हमें कौए की नहीं, उल्लू जैसी दृष्टि की दरकार है
इसलिए नहीं कि उल्लू रात के अंधेरे में देखता है और हम चारों तरफ अंधकार से घिरे हैं, बल्कि इसलिए कि कौए की आंखें सिर के दो तरफ होती हैं और वह एक बार में एक ही तरफ देख पाता है, इसलिए हमेशा ‘काक-चेष्ठा’ में गर्दन हिलाता रहता है। जबकि उल्लू की आंखें चेहरे पर सीधी रेखा में होती हैं। वह कौए की तरह किसी चीज़ को एक आंख से नहीं, बल्कि दोनों आंखों से बराबर देखता है। अपनी गर्दन पूरा 180 अंश पीछे भी मोड़ सकता है। हमारे साथ दिक्कत यह है कि हम दोनों आंखों से देख सकने की क्षमता के बावजूद कौए के मानिंद बने हुए हैं। एक बार में किसी चीज का एक ही पहलू देखते हैं। स्थिरता को देखते हैं तो गति को नहीं, अंश को देखते हैं तो समग्र को नहीं, जंगल को देखते हैं तो पेड़ को नहीं, व्यक्ति को देखते हैं तो समाज को नहीं।
चंद दिनों पहले ही मैंने नेतृत्व के बारे में केलॉग स्कूल ऑफ मैनेजमेंट के एक गुरु का लेख पढ़ा, जिसमें लिखा गया था कि मार्क्सवाद व्यक्तिगत नेतृत्व में यकीन नहीं करता। मार्क्सवाद मानता है कि आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन अपनी मस्त चाल से जा रहे हाथी की तरह हैं। जिस तरह हाथी के शरीर पर चढ़ी चींटी नहीं कह सकती कि वह उसे दिशा दे रही है, उसी तरह किसी सामाजिक बदलाव के व्यक्तिगत नेतृत्व का दावा हास्यास्पद है। मैंने पूरी तरह मार्क्सवाद को नहीं समझा है, लेकिन इतना ज़रूर जानता हूं कि वह द्वंद्ववाद को मानता है, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद उसका सिद्धांत है और यह सिद्धांत व्यक्ति व समाज के द्वंद्वात्मक रिश्ते में यकीन रखता है। किसी एक को खारिज करना या कमतर आंकना कहीं से इसका गुणसूत्र नहीं है। लेकिन जिस आकार के बर्तन में हम कोई द्रव डालते हैं, वह उसी आकार का हो जाता है, लोटे में लोटा, बोतल में बोतल और बीकर में बीकर। कुछ वैसा ही हश्र अपने कृषि-प्रधान देश में मार्क्सवाद का भी हुआ है।
द्वंद्ववाद की बात करूं तो अपने यहां भी बौद्ध दर्शन में discontinuous continuity और दुनिया सतत परिवर्तनशील है, जैसी धारणाएं रखी गई हैं। लेकिन पश्चिम में तो सुकरात से भी पहले एक ग्रीक दार्शनिक हुए थे हेराक्लिटस जिन्होंने सबसे पहले द्वंद्ववाद की बात सामने रखी थी। उनका कहना था – आदिम या मूलभूत एकता भी लगातार गतिशील है, बदल रही है। इसका बनना नष्ट हो जाना है और नष्ट हो जाना बनना है। आग जब पानी से गुजरती है तो वो खत्म होकर दूसरा रूप अख्तियार कर लेती है। हर चीज अपने विलोम में बदल जाती है और इसलिए हर चीज़ विरोधी गुणों की एकता है। उदाहरण के लिए, संगीत में हार्मनी या संगति उच्च और निम्न सुरों के मिलाप यानी विलोम की एकता से आती है।
