तुम तोप हो, तमंचे हो! तो हुआ करो, हमसे क्या?

न गांव के, न गिरांव के। न अपने कस्बे के, न जिला-जवार के। न भाई, न बंधु। फिर भी तुम लोगों के इतने करीब कैसे हो जाते हो कि तुम्हारे लिए वे कुछ भी करने को तत्पर रहते हैं। तुम्हारा सानिध्य पाने के लिए, तुम्हारा स्पर्श पाने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। यह कैसे हो जाता है कि एक हिंदुस्तानी परिवार की नौजवान लड़की सरेआम मंच पर कैमरों के आगे सोनू निगम को इतना कसकर चूमती है कि खून निकल आता है? अपने यहां खूबसूरत नौजवान छोरों की कोई कमी है क्या? फिर सोनू निगम ही क्यों? इसलिए कि वो आज एक सिलेब्रिटी बन चुका है। क्या आप पांचवीं पास से तेज़ हैं, में लोगबाग इसीलिए गदगद हो जाते हैं कि उन्होंने शाहरुख को छुआ, इतने करीब से देखा, उससे बात की, उसके साथ नाचे।

क्या यह खुद सिलेब्रिटी बनने का क्रेज है जो इन्हें अपने रोल मॉडल के प्रति आसक्त कर देता है या बरसात में दीवार पर उग आई हनुमान या गणेश के प्रतिमा के दर्शन के लिए टूट पड़ने की मानसिकता है? अगर यह खुद सिलेब्रिटी बनने की लालसा का हिस्सा है तो बड़ी अच्छी और सकारात्मक बात है। हर किसी को बड़े से बड़ा बनने के सपने देखने चाहिए और उसके लिए हरसंभव कोशिश भी करनी चाहिए। लेकिन तब तो नारायण मूर्ति, अजीम प्रेमजी, सुनील मित्तल, इंदिरा नूयी, किरन शॉ मजूमदार या आम से खास बने ऐसे किसी शख्स को अमिताभ, ऐश्वर्या, सलमान या कटरीना कैफ से बड़ा सिलेब्रिटी होना चाहिए था। आप कहेंगे कि सचिन और कपिल जैसे प्रतिभा के धनी लोग भी तो सिलेब्रिटी हैं। ठीक है, लेकिन मेरा सवाल है कि विश्वनाथन आनंद या धनराज पिल्लै की यह हैसियत क्यों नहीं है?

असल में कुछ तो हमारे अंदर का रीतापन है और कुछ बाज़ार की चाल है जो सिलेब्रिटी तैयार करती है। बाज़ार हमेशा ताक में रहता है कि कोई ऐसा सिम्बल मिल जाए जिससे वो ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंच सके। यह सिम्बल कोई स्लोगन भी हो सकता है और कोई ऋतिक रौशन या सचिन तेंडुलकर या कोई कुत्ता भी (संदर्भ – वोडाफोन)। जिसमें ज़रा-सा भी गुंजाइश नज़र आती है, विज्ञापन एजेंसियां उसे लपक लेती हैं। नहीं तो ओमपुरी या जावेद अख्तर से सीमेंट का ऐड कराने का क्या तुक है!! बाज़ार की यह चाल ज़माने का दस्तूर है। इसे रोका नहीं जा सकता। लेकिन जो चीज़ रोकी जा सकती है, वह है अपने अंदर का रीतापन।

आप कहेंगे कि ऐसा तो सारी दुनिया में है। अमीर से अमीर देशों में लोग सिलेब्रिटीज़ के पीछे भागते हैं, उनके दीवाने रहते हैं। लेकिन मेरा कहना है कि और देशों की दीवानगी और हमारे यहां की दीवानगी में फर्क है। वो इंसानों की तलाश में दीवाने हैं, हम भगवानों की तलाश में दीवाने हैं। हम सिलेब्रिटी में भगवान देखते हैं। दक्षिण भारत में सिने अभिनेता-अभिनेत्रियों का राजनेता बनना, उनके नाम के मंदिर बनने के पीछे यही मानसिकता काम करती है। जहां जितना आर्थिक व सांस्कृतिक पिछड़ापन है, गरीबी है, वहां उतना ही ग्लैमर चलता है। दक्षिण भारतीय फिल्मों, बंगाली फिल्मों, बॉलीवुड की फिल्मों और हॉलीवुड की फिल्मों का अंतर परख लीजिए, बहुत कुछ साफ हो जाएगा। मुझे लगता है कि हम हिंदुस्तानियों में एक तरह के आत्मविश्वास की कमी है जो हमें ग्लैमर से घिरी सिलेब्रिटीज़ के कदमों में घसीट ले जाती है।

