनल हैं। जल्दी ही त्रिवेणी के वॉयस ऑफ इंडिया के जुड़ जाने के बाद ये संख्या 13 पहुंच जाएगी। लेकिन ऊपर के तीन चैनलों के पास ही दर्शकों का आधे से ज्यादा (53 फीसदी) हिस्सा है। आप समझ ही सकते हैं कि बाकी चैनलों की हालत न तीन में, न तेरह में जैसी होगी। फिर भी नए-नए न्यूज़ चैनलों के आने का सिलसिला नहीं रुक रहा क्योंकि इस धंधे में काफी मोटा मुनाफा है। एक अनुमान के मुताबिक कोई भी न्यूज़ चैनल शुरू करने पर कम से कम 100-125 करोड़ रुपए का खर्च आता है और ब्रेक-इवन तक पहुंचने में तीन से पांच साल लग जाते हैं। लेकिन जम गए तो उसके बाद नोटों की बारिश शुरू हो जाती है।
TAM Media के मुताबिक भारत में टेलिविजन विज्ञापन 22 फीसदी की दर से बढ़ रहा है और फिक्की के लिए प्राइस वाटरहाउस कूपर्स की एक रिपोर्ट को सच मानें तो 18 फीसदी की सालाना चक्रवृद्धि दर से बढ़ता हुआ भारतीय मीडिया और मनोरंजन उद्योग 2012 तक 1,16,000 करोड़ रुपए का हो जाएगा। एक ताज़ा अध्ययन के मुताबिक अभी भारत में टेलिविजन की पहुंच 50 फीसदी, रेडियो की पहुंच 20, अखबारों की पहुंच 38 फीसदी, पत्रिकाओं की पहुंच 10 फीसदी और इंटरनेट की पहुंच महज पांच फीसदी है। ज़ाहिर है भारतीय मीडिया उद्योग में अभी अरबों-खरबों कमाने की संभावना है। लेकिन दिक्कत यह है कि बाज़ार में उतर रहे नए-नए चैनल भी जल्दी ही एक-दूसरे का क्लोन बन जाते हैं, एनडीटीवी इंडिया को छोड़कर जिसकी हालत उन मुट्ठी भर लोगों की तरह है जो मजबूरी में ईमानदार बने रहते हैं क्योंकि चाहकर भी भ्रष्ट नहीं हो पाते।
Comments
जल्द पैसा कमाने और अपनी टी आर पी बढाने के फेरे मे ये न्यूज़ चैनल वाले अपने कर्म से भी मुह मोड़ बैठे है.
सामाजिक सरोकार की बातों को महत्व देने के स्थान पर Entertainment के नाम पर कुछ भी दिखकर अपना उल्लू सीधा करने मे लगे हैं.
और एक पब्लिक है जो इस माया जाल मे फंसी जा रही है.
हालाँकि मुझे टैम पर ज़रूरत से ज़्यादा यक़ीन का कारण समझ में नहीं आता है। सब जानते हैं कि उनके मीटर, जो ज़्यादातर महानगरों में सीमित हैं, दर्शकों के सागर में बूंद की तरह हैं। शायद किसी और व्यापक एजेंसी के आने पर या टैम द्वारा स्वयं के विस्तार के बाद तस्वीर थोड़ी ज़्यादा स्पष्ट हो सके।
"अगर आप केवल मौजूदा मध्यवर्ग को ही दर्शक मानते हैं, तो इसे धंधे का दूरगामी नज़रिया नहीं कहा जा सकता क्योंकि जिन 70-80 करोड़ लोगों को आप नज़रअंदाज़ कर रहे हैं, वो देश का कल तय करते हैं, वो राजनीतिक रूप से किसी की किस्मत बना-बिगाड़ सकते हैं।"
बिल्कुल सही बातें कही हैं। अगर अखबारों की बात करें तो इस मामले में हिन्दी अखबारों कि दशा अंग्रेजी से भी ख़राब है।