सुकरात ने भी असहमतियों से निकलने के लिए तार्किक बहसों में द्वंद्वात्मक पद्धति का इस्तेमाल किया था। लेकिन जर्मन दार्शनिक जॉर्ज विलियम हेगेल ने द्वंद्ववाद को बाकायदा एक दर्शन की शक्ल दी। Thesis, anti-thesis और synthesis इस दर्शन का मूलाधार है। लेकिन हेगेल ने विचार को पदार्थ के ऊपर रखा था। मार्क्स ने पदार्थ को प्राथमिकता दी और द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का दर्शन पेश कर दिया जो आज तक एक वैकल्पिक राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था का आधार बना हुआ है। मार्क्स ने इंसान को वर्ग संघर्षों से भरे इतिहास की ‘आर्थिक शक्ति’ माना है। मार्क्सवाद व्यक्ति की भूमिका को कहीं से भी नहीं नकारता।
आपको बता दूं कि हेराक्लिटस का दौर ईसा-पूर्व पांचवी-छठी सदी का है। वे खुद एक कुलीन परिवार के थे, जिसे ग्रीक समाज में उभरी जनतंत्र की लहर बहा ले गई। कुलीनतंत्र कैसे टूटकर जनतंत्र में बदलता है, यह हकीकत ही हेराक्लिटस के द्वंद्ववाद की प्रेरक शक्ति बनी होगी। असल में विचारों का स्वतंत्र महत्व है, लेकिन मूलत: हमारी जीवन स्थितियां ही हमारे विचारों का निर्धारण करती हैं। हम जिस तरह का जीवन जीते हैं, उसमें हमारा एकांगी होना बड़ा प्राकृतिक है, उसी तरह जैसे गुरुत्वाकर्षण के चलते पानी का हमेशा नीचे बहना। लेकिन हम इंसान इसीलिए हैं क्योंकि हम अपने अंदर और बाहर की प्रकृति को बदलने की सामर्थ्य रखते हैं और उसे बदलते भी रहते हैं। इसीलिए मैं कहता हूं कि कौए की काक-चेष्ठा तक तो ठीक है, लेकिन उसकी एकांगी दृष्टि के बजाय हमें उल्लू की सम्यक दृष्टि अपनानी चाहिए।
चंद दिनों पहले ही मैंने नेतृत्व के बारे में केलॉग स्कूल ऑफ मैनेजमेंट के एक गुरु का लेख पढ़ा, जिसमें लिखा गया था कि मार्क्सवाद व्यक्तिगत नेतृत्व में यकीन नहीं करता। मार्क्सवाद मानता है कि आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन अपनी मस्त चाल से जा रहे हाथी की तरह हैं। जिस तरह हाथी के शरीर पर चढ़ी चींटी नहीं कह सकती कि वह उसे दिशा दे रही है, उसी तरह किसी सामाजिक बदलाव के व्यक्तिगत नेतृत्व का दावा हास्यास्पद है। मैंने पूरी तरह मार्क्सवाद को नहीं समझा है, लेकिन इतना ज़रूर जानता हूं कि वह द्वंद्ववाद को मानता है, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद उसका सिद्धांत है और यह सिद्धांत व्यक्ति व समाज के द्वंद्वात्मक रिश्ते में यकीन रखता है। किसी एक को खारिज करना या कमतर आंकना कहीं से इसका गुणसूत्र नहीं है। लेकिन जिस आकार के बर्तन में हम कोई द्रव डालते हैं, वह उसी आकार का हो जाता है, लोटे में लोटा, बोतल में बोतल और बीकर में बीकर। कुछ वैसा ही हश्र अपने कृषि-प्रधान देश में मार्क्सवाद का भी हुआ है।
द्वंद्ववाद की बात करूं तो अपने यहां भी बौद्ध दर्शन में discontinuous continuity और दुनिया सतत परिवर्तनशील है, जैसी धारणाएं रखी गई हैं। लेकिन पश्चिम में तो सुकरात से भी पहले एक ग्रीक दार्शनिक हुए थे हेराक्लिटस जिन्होंने सबसे पहले द्वंद्ववाद की बात सामने रखी थी। उनका कहना था – आदिम या मूलभूत एकता भी लगातार गतिशील है, बदल रही है। इसका बनना नष्ट हो जाना है और नष्ट हो जाना बनना है। आग जब पानी से गुजरती है तो वो खत्म होकर दूसरा रूप अख्तियार कर लेती है। हर चीज अपने विलोम में बदल जाती है और इसलिए हर चीज़ विरोधी गुणों की एकता है। उदाहरण के लिए, संगीत में हार्मनी या संगति उच्च और निम्न सुरों के मिलाप यानी विलोम की एकता से आती है।