इस आत्मविश्वास को लौटाने का कोई नुस्खा तो फिलहाल मेरे पास नहीं है, लेकिन काफी पहले देवरिया के एक सहपाठी मित्र सुरेश उपाध्याय (जो इस समय उत्तर प्रदेश में ट्रेजरी अफसर हैं) का सुनाया किस्सा ज़रूर पेश कर सकता हूं। हुआ यह कि उनके गांव में कोई रानी साहिबा आईं। दिशा-मैदान के लिए इंतज़ाम घर में करना था तो इसका ज़िम्मा एक नाउन (नाई की घरवाली) को दिया गया। नाउन को भाया तो नहीं, लेकिन उन्होंने खुशी-खुशी यह ज़िम्मा ले लिया क्योंकि पता लगाना था कि जो रानी इतने मेवे-बादाम खाती है, वह निकालती क्या है? अगले दिन नाउन बड़ी निराश। गांव भर में घूम-घूमकर बोलती रही – ई काहे की रानी और एनके बदाम-काजू किसमिस खइले का फायदा। ई तो एकदम हमनियैं जैसे करंयलीं। उसी दिन नाउन के मन से रानी के सिलेब्रिटी होने का भ्रम किसी कांटे की तरह निकल गया।
फोटो सौजन्य: Sarajea

Comments

PD said…
अंतिम किस्सा सुन कर मजा आ गया.. वैसे मेरी नजर में कोई भी हो, अगर अच्छा इंसान नहीं है तो वो कुछ भी नहीं है.. चाहे शाहरूख या मेरे घर के सामने वाला चौकीदार.. उस चौकीदार कि तमिल मुझे कुछ भी समझ में नहीं आता है मगर मुझे उसके साथ 2 मिनट बिताना बहुत अच्छा लगता है क्योंकि मैंने उसे बिना किसी स्वार्थ के हर किसी कि मदद करते देखा है..
अंतिम किस्सा पढ़कर तो हम भी नाइन के फैन हो गए इसलिए टिप्पणी करने से रोक न पाए. जो दिल में सीधा उतर जाए वही हमारे लिए सैलिब्रिटी है.
Sandeep Singh said…
अंतिम किस्से के हिसाब से तो 'सिलेब्रिटी'शब्द से ही नाक, भौं सिकोड़ते जरा दूर से गुजरना चाहिए....पढ़कर मजा आया।
वैसे ये बात भी सच लगती है कि सेलिब्रिटी से मिलकर ढ़िंढोरा पीटने वाली गर्मजोशी के व्यवहार के पीछे कहीं न कहीं उसकी लोकप्रियता को अपने हिस्से में भुनाने की चाहत भी होती है (भले ही थोड़े समय के लिए)
नाइन के ड़र से ही ये लोग इस बात को इतना गुप्त रखते हैं, कोई डिरेक्टर भी फिलम में नहीं दिखा पाता। वरना हम तो आज तक यही सोचते थे कि हिन्दी फिलम के हीरो-हीरोनियों को शौच होता ही नहीं।
Unknown said…
भाई साब - किस्मत का क्या ? - मर्म पर बिल्कुल सहमति - जो हों सो हों उनको बधाई - [ और मानव उम्मीद - १५ मिनट की चकाचौंध शायद हम सब को मिले !!! ] - मेरा अनुभव है कि अपने विषय में एक समय जो बड़े नाम बड़े लगते थे और जिनसे मिला करीब पचास प्रतिशत दर्शन छोटे रहे [ बाकी में दम लगा] - नाईन की तरह अति परिचय जब तक न हो तब तक चांदी चकाचक - और पीडी ने भी बड़ी अच्छी बात कही - [ वैसे मेरी पसंदीदा पंक्तियों में बच्चन जी की " स्वप्न में हो स्वर्ग लेकिन पाँव पृथ्वी पर टिके हों, कंटकों की इस अनोखी सीख का सम्मान कर ले .." पथ की पहचान में से है - शायद आपने भी नौवीं - दसवीं में पढी हो - कभी इसपर भी सोचें की लिखा जा सकता है या नहीं ? ]
Unknown said…
अनिल भाई मजा आ गया. भोजपुरी में एक कहावत है "राजा होबा त खईब का अऊर राजा होबा त ह....बा का"
Abhishek Ojha said…
वाह किस्सा तो मस्त सुनाया आपने... आपसे बिल्कुल सहमत ! टिपण्णी भी खूब अच्छी-अच्छी आई हैं.
Udan Tashtari said…
जैसे नाऊन का भ्रम टूटा वैसे ही सबका टूटता जाता है और नया भ्रम पैदा होता जाता है. सब मन की भटकन है मगर है किसी न किसी रुप में सभी में.
अनिल भाई, शीर्षक पढ़कर जो अन्दर घुसे तो लगा दरवाज़े से ही खून के छींटे मिलने शुरू हो जायेंगे और अपन 'वक़्त' के राजकुमार की तरह जूतों के निशानों से फंस जायेंगे! सोच रखा था कि 'एक हिन्दुस्तानी की डायरी' की कोई खिड़की ढूंढ़कर फलांग लेंगे. लेकिन यहाँ तो बात नाउन पर जा कर ख़त्म हुई. मुआफ कीजियेगा हमारे इलाके में नाईन को नाउन ही कहते हैं.
मिडिल में जब Noun की परिभाषा देनी होती थी तो हमारे सीनियर लोग बताते थे- Noun is a women who can not keep any secrets'.

...और फिर पढ़ना जो शुरू किया है तो भाई साहब भदेस दर्शन पाकर धूमिल गुरु की याद आ गयी. क़सम से!
जायज चिंता है।

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