सुकरात ने भी असहमतियों से निकलने के लिए तार्किक बहसों में द्वंद्वात्मक पद्धति का इस्तेमाल किया था। लेकिन जर्मन दार्शनिक जॉर्ज विलियम हेगेल ने द्वंद्ववाद को बाकायदा एक दर्शन की शक्ल दी। Thesis, anti-thesis और synthesis इस दर्शन का मूलाधार है। लेकिन हेगेल ने विचार को पदार्थ के ऊपर रखा था। मार्क्स ने पदार्थ को प्राथमिकता दी और द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का दर्शन पेश कर दिया जो आज तक एक वैकल्पिक राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था का आधार बना हुआ है। मार्क्स ने इंसान को वर्ग संघर्षों से भरे इतिहास की ‘आर्थिक शक्ति’ माना है। मार्क्सवाद व्यक्ति की भूमिका को कहीं से भी नहीं नकारता।
आपको बता दूं कि हेराक्लिटस का दौर ईसा-पूर्व पांचवी-छठी सदी का है। वे खुद एक कुलीन परिवार के थे, जिसे ग्रीक समाज में उभरी जनतंत्र की लहर बहा ले गई। कुलीनतंत्र कैसे टूटकर जनतंत्र में बदलता है, यह हकीकत ही हेराक्लिटस के द्वंद्ववाद की प्रेरक शक्ति बनी होगी। असल में विचारों का स्वतंत्र महत्व है, लेकिन मूलत: हमारी जीवन स्थितियां ही हमारे विचारों का निर्धारण करती हैं। हम जिस तरह का जीवन जीते हैं, उसमें हमारा एकांगी होना बड़ा प्राकृतिक है, उसी तरह जैसे गुरुत्वाकर्षण के चलते पानी का हमेशा नीचे बहना। लेकिन हम इंसान इसीलिए हैं क्योंकि हम अपने अंदर और बाहर की प्रकृति को बदलने की सामर्थ्य रखते हैं और उसे बदलते भी रहते हैं। इसीलिए मैं कहता हूं कि कौए की काक-चेष्ठा तक तो ठीक है, लेकिन उसकी एकांगी दृष्टि के बजाय हमें उल्लू की सम्यक दृष्टि अपनानी चाहिए।
Comments
मैं उन से सहमत था और हूँ। सोचना तो यह है कि वहाँ तक का रास्ता कैसा हो?
व्यक्ति के महत्व का निषेध मार्क्सवाद नहीं करता। लेकिन मार्क्सवादी संगठन में व्यक्तिगत निर्णय का निषेध जरुर करता है। सांगठनिक सिद्धान्त "सामुहिक निर्णय और निष्पादन की व्यक्तिगत जिम्मेदारी" है। यह सिद्धान्त सदियों पुराना है, शायद आदिम साम्यवाद के जमाने का। लेकिन इसे मार्क्सवाद का अभिन्न अंग बनाने का श्रेय लेनिन को है।
मूल बात यह है कि सामूहिक मुक्ति का मार्ग कैसे खोजा जाए? आज पूंजीवाद के लालच ने व्यक्ति को समष्टि में बदलने लायक छोड़ा है क्या? वैसे तो आदिम प्रवृत्ति यह है कि मनुष्य कम्यून में जिए. फ़िर व्यक्तिगत संपत्ति के अधिकार को लेकर सोवियत रूस में अधिकार क्यों वापस लेना पड़ा था?
http://kabaadkhaana.blogspot.com/2007/10/blog-post_12.html
विजय - आज भर की छुट्टी है और मुझे दो हफ्तों का "शब्दों का सफर" पढ़ना है - इत्मीनान से - अभी रफा दफा ?